बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबर प्रयोग

अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबर प्रयोग

          महाशिवरात्रि पर्व निकट ही है। यह १३ फरवरी २०१८ को आ रहा है। आप सभी को महाशिवरात्रि की अग्रिम रूप से बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ! 

         बहुधा व्यक्ति जीवन में बाधाओं से ग्रस्त होता है, जिसकी वजह से उसकी आर्थिक, सामाजिक, मानसिक, पारिवारिक स्थिति कमजोर होते जाती हैं और परिणाम स्वरूप व्यक्ति का जीवन पूरी तरह बर्बाद हो जाता है। हम अक्सर ऐसे में स्वयं को बाह्य बाधा से ग्रसित मान लेते हैं, किन्तु यह पूरी तरह सत्य नहीं होता है और अगर यह सत्य भी हुआ तो हमें यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि यह बाधा किस प्रकार की है? क्यूँकि जीवन में पतन और अभाव के मूल ७ कारण होते हैं, जिनसे व्यक्ति ग्रसित होने पर उन्नति पथ से विचलित होकर विनाश के द्वार तक पहुँच कर अपना सब कुछ लुटा देता है। ये बाधाएँ बाह्य और आन्तरिक दोनों ही प्रकार की होती हैं, इनका सामूहिक शमन कर पाना किसी एक क्रिया से सम्भव नहीं होता है और हमें यह भी तो ज्ञात नहीं होता है कि यह किस प्रकार की बाधा है? जब हम इसके उपचार हेतु जानकारी चाहते हैं तो तथाकथित तान्त्रिक तन्त्रबाधा के नाम से लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं और व्यक्ति दुहरी मार से वैसे ही मर जाता है। क्यूँकि आवश्यक नहीं है कि जिनसे हम अपनी समस्या का समाधान चाहते हों, उन्हें यह ज्ञात भी हो कि इस समस्या का मूल क्या है? जिस प्रकार एक चिकित्सक चिकित्सा की सभी विधियों में पारंगत हो, ऐसा अनिवार्य नहीं है। 

         वही स्थिति तन्त्र में भी होती है अर्थात तन्त्र की सभी विधियों का ज्ञान एक ही तान्त्रिक को हो, ऐसा अनिवार्य नहीं है। किन्तु नाथ योगियों ने समाज के कल्याण के लिए निरन्तर साधनात्मक अन्वेषण का कार्य किया है और नूतन साधनात्मक पद्धतियों से साधकों को परिचित करवाया है। उसी क्रम में सिद्ध रेवणनाथ” का नाम आता है, जो कि तन्त्र के प्रकाण्ड विद्वान लंकाधिपति रावण का ही अवतार हैं और तन्त्र मार्ग के पथिक होने के कारण उन्होंने अपने प्रत्येक रूप से तन्त्र के विविध रहस्यों को आत्मसात् किया है और भगवान शिव के द्वारा अगम्य एवं कठिनतम साधनाओं को हस्तगत किया है। उसी क्रम में उन्होंने भगवान शिव के द्वारा इस पूर्ण तन्त्र बाधा और सप्तदोष नाशक अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबरी प्रयोग के विधान को प्राप्त किया था।


         पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी ने कहा था कि इस मन्त्र के द्वारा जीवन को रसातल में पहुँचाने वाले ७ दोषों का नाश किया जा सकता है। ये सात दोष निम्न प्रकार के हैं -----

(१) अधिदैविक दोष :----- कभी-कभी साधक के कुलदेवी-देवता किसी कारण नाराज हो जाते हैं अर्थात यदि उनका उचित सम्मान न किया जाए या उनके पूजन क्रम में आलस्य व प्रमादवश शिथिलता कर दी जाए तो ऐसे में कुलदेवता का सुरक्षा चक्र मन्द हो जाता है या भंग हो जाता है। तब अभी तक उसे जो सुरक्षा व गति प्राप्त हो रही थी, वो समाप्त हो जाती है। फलस्वरूप साधक दुर्भाग्य की जकड में आ जाता है।

(२) इष्ट दोष :----- प्रत्येक मनुष्य किसी विशेष देवशक्ति का अंश लिए हुए होता है तथा इसी तथ्य पर उसके इष्ट का निर्धारण भी होता है, किन्तु बहुधा साधक को उसके इष्ट की जानकारी नहीं होती है और इसका ज्ञान मात्र सद्गुरु को ही होता है। किन्तु जब साधक उसे जानने की कोई जिज्ञासा ही नहीं रखता है, तब ऐसे में वो भ्रमवश या लालचवश किसी भी देवी-देवता को अपना इष्ट बना लेता है और ऐसे में आवश्यक नहीं है कि वो चयनित देवशक्ति उसकी मित्र ही हो। कभी-कभी पूर्वजन्म के संस्कारों के फलस्वरूप शत्रु देवशक्ति भी हो सकती है, क्यूँकि प्रत्येक साधक को कौन-सी देवशक्ति का साहचर्य मिलेगा या किसका गुण उसके प्राणगत रूप से मेल खाता है, इसका ज्ञान साधक को हो पाना कठिन ही होता है। तब साधक अतिरंजित घटनाओं को सुनकर या अधिक पाने के लालच में किसी भी शक्ति की आराधना करने लगता है और उसके मूल इष्ट उपेक्षित रह जाते हैं तथा साधक उनकी कृपा से वंचित रह जाता है। ऐसे में तब उसे लाभ के बजाय हानि होने लगती है और उसे ये अज्ञात कारण समझ में ही नहीं आता है।

(३) कर्मदोष :----- प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में तीन प्रकार के कर्मों का परिणाम पाता है --- प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण। मान लीजिए, आपने इस जीवन में लगातार पुण्यकर्म किये हैं, किन्तु जीवन में अभाव है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा। तब यह समझ में नहीं आता है कि आखिरकार हमसे ऐसी कौन-सी त्रुटि हुई है, जो जीवन में ना तो प्रसन्नता है, ना ही कोई उन्नति के चिन्ह ही। अब इसका ज्ञान उसे गुरु ही दे सकता है या फिर इसे उसकी कुण्डली द्वारा भी जाना जा सकता है। यह ज्ञात किया जा सकता है कि आखिरकार हम किन कर्मों का परिणाम झेल रहे हैं? क्या वे हमारे पूर्वजन्मों का परिणाम है या फिर संचित या वर्तमान के क्रियमाण कर्मों का?

(४) आधारदोष :----- कभी-कभी हमारी अवनति का कारण हमारा मोह, प्रेम या कर्त्तव्य भी हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि हमारे सम्बन्ध में कोई ऐसा होता है, जो कि हमारा अत्यधिक स्नेही है और वो व्यक्ति जीवन में दुःख,अभाव या दुर्भाग्य से ग्रस्त होता है तथा हम उसकी उन्नति के लिए पूर्ण हृदय से प्रार्थना करते हैं, उसके कष्टों को दूर करने का प्रयत्न भी करते हैं, किन्तु हमें यह ज्ञात नहीं होता है कि कहीं न कहीं हमारे द्वारा किए जा रहे हस्तक्षेप का परिणाम हमारे दुर्भाग्य के रूप में हमारे सामने आ सकता है। अतः मोह जनित इस दोष से जो परिणाम प्राप्त होते हैं, वो इतने कष्टकारी और भयावह होते हैं कि हमारे साथ-साथ इस चक्की में हमारा परिवार भी पिसता जाता है और पूरे परिवार का विकास रुक जाता है तथा एक उदासी, बैचेनी का साम्राज्य परिवार में फैल जाता है। हमारे पूर्वजों के द्वारा किये गए बुरे कार्यों का परिणाम भी इसी श्रेणी में आता है, जो कि उनके प्रतिनिधि के रूप में हमें भोगना होता है, अर्थात पितृ दोष को भी हम इसी दोष के अन्तर्गत रखते हैं।

(५) शाप दोष :----- हमारे कर्मों के द्वारा किसी अन्य का हृदय दुखने से, उसका अहित होने से भी स्वयं के जीवन का योग दुर्भाग्य से युक्त हो जाता है। ब्रह्माण्ड भावों की तीव्रता से अछूता नहीं है और इसी कारण हमारे भाव साकार रूप में हमारे सामने आ जाते हैं। इसका सिद्धान्त यह है कि हमारे मन में चल रहे भाव का योग जैसे ही उस भाव विशेष के स्वामी काल क्षणों से होता है तो वे भाव, भाव ना रहकर साकार रूप में हमारे जीवन में प्रविष्ट हो जाते हैं। इसी कारण किसी के द्वारा पूर्ण शान्त हृदय से दिया गया आशीष और किसी के पीड़ित हृदय से निकली आह फलीभूत होती है और याद रखिए कि ब्रह्माण्ड नकारात्मकता को कहीं अधिक तीव्रता से स्वीकार भी करता है एवं उसके परिणाम को उससे कहीं अधिक तीव्रता से प्रदान भी करता है, क्यूँकि ऐसे में मात्र ऊर्जा का विखण्डन करना ही होता है जो कि सहज है अपेक्षाकृत सकारात्मक भावों से प्रेरित ऊर्जा के संलयन के। अर्थात आशीर्वाद फलीभूत होने में समय ले सकते है, किन्तु श्राप समय नहीं लेता है। इस दोष के अन्तर्गत वास्तुदोष भी आता है अर्थात जिस भूमि पर आप रह रहे हैं, परिस्थितियों, श्राप, काल या घटनाओं के कारण उसमें विकृति आ जाती है और वो भूमि, भवन निरन्तर नकारात्मक ऊर्जा छोड़ते हैं, जिससे दुर्भाग्य का साम्राज्य व्यक्ति विशेष के जीवन में समाहित हो जाता है।

(६) नवग्रह दोष :----- व्यक्ति के जन्म समय में ग्रहों की आधार स्थिति कैसी थी? नक्षत्रों का उस पर क्या प्रभाव पड़ रहा था? किस ग्रह के भुक्तफल को भोगते हुए उसका जन्म हुआ है? उन्नति प्रदायक ग्रहों के कमजोर होने से तथा शत्रु ग्रहों के बलवान होने से, ग्रहों की महादशा,अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर दशा, सूक्ष्मदशा तथा प्राणदशाओं के स्वामी का उस दशा विशेष में जातक के ऊपर क्या परिणाम होगा? उसे कितनी हानि या लाभ होगा? आदि तथ्य इसी प्रकार निर्धारित होते हैं। अतः इसका ज्ञान भी कुण्डली द्वारा किया जा सकता है।

(७) तन्त्र-बाधा दोष :----- आपकी निरन्तर उन्नति, परिवार में व्याप्त प्रसन्नता व आनन्द को देखकर या किसी शत्रुता के कारण कई ऐसे निकृष्ट कर्म विरोधियों द्वारा आपके विरुद्ध सम्पन्न कर दिए जाते हैं, जिससे सौभाग्य परिवार और स्वयं से कोसों दूर हो जाता है। तन्त्र की ये क्रिया करने में कोई विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं होती है या तो तीव्र तन्त्र बल से या फिर तन्त्र सामग्रियों का निकृष्ट काल और शक्तियों से योग कराकर पिशाच शक्तियों के द्वारा किसी का भी जीवन तहस-नहस किया जा सकता है। क्यूँकि भवन निर्माण में कुशलता और अनुभव की प्रधानता होती है, जहाँ अन्धाधुन्ध विनाश की बात है, वहाँ बिना किसी कुशलता के मात्र आप आँख मूँद कर भी पत्थर फेंकोगे तो कहीं न कहीं तो नुकसान होता ही है।

          उपरोक्त सात में से कोई भी एक कारण आपके और आपके परिवार तथा स्वजनों के दुर्भाग्य का कारण हो सकता है। आर्थिक रूप से टूटते जाना, पति या पत्नी का विपरीत हो जाना, सन्तान का गलत मार्ग पर बढ़ना, भ्रमित मानसिकता से गलत निर्णयों का उत्पन्न होना, गर्भपात या गर्भ का ना टिकना, अकाल दुर्घटना, शारीरक व्याधियों तथा रोगों का जन्म, साधना में असफलता, बदनामी, चिड़चिड़ाहट, गलत राह पर अग्रसर होना, मुकदमों में फँसे रहना, राज्य द्वारा निरन्तर बाधा उत्पन्न करना, अवसाद ग्रस्त होना, निरन्तर अवनति तथा दारिद्रय युक्त जीवन जीना आदि उपरोक्त दोषों का ही परिणाम है।

          अब ऐसे में हमें समझ में ही नहीं आता है कि आखिर हम उपाय क्या करें? हमें जो जैसा बता देता है, हम वैसा ही करते हैं और नतीजा ढाक के तीन पात वाला होता है। क्योंकि जब तक हमें समस्या का मूल कारण ही नहीं पाता होगा, तब तक उसका उचित समाधान नहीं किया जा सकता है, क्यूँकि पेटदर्द की औषधि से गले का दर्द तो ठीक नहीं किया जा सकता है।

          किन्तु अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबरी प्रयोग के द्वारा उपरोक्त सातों स्थितियों पर पूर्ण नियन्त्रण पाया जा सकता है। वस्तुतः यह मन्त्र उन बीज मन्त्रों के द्वारा निर्मित हुआ है, जिनसे सभी प्रकार के दोषों का नाश होता है।

साधना विधान :-----------

          शिवरात्रि से होली तक इस प्रयोग को करने पर तीव्रता से लाभ प्राप्त किया जा सकता है, अन्य दिवसों में यह साधना २१ दिन की होती है, रात्रि के १०.३० से १२.४५ तक नित्य इसका जाप किया जाता है। इस साधना में कोई विनियोग या ध्यान नहीं किया जाता है, दक्षिण दिशा की ओर मुख करके काले आसन पर बैठ कर, काले वस्त्रों को धारण कर सामने बाजोट पर काला वस्त्र बिछाकर उस पर पारद शिवलिंग या कोई भी चैतन्य शिवलिंग की स्थापना स्टील के पात्र में की जाए। 

          साधक के लिए उचित होगा कि सर्वप्रथम सद्गुरुदेव, भगवान गणपति, भगवान भैरव और भगवान अघोर का पूजन कर उनसे इस साधना में सफलता की प्रार्थना की जाए तथा आज्ञा ली जाए। शिवलिंग के बाईं तरफ तेल के दीपक का स्थान होगा तथा दाहिनी तरफ ताम्रपात्र में जल का कलश स्थापित होगा। उस ताम्रपात्र में जो जल भरा जाएगा, वो सभी सदस्यों के द्वारा स्पर्श किया हुआ होना चाहिए अर्थात सभी परिवार के सदस्य उसमें पूर्ण स्वच्छ होकर थोड़ा-थोड़ा जल डालेंगे तथा पूर्ण बाधा नाश की प्रार्थना करेंगे।

          सबसे पहले पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का स्मरण करके सामान्य पूजन सम्पन्न करें और गुरुमन्त्र का चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबर प्रयोग सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से आज्ञा लें और उनसे साधना की सफलता एवं पूर्णता के लिए निवेदन करें।

          इसके बाद साधक शिवलिंग का पूर्ण पूजन करे अर्थात अक्षत, पुष्प, धूप-दीप,भस्म, तिल के लड्डुओं के नैवेद्य द्वारा पूजन करे तथा काली हकीक माला या रुद्राक्ष माला द्वारा ७ माला निम्न मन्त्र का जाप करे। प्रत्येक माला की समाप्ति पर काले तिल, कालीमिर्च, सरसों और लौंग अर्पित कर दे।

।। ॐ पिशाचि पर्णशबरि सर्वोपद्रवनाशनि स्वाहा ।।

OM PISHAACHI PARNNASHABARI SARVOPDRAVNAASHNI SWAAHA.

          इस मन्त्र के जाप के बाद पूर्ण स्थिर चित्त होकर माला को धारण कर पुनः उपरोक्त सामग्री को निम्न मन्त्र के उच्चारण साथ धीरे-धीरे बिना किसी माला के जाप करते हुए शिवलिंग पर चढाते रहे, लगभग ४५ मिनट तक यह क्रिया करनी है -----

।। ॐ ह्लौं ग्लौं क्लीं ग्लीं ॐ फट् ।।

OM HLOUM GLOUM KLEEM GLEEM OM PHAT.

          इसके बाद फिर से पहले वाला मन्त्र ७ माला जप करते हुए सामग्री चढाएं -----

।। ॐ पिशाचि पर्णशबरि सर्वोपद्रवनाशनि स्वाहा ।।

          नित्य यही क्रम करना है, प्रतिदिन सामग्री को अलग कर पास में एक मिट्टी का पात्र रखकर उसमें डाल दे।

          जप काल में शरीर का तापमान बढ़ जाता है, सर दर्द करता है, साधना के प्रति उपेक्षा का भाव आता है, कँपकँपी तथा पसीना तीव्रता से निकलता है, भय लग सकता है। ऐसा लगता है, जैसे कोई और साथ में वहाँ पर है।

          यदि हम शिवरात्रि से यह प्रयोग करते हैं तो मात्र ७ दिन का ही यह प्रयोग है। जो भी सामग्री ७ दिनों में इकट्ठी हुई हो, उसे उसी काले कपडे में बाँध कर जप माला तथा नैवेद्य के सभी लड्डुओं समेत होली की रात्रि में होलिकाग्नि में दक्षिण की ओर मुँह करके डाल दे, साथ ही कुछ दक्षिणा अर्पित कर दे।

          यदि आप अन्य दिवसों में साधना कर रहे हैं तो २१ वें दिन किसी वीरान जगह पर अग्नि प्रज्वलित कर दक्षिण मुख होकर ये सामग्री डाल दे। जैसे ही हम सामग्री को अग्नि में अर्पित करते हैं तो चीत्कार और कोलाहल-सा सुनाई देने लगता है। घर आकर स्नान करें तथा कलश में जो जल है वो पूरे घर और सभी सदस्यों पर छिड़क दें।

          अगले दिन ३ कन्याओं तथा एक बालक को भोजन कराकर दक्षिणा देकर तृप्त कर दें। इस प्रकार यह अद्वितीय प्रयोग पूर्ण होता है।


          सद्गुरुदेवजी द्वारा प्रदत्त यह प्रयोग मेरा खुद का अनुभूत है और इससे तीव्र प्रयोग मैंने अभी तक नहीं देखा है। इसका लाभ मैंने उठाया है, अतः आप सभी भी इस प्रयोग से लाभ ले सकते हैं।

          आपकी साधना सफल हो। यह महाशिवरात्रि आपके लिए मंगलमय हो! मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ 

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश ।।।

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

चन्द्रमौलिश्वर साधना

चन्द्रमौलिश्वर साधना

            महाशिवरात्रि पर्व निकट ही है। यह इस बार १३ फरवरी २०१८ को आ रहा है। आप सभी को महागशिवरात्रि महापर्व की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ! 

          मानव जीवन स्वतन्त्र नहीं है, क्योंकि उसका प्रत्येक कार्य ग्रहों से संचालित होता है। इसी कारणवश जब ग्रहों का विपरीत असर मानव पर पड़ता है तो उसे ज़रूरत से ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उसे विभिन्न प्रकार के कष्ट और दुःख भोगने पड़ते हैं।

          सम्पूर्ण जगत कुछ नियमों-उपनियमों से बँधा है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, उन पर ग्रहों का प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता ही है तथा पृथ्वी पर रहने वाली प्रत्येक वस्तु के साथ जो आकर्षण-विकर्षण ग्रहों के प्रभाव से बनता है, उसके प्रभाव से कोई बच नहीं सकता। यही कारण है कि मनुष्य चाहकर भी उन्नति की मंज़िल पर यदि बढ़ता है तो कुछ क्रूर ग्रह और पापी ग्रह उसकी कामयाबी के रास्ते का रोड़ा बन जाते हैं। अतः जीवन में यदि ग्रहों की दशा अच्छी रहती है तो हमारी कामयाबी भी हमारे साथ होती है।

          इसमें कोई दो राय नहीं कि मानव जीवन और भाग्य पर ग्रहों का प्रभाव बराबर रहता है। कई बार तो ऐसा होता है कि हम प्रयत्न करते हैं और जब सफलता हमसे दो-चार हाथ दूर रह जाती है, तो सारे किये-कराये काम पर पानी फिर जाता है। आपने कई बार यह अनुभव किया होगा कि प्रयत्न करने पर भी व्यापार में सफलता नहीं मिल पा रही है या जिस प्रकार से बिक्री बढ़नी चाहिए, उस प्रकार से नहीं बढ़ पा रही है अथवा घर में जो सुख-शान्ति होनी चाहिए, वह भी नहीं हो पा रही है। इसके अतिरिक्त भी कई छोटी-छोटी समस्याएँ है, जिनसे मानव व्यथित रहता है और प्रयत्न करने पर भी उसे सफलता नहीं मिल पाती।

          यों तो ग्रह किसी को भी नहीं छोड़ते, चाहे वह गरीब हो या अमीर या फिर देवता ही क्यों न हो? ऐसे अनेकों उदाहरण हैं हमारे सामने, जिनसे यह ज्ञात होता है कि ग्रहों का व्यक्ति के जीवन पर कितना अधिक प्रभाव पड़ता है? — श्रीराम को भी शनि की दशा से ग्रस्त होकर महल को छोड़कर वन में चौदह साल तक दर-दर भटकना पड़ा। यह बात और है कि वाल्मीकि ने भक्ति भाव पूर्वक उस वनवास को कुछ और नाम दे दिया, किन्तु सत्य यही है कि राम को भी जीवन में ग्रहों के दूषित प्रभाव के कारण चौदह साल तक जंगलों में रहकर जीवनयापन करना पड़ा।

          महात्मा बुद्ध को भी मंगल एवं राहु के दूषित प्रभाव से ग्रसित होकर अपना राजपाट छोड़कर उन सबसे संन्यास लेना पड़ा और राजा हरिशचन्द्र को भी शनि की साढ़े साती के प्रभाव के कारण अपना राज्य त्याग कर श्मशान में रहना पड़ा। यही नहीं अपितु उसके जीवन में एक समय ऐसा भी आया, जब वह अपने पुत्र की लाश पर कफ़न भी न डाल सका। इस प्रकार की अनेकों घटनाएँ हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि इतने बड़े-बड़े महापुरुष भी ग्रहों के दूषित प्रभावों से बच नहीं पाए, भले ही इन घटनाओं को समाज में कोई और रूप दे दिया गया हो, किन्तु सत्य यही है कि ग्रहों के प्रभाव से ही उनकी यह गति हुई।

          ग्रहाधीनं जगत् सर्वम्” अर्थात् यह सारा संसार ग्रहों के अधीन है। क्योंकि वायुमण्डल में विचरण करने वाले ग्रह मात्र भ्रमणशील ग्रह नहीं है, अपितु उनका प्रभाव निश्चित रूप से मानव जीवन पर पड़ता ही है और जब इन ग्रहों का प्रभाव विपरीत होता है तो विभिन्न प्रकार की समस्याएँ खुद-ब-खुद मनुष्य के सामने आकर खड़ी हो जाती है।

          ग्रह नौ प्रकार के होते हैं --- सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु। यों तो आकाश में सैकड़ों ग्रह है, किन्तु मुख्य ग्रह नौ ही माने जाते हैं, जिनका प्रभाव जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे हमारे ऊपर पड़ता ही रहता है और इन्हीं ग्रहों के प्रभाव से हमें अपने जीवन में सफलता-असफलता मिलती रहती है। हर ग्रह का मानव जीवन पर अपना अलग-अलग प्रभाव पड़ता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य को कई समस्याओं का सामना करना पड़ जाता है। इन नौ ग्रहों में भी पाँच ग्रह ऐसे हैं, जिनका प्रभाव प्रायः व्यक्ति पर देखने को मिलता ही है।

१. सूर्य — यदि सूर्य की दशा व्यक्ति को विपरीत फल दे तो उसे समाज में बदनामी, विश्वासघात एवं कष्टदायक जीवन बिताते हुए असफलताओं का शिकार होना पड़ता है।

२. मंगल — यदि मंगल की दशा अच्छी न हो तो व्यक्ति का जीवन कई प्रकार की उलझनों से ग्रस्त रहता है, जिससे उसे जीवन भर तनाव बना रहता है। यह ग्रह व्यक्ति को चोर या हत्यारा आदि भी बना देता है और जेल यात्रा करवाता है।

३. शुक्र — स्वप्न दोष, विवाह बाधा आदि इस ग्रह बाधा के कारण ही होता है।

४. शनि — शनि की दशा व्यक्ति को एक-एक पैसे का मोहताज बना देती है, जिसके कारण व्यक्ति का जीवन दरिद्रता और गरीबी में बीतने लगता है तथा वह शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक तनावों से ग्रस्त होकर मृत्यु तक को प्राप्त हो जाता है। इसके लिए एक्सीडेण्ट, राज्य छीन जाना, कोर्ट-कचहरी, डॉक्टरों आदि के चक्कर लगना, यह सब परेशानियाँ इस ग्रह बाधा के कारण ही मानव को झेलनी पड़ती है।

५. राहु — इस ग्रह दोष के कारण गृह कलह, आपसी मनमुटाव आदि अनेक प्रकार की समस्याओं से मनुष्य हर पल घिरा रहता है।

          इस प्रकार अन्य ग्रह भी अपना दूषित प्रभाव मानव जीवन पर डालते रहते हैं, जिनके चंगुल से बच निकलना एक मानव के लिए दुष्कर कार्य प्रतीत होता है। कईं व्यक्ति ढोंगी पण्डित-पुरोहितों के चंगुल में  फँसकर उपरोक्त समस्याओं को निवारण हेतु उनके द्वारा बताए गए उपायों को आजमाते हैं, परन्तु उनसे उन्हें कोई लाभ नहीं मिल पाता। अपने कार्यों की सिद्धि एवं सफलता के लिए वे उनसे कई प्रकार के छोटे-मोटे अनुष्ठान-प्रयोग भी  करवाते हैं, किन्तु फिर भी उसका अनुकूल फल उन्हें प्राप्त नहीं होता, तब उनका देवताओं आदि पर से विश्वास उठने लगता है। क्योंकि वे उन समस्याओं एवं परेशानियों का कारण नहीं जान पाते, जबकि इन आपदाओं-विपदाओं का मूल कारण “ग्रह बाधा” ही है।

          कुछ व्यक्ति ग्रह बाधा निवारण के लिए छोटे-मोटे टोने-टोटके, मन्त्र, अनुष्ठान भी करते रहते हैं, किन्तु उनसे समस्त ग्रह दोषों के मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती, वह तो भगवान चन्द्रमौलिश्वर की साधना-उपासना करने पर ही सम्भव है। यदि व्यक्ति अपने जीवन की समस्त बाधाओं, उलझनों एवं परेशानियों से छुटकारा पाना चाहता है, यदि वह जीवन में पूर्णतः सुखी एवं समृद्ध होना चाहता है, यदि वह समस्त ग्रह बाधा से मुक्ति पाना चाहता है तो उसे यह साधना अवश्य ही सम्पन्न करना चाहिए, वरन् आज जो आपके पास है वह भी बचा रहे, यह कोई ज़रूरी नहीं।

          वेदों, शास्त्रों, पुराणों आदि में भगवान शिव को ही चन्द्रमौलिश्वर कहा गया है -----

चन्द्रोद्भासितशेखरे स्मरहरे गंगाधरे शंकरे,

सर्पैर्भूषित कण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थ वैश्वानरे।

दन्तित्यक् कृत सुन्दराम्बर धरे त्रैलोक्य सारे हरे,

मोक्षार्थ कुरुचित्तवृत्तिमचलाम् अन्यैस्तु किं कर्मभिः॥

          अर्थात सिर पर अर्द्धचन्द्र को धारण किए हुए भगवान चन्द्रमौलिश्वर, जो कामदेव को भस्म करने वाले है, जिनके मस्तक से गंगा प्रवाहित हो रही है, कण्ठहार के रूप में सर्प को धारण किए हुए हैं, जिनके तृतीय नेत्र से वैश्वानर अग्नि निकल रही है। हस्ति चर्म को सुन्दर वस्त्र को रूप में धारण किए हुए तीनों लोकों में अद्वितीय भगवान शंकर, जो अपने इस रूप-गुण के कारण चन्द्रमौलिश्वर कहे जाते हैं, वे मेरे मन और बुद्धि को मोक्ष मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए मेरे समस्त ग्रहजन्य दोषों को दूर करें।

          भगवान शिव अपने “चन्द्रमौलिश्वर” स्वरूप द्वारा ग्रहों के दूषित प्रभावों से व्यक्ति को या साधक को छुटकारा दिलाते हैं, क्योंकि भगवान चन्द्रमौलिश्वर देवाधिपति हैं, तन्त्रेश्वर हैं। अतः समस्त मन्त्र-तन्त्र भी उनके अधीन हैं। ऐसे भगवान चन्द्रमौलिश्वर की साधना तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में एक बार अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिए। इस साधना के बल पर वह व्यक्ति अपने जीवन में समस्त नीच ग्रहों के दूषित प्रभावों से मुक्ति प्राप्त कर उन ग्रहों को अपने अनुकूल बनाने में सफल हो जाता है और तब उसे जीवन में कभी भी किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं भोगना पड़ता।

          ग्रहों की दशा यदि सही रहे तो व्यक्ति के जीवन में उन्नति के स्रोत हमेशा के लिए खुले रहते हैं और वह कामयाबी की मंज़िल की ओर बढ़ते हुए अपने जीवन में पूर्ण सुखी एवं सम्पन्न हो जाता है। क्योंकि इस साधना-शक्ति के द्वारा वह एकबारगी ही अपनी समस्त परेशानियों एवं बाधाओं से मुक्ति पा लेता है।

साधना विधान :-----------

          रात्रिकालीन इस साधना में बैठने से पहले साधक स्नानादि करके पूर्णतया शुद्ध होकर पीली धोती धारण कर लें, ऊपर गुरु चादर ओढ़ लें तथा अपने सामने किसी लकड़ी की चौकी पर लाल वस्त्र बिछा दें। फिर आसन पर शान्तचित्त और दत्तचित्त होकर बैठ जाएं।

          इसके पश्चात तीन बार “ॐ” की ध्वनि का उच्चारण करें। फिर पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का ध्यान करें और गुरुमन्त्र का कम से कम चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से चन्द्रमौलिश्वर साधना सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से आज्ञा लें और प्रार्थना करें कि मुझे समस्त परेशानियों से मुक्ति प्राप्त हो, ऐसा कहकर उनसे आशीर्वाद ग्रहण करें।

          इसके बाद भगवान गणपतिजी का स्मरण कर एक माला ॐ वक्रतुण्डाय हुं मन्त्र की जाप करें और गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना करें।

          तत्पश्चात किसी ताम्रपात्र में कुमकुम से  लिखकर उसके ऊपर शुद्ध पारद शिवलिंग स्थापित कर दें और शिवलिंग के समक्ष एक पञ्चमुखी रुद्राक्ष भी स्थापित कर दें। फिर शिवलिंग का सामान्य पूजन करें और  ॐ नमः शिवाय मन्त्र की एक माला जाप  करें। 

          फिर पञ्चमुखी रुद्राक्ष पर कुंकुंम का तिलक लगाकर “ॐ चन्द्रमौलिश्वराय नमः” मन्त्र बोलते हुए उस पर ११ बार थोड़े-थोड़े चावल चढ़ाएं तथा ११-११ बार इसी मन्त्र का उच्चारण करते हुए क्रमशः काले तिल, काली सरसों, काली मिर्च अलग-अलग चढ़ाएं।

          साधना में धूप या अगरबत्ती जलाकर सरसों या तिल के तेल का दीपक अवश्य जलाएं। ध्यान रहे कि पूरे साधना काल में दीपक प्रज्ज्वलित रहे।

          फिर साधक मन ही मन भगवान शिव के चन्द्रमौलिश्वर स्वरूप को प्रणाम (नमस्कार) कर रुद्राक्ष माला से निम्न मन्त्र का ९ माला जाप करें -----

मन्त्र :-----------

ॐ शं चं चन्द्रमौलिश्वराय नमः

OM SHAM CHAM CHANDRAMOULISHWARAAAY NAMAH.

          जाप समाप्ति के बाद समस्त जाप एक आचमनी जल छोड़कर भगवान चन्द्रमौलिश्वर की ही समर्पित कर दें और गुरु आरती करें।

          फिर चैतन्य रुद्राक्ष पर चढ़ाई गई सामग्री को रात्रि के समय ही पूरे घर व दुकान तथा जो भी आपके आवासीय या व्यापारिक संस्थान हैं, सब जगह छिड़क दें, जिससे दुष्ट ग्रहों का प्रभाव दूर हो सके तथा भविष्य में भी उन ग्रह दोषों का प्रभाव न हो।

          इसके पश्चात रुद्राक्ष तथा माला को किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें।

          यह साधना पूर्ण सफलतादायक है, जिसे पूर्ण श्रद्धा और लगन से करने की आवश्यकता है, तभी साधक को इससे निश्चित लाभ की प्राप्ति सम्भव है।

          आपकी साधना सफल हो और यह महाशिवरात्रि आपके लिए मंगलमय हो। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।


          इसी कामना के साथ 
ॐ नमो आदेश निखिलजी को आदेश आदेश आदेश।।।


रविवार, 21 जनवरी 2018

दरिद्रता नाशक भुवनेश्वरी साधना

दरिद्रता नाशक भुवनेश्वरी साधना
(ग्रहण काल का अचूक प्रयोग)


          अगर मन्त्र साधना उपयुक्त समय अथवा दिवस पर की जाए तो उसका प्रभाव स्वतः ही कई गुना बढ़ जाता है। अतः साधना क्षेत्र में विभिन्न दिवसों का महत्व विस्तार पूर्वक समझाया गया है और इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि महोरात्रि (शिवरात्रि), क्रूर रात्रि (होली), मोह रात्रि (जन्माष्टमी) एवं काल रात्रि (दीपावली), कुछ ऐसे विशेष पर्व हैं, जो कि साधना के क्षेत्र में अद्वितीय है, जिनका महत्व हर योगी, यति, साधक भली प्रकार से जानता एवं समझता है।

          परन्तु जहाँ हमारे शास्त्रों ने इन जैसे अनेक पर्वों को सराहा है, प्राथमिकता दी है, वहीं उन्होंने कुछ विशेष पर्वों को अति शुभ एवं साधना और तन्त्र क्षेत्र में सर्वोपरि माना है। ये पर्व हैं सूर्य ग्रहण तथा चन्द्र ग्रहण।

          ग्रहण की महत्ता इसलिए सर्वाधिक है, क्योंकि उस समय कुछ इस प्रकार का गुरुत्वाकर्षण प्रभाव पैदा होता है, जो साधना से प्राप्त होने वाले फल को कईं गुना बढ़ा देता है।

          ग्रहण काल के दौरान किए गए मन्त्र जाप सामान्य रूप से किए गए लाख जपों के बराबर होते हैं। उस दिन दी गई एक आहुति भी हज़ार आहुतियों के समान फल देती है।

          इस बार चन्द्र ग्रहण ३१ जनवरी २०१८ को है और चूँकि ज्योतिष के अनुसार चन्द्र एवं सूर्य मुख्य ग्रह है। अतः इस काल का मानव जीवन के साथ-साथ समस्त संसार पर भी निश्चित प्रभाव पड़ता है।

          चन्द्रमा मन, भावना, कल्पना शक्ति, ऐश्वर्य, संगीत, कला, धन, वैभव, सौन्दर्य, माधुर्य, तीव्र बुद्धि, चरित्र, यश, कीर्ति आदि का ग्रह है। अतः इसके द्वारा जब ग्रहण निर्मित होता है तो उपरोक्त बातों का प्राप्ति के लिए व्यक्ति चाहे तो इस दिवस का लाभ उठाकर उचित साधना सम्पन्न कर सकता है और इच्छित सफलता प्राप्त कर सकता है।

         वैसे तो ग्रहण के अवसर पर सम्पन्न करने के लिए शास्त्रों में अनेक विधान प्राप्त होते हैं, लेकिन जब बात आती है दरिद्रता नाश एवं धन-वैभव प्राप्ति की, तो माँ भगवती भुवनेश्वरी का नाम सबसे पहले आता है। यहाँ दरिद्रता नाशक भुवनेश्वरी साधना विधि प्रस्तुत की जा रही है।

          यह तो नाम से ही स्पष्ट है कि यह साधना कितनी महत्वपूर्ण है? जिस पर माँ भुवनेश्वरी की कृपा हो जाए, वह कभी दरिद्र नहीं रह सकता। क्यूँकि माँ कभी अपनी सन्तान को दुःखी नहीं देख सकती है। अतः ज्यादा न लिखते हुए विधान दे रहा हूँ।

साधना विधान :-----------

          यह साधना किसी भी ग्रहण काल (चन्द्र ग्रहण अथवा सूर्य ग्रहण) में की जा सकती है। साधक को चाहिए कि वह ग्रहण काल में स्नान कर सफ़ेद वस्त्र धारण करे और उत्तर दिशा की ओर मुख करके सफ़ेद आसन पर बैठ जाए।

          अब अपने सामने किसी बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाए और उस पर पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का चित्र स्थापित करे। चित्र के समक्ष अक्षत से बीज मन्त्र "ह्रीं" लिखे और उस पर एक कोई भी रुद्राक्ष स्थापित करे।

          फिर सर्वप्रथम संक्षिप्त गुरुपूजन सम्पन्न करें और गुरुमन्त्र का एक माला जाप करके पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी से दरिद्रता नाशक भुवनेश्वरी साधना सम्पन्न करने की आज्ञा लें। फिर उनसे साधना की निर्बाध पूर्णता और सफलता के लिए निवेदन करें।

           इसके बाद भगवान गणपतिजी का स्मरण करके एक माला किसी गणपति मन्त्र का जाप करें। फिर गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

          इसके बाद भगवान भैरवनाथजी का स्मरण करके एक माला किसी भी भैरव मन्त्र का एक माला जाप करें। फिर भैरवनाथजी से साधना की निर्बाध पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

          अब जो रुद्राक्ष आपने स्थापित किया है, उसका सामान्य पूजन करें। फिर निम्न मन्त्र को पढ़ते जाएं और थोड़े-से अक्षत रुद्राक्ष पर अर्पण करते जाएं। यह क्रिया आपको २१ बार करनी है। अर्थात २१ बार मन्त्र पढ़ना होंगे और २१ बार अक्षत भी अर्पण करने होंगे।

।। ॐ ह्रीं भुवनेश्वरी इहागच्छ इहतिष्ठ इहस्थापय मम सकल दरिद्रय नाशय नाशय ह्रीं ॐ ।।

          अब पुनः रुद्राक्ष का सामान्य पूजन करके कोई भी मिठाई का भोग लगाएं, तिल के तेल का दीपक लगाएं। फिर बिना किसी माला के निम्न मन्त्र का लगातार २ घण्टे तक जाप करें और जाप करते वक़्त लगातार थोड़े अक्षत रुद्राक्ष पर अर्पण करते रहें -----

मूल मन्त्र :-----------

।। हूं हूं ह्रीं ह्रीं दारिद्रय नाशिनी भुवनेश्वरी ह्रीं ह्रीं हूं हूं फट् ।।

HOOM HOOM HREEM HREEM DAARIDRAY NAASHINI BHUVANESHWARI HREEM HREEM HOOM HOOM PHAT.

          साधना समाप्ति के बाद एक आचमनी जल छोड़कर समस्त जाप माँ भगवती भुवनेश्वरी को ही समर्पित कर दें।

          साधना के बाद भोग स्वयं खा लें और रुद्राक्ष को जल से स्नान कराकर लाल धागे में पिरो लें। फिर इस रुद्राक्ष को गले में धारण कर लें। साधना में प्रयुक्त हुए सारे अक्षत उसी वस्त्र में बाँध कर कुछ दक्षिणा के साथ देवी मन्दिर में रख आएं और दरिद्रता नाश के लिए माँ भगवती से प्रार्थना कर लें।

          यह साधना अद्भूत है। अतः स्वयं साधना सम्पन्न कर अनुभव प्राप्त करें। मन्त्र में जो बीजाक्षर प्रयुक्त हुए हैं, उन सभी बीजाक्षरों में मकार का उच्चारण होगा।

          आपकी साधना सफल हो और माँ भगवती भुवनेश्वरी आप सबका कल्याण कल्याण करे। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

            इसी कामना के साथ


ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश ।।।

बुधवार, 10 जनवरी 2018

बन्धन-मुक्ति साबर मातंगी साधना

बन्धन-मुक्ति साबर मातंगी साधना

          माघ मासान्तर्गत आनेवाली गुप्त नवरात्रि निकट ही है। यह नवरात्रि १७ जनवरी २०१८ से शुरू हो रही है। आप सभी को गुप्त नवरात्रि की अग्रिम रूप से बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ!

          सामान्यत: लोग वर्ष में पड़ने वाले केवल दो नवरात्रियों के बारे में ही जानते हैं  “चैत्र” या “वासन्तिक नवरात्रि” एवं “आश्विन” या “शारदीय नवरात्रि” जबकि इसके अतिरिक्त दो और नवरात्रि भी होती हैंजिनमें विशेष कामनाओं की सिद्धि की जाती है। कम लोगों को इसका ज्ञान होने के कारण या इसके छिपे हुए होने के कारण ही इसको “गुप्त नवरात्रि” कहते हैं। वर्ष में दो बार गुप्त नवरात्रि आती हैं — माघ मास के शुक्ल पक्ष व आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में। इस प्रकार कुल मिला कर वर्ष में चार नवरात्रि होती हैं। यह चारों ही नवरात्रियाँ ऋतु परिवर्तन के समय मनाये जाती हैं। इस विशेष अवसर पर अपनी विभिन्न मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए पूजा-पाठ आदि किये जाते हैं।

          गुप्त नवरात्रियों का बड़ा ही महत्त्व बताया गया है। गुप्त नवरात्रि मनाने और इनकी साधना का विधान “देवी भागवत” एवं अन्य धार्मिक ग्रन्थों में मिलता है। श्रृंगी ऋषि ने गुप्त नवरात्रियों के महत्त्व को बतलाते हुए कहा है कि “जिस प्रकार वासन्तिक नवरात्रि में भगवान विष्णु की पूजा और शारदीय नवरात्रि में देवी शक्ति की नौ देवियों की पूजा की प्रधानता रहती हैउसी प्रकार गुप्त नवरात्रियाँ दस महाविद्याओं की होती हैं। यदि कोई इन महाविद्याओं के रूप में शक्ति की उपासना करें तो जीवन धन-धान्यराज्य सत्ता और ऐश्वर्य से भर जाता है।”

          मानव के समस्त रोगदोष एवं कष्टों के निवारण के लिए गुप्त नवरात्रि से बढ़कर कोई साधना काल नहीं हैं। श्रीवर्चस्वआयुआरोग्य और धन प्राप्ति के साथ ही शत्रु संहार के लिए गुप्त नवरात्रि में अनेक प्रकार के अनुष्ठान व व्रत-उपवास के विधान शास्त्रों में मिलते हैं। इन अनुष्ठानों के प्रभाव से मानव को सहज ही सुख व अक्षय ऎश्वर्य की प्राप्ति होती है।

          दुर्गावरिवस्या” नामक ग्रन्थ में तो स्पष्ट लिखा है कि साल में दो बार आने वाली गुप्त नवरात्रियों में भी माघ में पड़ने वाली गुप्त नवरात्रि मानव को न केवल आध्यात्मिक बल ही प्रदान करती हैंबल्कि इन दिनों में संयम-नियम व श्रद्धा के साथ माता दुर्गा की उपासना करने वाले व्यक्ति को अनेक सुख व साम्राज्य भी प्राप्त होते हैं। “शिवसंहिता” के अनुसार ये नवरात्रियाँ भगवान शंकर और आदिशक्ति माँ पार्वती की उपासना के लिए भी श्रेष्ठ हैं। गुप्त नवरात्रियों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने से कई बाधाएँ समाप्त हो जाती हैंजैसे - विवाह बाधातन्त्र बाधाग्रह दोष आदि।

          सतयुग में चैत्र नवरात्रित्रेता में आषाढ़ नवरात्रिद्वापर में माघ नवरात्रि और कलयुग में आश्विन नवरात्रि की साधना-उपासना का विशेष महत्व रहता है। ऐसी मान्यता है कि यदि कोई नास्तिक भी परिहासवश इस समय मन्त्र साधना कर ले तो उसे भी फल सफलता के रूप में अवश्य ही मिलता है। यही इस गुप्त नवरात्रि की महिमा है। “मार्कण्डेय पुराण” में इन चारों नवरात्रियों में शक्ति के साथ-साथ इष्ट की आराधना का भी विशेष महत्व बतलाया गया है।

          गुप्त नवरात्रि के पावन अवसर पर साधक भाई-बहिनों के लिए साबर बन्धन-मुक्ति मातंगी साधना प्रस्तुत की जा रही है। वास्तव में यह साधना साधक को सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त करती है। चाहे वह गृह बन्धन हो या तन्त्र बन्धन हो या ग्रह दोष हो या पितृदोष हो या किसी भी प्रकार का कार्य बन्धन आदि हो तो इस साधना को करने से वह बन्धन तो दूर होता ही है, साथ ही किसी तान्त्रिक द्वारा किया गया बन्धन भी हट जाता है और साधक सुख-शान्ति की अनुभूति करता है।

           यह साधना बहुत ही तीक्ष्ण है। इसे बहुत सारे साधकों ने परखा है। यह मेरी स्वयं की अनुभूत की हुई साधना है। इस साधना के बहुत सारे लाभ हैं। यह आपके जीवन में आने वाली विकट परिस्थितियों को भी आपके अनुकूल कर देती है। पितृ-बाधा से मुक्ति दिलाती हैग्रह-बाधा को शान्त करती हैकई बार तो साधना करते-करते पितृ-आत्माओं से साक्षात्कार भी हो जाता है और कई बार उनकी अगर कोई इच्छा अधूरी रह गई हो तो वे स्वप्न या किसी भी माध्यम से बता देते हैं। कई साधकों को तो इससे मातंगी का प्रत्यक्ष दर्शन भी हुआ है। यह आपकी निष्ठा पर निर्भर करता है। इससे रुके हुए काम स्वयं चलने लग जाते हैं। आमदनी के नए आयाम शुरू हो जाते हैं।

साधना विधि :----------

          इसे नवरात्रि में किया जाए तो ज्यादा उचित है। फिर भी आप किसी भी शुक्लपक्ष की प्रथम तिथि से शुरू करके पूर्णिमा तक कर सकते हैं। आप सर्वप्रथम स्नान आदि से निवृत्त होकर शुद्ध  लाल वस्त्र पहनकर लाल आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने बाजोट पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर अक्षत की एक ढेरी बनाएं। अब शुद्ध घी की ज्योत (दीपक) जलाकर अक्षत की ढेरी पर स्थापित कर दें। इस ज्योत को ही माँ मातंगी मानकर पूजन करना है। इसके साथ ही पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का चित्र भी स्थापित करे। अब आप शुद्ध घी का दीपक जला लें और साथ ही धूप-अगरबत्ती लगा दें।

          इसके बाद आप गुरु पूजन करें। मातंगी साबर मन्त्र को किसी कागज़ पर लिख कर गुरु चरणों में अर्पित करें और सामान्य गुरुपूजन सम्पन्न कर गुरुमन्त्र का चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से मन्त्र प्रदान करने की प्रार्थना कर मातंगी साबर मन्त्र ग्रहण करें और तीन बार मन्त्र का उच्चारण करें। इस प्रकार मन्त्र दीक्षा हो जाती है।

          फिर आप भगवान श्री गणेशजी का स्मरण कर भोग के लिए दो लड्डू ज्योत के पास रखें और एक पात्र में जल भी रख दें। अब किसी भी गणेश मन्त्र का एक माला जाप कर गणेशजी से साधना की सफलता के लिए प्रार्थना करें।

          इसके बाद आपने जो ज्योत (घी का दीपक) स्थापित की हैउसको माँ मातंगी मानकर सामान्य पूजा करें। भोग में आप शुद्ध मिठाई भी अर्पित कर सकते हैं। यदि ऐसा सम्भव ना हो तो किसी भी माता के मन्दिर में जाकर जाप कर सकते हैं। वहाँ ज्योत में घी डाल सकते हैं।

          आप चाहे तो “मातंगी यन्त्र” को भी अपने सामने स्थापित कर सकते हैं। यन्त्र का पूजन पञ्चोपचार से कर लें। सर्वप्रथम यन्त्र को दूध से स्नान करा लें। फिर शुद्ध जल से स्नान कराएं और कपड़े से साफ कर बाजोट पर लाल रंग का वस्त्र बिछा कर उस पर यन्त्र की स्थापना करें। यन्त्र का पूजन कुंकुंमफूलधूपदीपनैवेद्य के लिए मिठाई और फल से करें।

          फिर निम्न मन्त्र का ज्योत के सामने मात्र १०८ बार मन्त्र जाप कर लें। आप चाहें तो ३२४ बार (तीन माला) भी जाप कर सकते हैंवह आपकी इच्छा पर निर्भर है।

साबर मन्त्र :----------

॥ ॐ नमोस्तुते भगवते पार्श्व चन्द्राधरेन्द्र पद्मावती सहिताये मे अभीष्ट सिद्धिदुष्ट ग्रह भस्म भक्ष्यम् स्वाहास्वामी प्रसादे कुरू कुरू स्वाहाहिल हिली मातंगनी स्वाहास्वामी प्रसादे कुरू कुरू स्वाहा ॥

OM NAMOSTUTE BHAGWATE PAARSHWA CHANDRADHARENDRA PADMAVATI SAHITAAYE ME ABHISHTA SIDDHI, DUSHTA GRAH BHASMA BHAKSHYAM SWAAHA, SWAMI PRASAADE KURU KURU SWAAHA, HIL HILI MATANGANI SWAAHA, SWAMI PRASAADE KURU KURU SWAAHA.

          नवरात्रि में नौ दिन जाप करना है और अन्य दिनों में पन्द्रह दिनों तक जाप करना है।

          साधना समाप्ति पर हवन सामग्री में घी और शक्कर मिला कर हवन करना है। पूर्णिमा को हवन के लिए आम की लकड़ी जलाकर १०८ आहुति डालें और नवरात्रि में सम्पन्न करने वाले साधक नवमी तिथि को हवन कर सकते हैं।

          हवन के लिए किसी पात्र में अग्नि जलाकर घी से प्रथम पाँच आहुति प्रजापति के नाम से डालें और फिर गुरु मन्त्र की आहुति डालें। उसके बाद नवग्रहों के नाम की और अन्त में मातंगी साबर मन्त्र की १०८ आहुति डालें। हवन के बाद एक सूखे नारियल में छेद करके उस में घी डालें और उसे मौली बाँध कर उसका पूर्ण आहुति के रूप में पूजन करें। तिलक आदि लगाएं और खड़े हो कर अपने परिवार के सभी सदस्यों का हाथ लगाकर अग्नि में प्रार्थना करते हुए अर्पित कर दें। फिर जो भी आपने भोग बनाया हैउसे अर्पित करें और गुरु आरती सम्पन्न कर सभी सदस्यों को प्रसाद वितरित करें।

           साधना पूरी होने पर समस्त पूजन सामग्री जलप्रवाह कर दें। माला गले में पहन लें और यन्त्र पूजन-स्थान में स्थापित कर लें।

          आपकी यह साधना सफल हो और माँ भगवती मातंगी आप सबका कल्याण करे। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

              इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।

 

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

मकर संक्रान्ति और दरिद्रता नाशक सूर्य प्रयोग

मकर संक्रान्ति और दरिद्रता नाशक सूर्य प्रयोग



               मकर संक्रान्ति पर्व समीप ही है। यह १४ जनवरी २०१८ को आ रहा है। आप सभी को मकर संक्रान्ति पर्व की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

               हमारे पवित्र पुराणों के अनुसार मकर संक्रान्ति का पर्व ब्रह्माविष्णुमहेशगणेशआद्यशक्ति और सूर्य की आराधना एवं उपासना का पावन व्रत हैजो तन-मन-आत्मा को शक्ति प्रदान करता है। सन्त-महर्षियों के अनुसार इसके प्रभाव से प्राणी की आत्मा शुद्ध होती हैसंकल्प शक्ति बढ़ती हैज्ञान तन्तु विकसित होते हैंमकर संक्रान्ति इसी चेतना को विकसित करने वाला पर्व है। यह सम्पूर्ण भारत वर्ष में किसी न किसी रूप में आयोजित ही होता है।

              पुराणों के अनुसार मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि के घर एक महीने के लिए जाते हैंक्योंकि मकर राशि का स्वामी शनि है। हालाँकि ज्योतिषीय दृष्टि से सूर्य और शनि का तालमेल सम्भव नहींलेकिन इस दिन सूर्य खुद अपने पुत्र के घर जाते हैं। इसलिए पुराणों में यह दिन पिता-पुत्र के सम्बन्धों में निकटता की शुरुआत के रूप में देखा जाता है।

               इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अन्त करके युद्ध समाप्ति की घोषणा की थीउन्होंने सभी असुरों के सिरों को मन्दार पर्वत में दबा दिया था। इसलिए यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को खत्म करने का दिन भी माना जाता है।

              एक अन्य पुराण के अनुसार गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थीइसलिए मकर संक्रान्ति पर गंगा सागर में मेला लगता है।

              विष्णु धर्मसूत्र में कहा गया है कि पितरों की आत्मा की शान्ति के लिए एवं स्व स्वास्थ्यवर्द्धन तथा सर्वकल्याण के लिए तिल के छः प्रयोग पुण्यदायक एवं फलदायक होते हैं। (१) तिल जल से स्नान करना, (२) तिल दान करना, (३) तिल से बना भोजन करना, (४) जल में तिल अर्पण करना, (५) तिल से आहुति देना, (६) तिल का उबटन लगाना।

               सूर्य के उत्तरायण होने के बाद से देवों की ब्रह्म मुहूर्त उपासना का पुण्यकाल प्रारम्भ हो जाता हैइस काल को ही परा-अपरा विद्या की प्राप्ति का काल कहा जाता हैइसे साधना का सिद्धिकाल भी कहा गया है। इस काल में देव प्रतिष्ठागृह निर्माणयज्ञ कर्म आदि पुनीत कर्म किए जाते हैंमकर संक्रान्ति के एक दिन पूर्व से ही व्रत उपवास में रहकर योग्य को दान देना चाहिए।

               रामायण काल से भारतीय संस्कृति में दैनिक सूर्य पूजा का प्रचलन चला आ रहा है। राम कथा में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा नित्य सूर्य पूजा का उल्लेख मिलता है। रामचरित मानस में ही भगवान श्री राम द्वारा पतंग उड़ाए जाने का भी उल्लेख मिलता है। मकर संक्रान्ति का जिक्र वाल्मिकी रचित रामायण में भी मिलता है।

                राजा भगीरथ सूर्यवंशी थेजिन्होंने भगीरथ तप साधना के परिणाम स्वरूप पापनाशिनी गंगा को पृथ्वी पर लाकर अपने पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करवाया था। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजलअक्षततिल से श्राद्ध तर्पण किया थातब से माघ मकर संक्रान्ति स्नान और मकर संक्रान्ति श्राद्ध तर्पण की प्रथा आज तक प्रचलित है।

                कपिल मुनि के आश्रम पर जिस दिन माँ गंगे का पदार्पण हुआ थावह मकर संक्रान्ति का दिन थापावन गंगा जल के स्पर्श मात्र से राजा भगीरथ के पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। कपिल मुनि ने वरदान देते हुए कहा था --- "मातु गंगे त्रिकाल तक जन-जन का पापहरण करेंगी और भक्तजनों की सात पीढ़ियों को मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करेंगीगंगा जल का स्पर्शपानस्नान और दर्शन सभी पुण्यदायक फल प्रदान करेगा।"

                महाभारत में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया थाउनका श्राद्ध संस्कार भी सूर्य की उत्तरायण गति में हुआ था। फलतः आज तक पितरों की प्रसन्नता के लिए तिल अर्घ्य एवं जल तर्पण की प्रथा मकर संक्रान्ति के अवसर पर प्रचलित है।

                 सूर्य की सातवीं किरण भारत वर्ष में आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरणा देने वाली हैसातवीं किरण का प्रभाव भारत वर्ष में गंगा-जमुना के मध्य अधिक समय तक रहता है। इस भौगोलिक स्थिति के कारण ही हरिद्वार और प्रयाग में माघ मेला अर्थात मकर संक्रान्ति या पूर्ण कुम्भ तथा अर्द्धकुम्भ के विशेष उत्सव का आयोजन होता है।

दरिद्रता नाशक सूर्य प्रयोग

                 मकर संक्रान्ति  पर्व के शुभ एवं पावन अवसर पर आप सभी साधक भाइयों और बहिनों के लिए एक आसान साधना प्रयोग दिया जा रहा है। यह प्रयोग भगवान सूर्यदेव से सम्बन्धित है और अपने आप में यह पूरी तरह दरिद्रता नाशक प्रयोग है। इसे सम्पन्न करने से धनागम के नये स्रोत खुल जाते हैंआर्थिक परेशानियाँ खत्म हो जाती है।  आप भी इस अत्यन्त सरल साधना को सम्पन्न करके अपने जीवन से दरिद्रता नाम के अभिशाप को जड़-मूल मिटा सकते हैं।

               हर साधना धैर्य और विश्वास से किए जाने  पर ही परिणाम देती है। अतः साधना में अति शीघ्रता अच्छी बात नहीं है। ऐसा करके केवल हम अपना समय व्यर्थ ही बर्बाद करते हैंकोई लाभ नहीं उठा पाते हैं। अतः इस उच्चकोटि के प्रयोग को आप पूर्ण धैर्य और विश्वास के साथ करेआपको अवश्य ही लाभ होगा।

साधना विधान :----------

              यह साधना आप मकर सक्रान्ति के दिन से शुरू करें। यदि आप इस दिन शुरु न  कर पाए तो आप किसी भी रविवार को आरम्भ कर सकते हैं।

              प्रतिदिन एक ताम्रपात्र में पुष्पअक्षतचन्दन मिलाकर नीमवृक्ष की जड़ में चढ़ाएं और वहीं खड़े होकर सर्वप्रथम सूर्य गायत्री मन्त्र का १०८ बार पाठ करें।

सूर्य गायत्री :----------

।।ॐ आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुहु प्रचोदयात् ।।

OM  AADITYAAY  VIDMAHE  BHAASKSRAAY  DHEEMAHI  TANNO  BHAANUHU  PRACHODAYAAT.

             इसके बाद निम्न सूर्य स्तवन का ११ बार पाठ करें-----

ॐ नमः सहस्त्र बाहवे आदित्याय नमो नमः।
नमस्ते पद्महस्ताय वरुणाय नमो नमः।।१।।
नमस्तिमिरनाशाय श्री सूर्याय नमो नमः।
नमः सहस्त्रजिह्वाय भानवे च नमो नमः।।२।।
त्वं च ब्रह्मा त्वं च विष्णु रुद्रस्त्वं च नमो नमः।
त्वमग्निसर्वभूतेषु वायुस्त्वं च नमो नमः।।३।।।
सर्वगः सर्वभूतेषु न हि किंचित् त्वयं विना।
चराचरे जगतस्मिन सर्वदेहे व्यवस्थितः।।४।।

            इसके पश्चात पुनः सूर्य गायत्री मन्त्र का १०८ बार पाठ करें ------

।।ॐ आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुहु प्रचोदयात् ।।

          यह साधना ४५ दिनों तक निरन्तर करते रहें।

          इस साधना से जन्म जन्मान्तर की दरिद्रता का नाश हो जाता है।

          इस साधना में कोई नियम या वस्त्रमालाआसन का बन्धन नहीं है।

         आपकी साधना सफल हों और मनोकामना पूर्ण हो। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

        आज के लिए बस इतना ही।


ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश।।