मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

नृसिंह बीजमन्त्र साधना

नृसिंह बीजमन्त्र साधना


            नृसिंह जयन्ती समीप ही है। यह २८ अप्रैल २०१८ को आ रही है। आप सभी को नृसिंह जयन्ती की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

          जिस प्रकार से पुनर्जन्म का विश्वास हिन्दू धर्म का एक मूलभूत विश्वास है, उसी प्रकार से इस बात में भी दृढ़ आस्था है कि ईश्वर अपने भक्तों के कष्ट निवारणार्थ समय-समय पर अवतार धारण कर उन्हें पाप-ताप-सन्ताप से मुक्त करने की क्रिया करते हैं। यह भी हिन्दू धर्म का एक आधारभूत विश्वास है। दोनों ही विश्वासों के पीछे जो मुख्य तथ्य है, वह यही है कि भारतीय चिन्तन में कभी भी ईश्वर से अलगाव की कल्पना तक नहीं की गई है।

          जिस प्रकार जीवन एक सहज घटना है, उसी प्रकार ईश्वर का निश्चित कालावधि में अवतरण भी एक सतत घटना है, जो मत्स्यावतार से लेकर इस कलियुग में होने वाले कल्कि अवतार तक पुराणादि शास्त्रों में विस्तार से वर्णित है। जैसा कि लोक श्रुतियों में मान्य है कि जब यह धरा ढाई हज़ार वर्ष तक तपस्या करती है, तब ईश्वर युग के अनुरूप स्वरूप ग्रहण कर इस धरा पर अवतरण के माध्यम से अपने भक्तों का कल्याण करते हैं तथा उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिलाने के उपाय सृजित करते हैं।

          वस्तुतः प्रत्येक अवतरण का एक निश्चित अर्थ रहा है और सामान्य लोक-विश्वास से पृथक (कि ईश्वर ऐसा प्राणी मात्र के उद्धार के लिए करते हैं) अवतरण की घटना के विशिष्ट अर्थ भी होते हैं। प्रत्येक अवतरण किसी एक या दो भक्त की विपत्ति में रक्षा करने अथवा उसके उद्धार तक सीमित न रहकर अनेक गूढ़ सन्देश भी छिपाए हुए होता है। यद्यपि पौराणिक कथाओं से अभिव्यक्त ऐसा ही होता है, मानो ईश्वर ने किसी भक्त विशेष की पुकार पर इस धरा पर आना स्वीकार किया और यही बात भगवान श्रीविष्णु के नृसिंहावतार के सन्दर्भ में भी पूर्ण प्रासंगिक है।

          पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगवान ब्रह्मा के दो द्वारपालों ने एक बार ब्रह्माजी की आज्ञा से परिपालन के क्रम में भगवान ब्रह्मा के चार प्रथम मानस पुत्रों में से एक को भीतर प्रवेश करने से वर्जित कर दिया, जिससे उन्होंने क्रोधित होकर दोनों को राक्षस योनि में चले जाने का श्राप दे दिया। बाद में क्रोध शान्त होने व वास्तविकता का ज्ञान होने पर उन्होंने द्वारपालों की प्रार्थना पर उन्हें वरदान दिया कि यद्यपि उनका वचन मिथ्या नहीं हो सकता, अतः वे राक्षस योनि में तो जाएंगे ही, किन्तु उनका वध स्वयं भगवान विष्णु के हाथों से होने के कारण वे मुक्त होकर परमपद की प्राप्ति कर सकेंगे।

          कालान्तर में ये दोनों द्वारपालों ने ही क्रमशः हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकश्यप के रूप जन्म लिया, जिनके अत्याचारों से सारी पृथ्वी ही नहीं, देवलोक आदि तक त्राहि-त्राहि करने लगे, जिन्हें समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने दो बार अवतार लिए। हिरण्याक्ष को समाप्त करने के लिए वाराह अवतार तथा हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिए नृसिंह अवतार इसी कारणवश सम्भव हुए।

          पौराणिक गाथाओं की कथात्मक शैली में क्या तथ्य छुपे होते हैं अथवा क्या वे केवल विशिष्ट घटनाओं का कथात्मक विस्तार भर होती है, यह तो पृथक विवेचना और चिन्तन की बात है, किन्तु जैसा कि प्रारम्भ में कहा कि प्रत्येक अवतरण स्वयं में एक सन्देश भी निहित रखता है। उसी क्रम में चिन्तन करने पर स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि भगवान श्रीविष्णु के इस विशिष्ट अवतरण, नृसिंह अवतरण का भी एक गूढ़ सन्देश है और वह सन्देश है, "नृ" अर्थात मनुष्य को "सिंह" अर्थात पराक्रमी बनने का सन्देश।

          वास्तव में जीवन तो उसका कहा जा सकता है, जो अपने जीवन के लक्ष्यों को सिंह की भाँति झपट कर प्राप्त करने की क्षमता से युक्त हो। वन्य प्राणियों में सर्वाधिक ओजस्वी पशु सिंह को ही माना गया है, जो अनायास कभी किसी पर हमला करता ही नहीं, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर अथवा क्रुद्ध हो जाने पर जब वह हुंकार भर कर खड़ा हो जाता है तो अन्य छोटे-छोटे जानवरों की कौन कहे, मस्त गैराज भी कतरा कर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझते हैं। ऋषियों ने भी पुरुष की इसी "सिंहवत" रूप में कल्पना की थी। "सिंहवत" बनना केवल शौर्य प्रदर्शन की ही एक घटना नहीं होती वरन् "सिंहवत" बनना इस कारण से भी आवश्यक है कि केवल इसी प्रकार का स्वरूप ग्रहण करके ही जीवन की गति को सुनिर्धारित किया जा सकता है, अन्यथा एक-एक आवश्यकता केवल लिए वर्षों घिसट कर उसे प्राप्त करने में जीवन का सारा सौन्दर्य, सारा रस समाप्त हो जाता है।

          भगवान  विष्णु ने तो एक ही हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिए नृसिंह स्वरूप में, पौराणिक गाथाओं के अनुसार अवतरण किया था, किन्तु मनुष्य के जीवन में तो प्रतिदिन नूतन राक्षस आते रहते हैं, जो हिरण्यकश्यप की ही भाँति अस्पष्ट होते हैं। यह अस्पष्ट ही होता है कि उनका समापन कैसे सम्भव हो? उनसे मुक्ति पाने का क्या उपाय हो सकता है?

          और  यह भी सत्य है कि यदि जीवन में अभाव, तनाव, पीड़ा (शारीरिक, मानसिक अथवा दोनों), दारिद्रय जैसे राक्षसों से एक-एक करके निपटने का चिन्तन किया जाए तो मनुष्य की आधी से अधिक क्षमता तो इसी विचार-विमर्श में निकल जाती है, शेष जो बचती है वह किसी भी प्रयास को सफल नहीं होने देती। साथ ही जीवन के ऐसे राक्षसों से तो केवल सामान्य प्रयास से ही नहीं वरन् ऐसे क्षमता युक्त प्रयास से जूझना आवश्यक होता है, जो साक्षात नरकेसरी की ही क्षमता हो। तभी जीवन में कुछ ऐसा घटित हो सकता है, जिस पर गर्वित हुआ जा सकता है।

           सामान्यतः साधना का क्षेत्र दुष्कर प्रतीत होता है, क्योंकि साधना जीव को वास्तविकताओं यथावत प्रस्तुतिकरण व विवेचन कर देती है। उसमें भक्ति जगत की भाँति दिवास्वप्नों की मधुर लहर नहीं होती है, किन्तु अन्ततोगत्वा व्यक्ति का हित, साधना से ही साधित होता है, क्योंकि साधना जीवन की कटु वास्तविकताओं का यथावत वर्णन करने के साथ-साथ उससे मुक्त होने का उपाय भी वर्णित करती चलती है। वस्तु-स्थितियों का विवेचन इस कारणवश आवश्यक होता है, जिससे  साधक के मन में एक सुस्पष्ट धारणा बन सके कि अन्ततोगत्वा उसकी समस्या क्या है? किस प्रकार से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है?

           यहाँ नृसिंहावतार की संक्षिप्त व्याख्या से भी यही तात्पर्य था और साधकों  को सुविधार्थ उस साधना विधि का प्रस्तुतिकरण किया जा रहा है, जो इस व्याख्या को पूर्णता देने की क्रिया है अर्थात केवल वर्णन-विवेचन नहीं, वह उपाय भी प्रस्तुत करने का प्रयास है, जिसके माध्यम से कोई भी साधक अपने जीवन को सँवारता हुआ, अपनी रग-रग में सिंह की ही लपक और शौर्य को भरता हुआ जीवन की उन समस्याओं पर झपट्टा मार सकता है, जो नित नए स्वरूप में आती रहती है। यह भी जीवन का कटु सत्य है कि जब तक जीवन रहेगा, तब तक समस्याएँ भी आएंगी ही, लेकिन जो साधक दृढ़ निश्चयी होते हैं, जिनके मन में सर्वोच्च बनने का भाव हिलोरे ले रहा होता है, वे ही अवश्यमेव ऐसी साधना सम्पन्न कर अपने जीवन को एक नया ओज व क्षमता देते हैं, जैसा कि नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत साधना विधि की भावना है।

          भगवान् नृसिंह विष्णु जी के सबसे उग्र अवतार माने जाते हैं जितने उग्र नृसिंह भगवान् हैं, उतनी ही उग्र उनकी साधना है। नृसिंह भगवान् के जाप से शत्रुओं का नाश होता है और मुक़दमे आदि में विजय मिलती है। यदि आप के किसी सगे-सम्बन्धी पर किसी ने वशीकरण कर दिया हो या आपका कोई मित्र या सगा-सम्बन्धी किसी परायी स्त्री के जाल में फँस गया हो अथवा आपके परिवार की स्त्री किसी पर-पुरुष के चक्कर में हो तो इस साधना को ज़रूर करें।

         यदि किसी ने आपके विरुद्ध कोई षडयन्त्र रच दिया हो या कोई आपके खिलाफ़ झूठी गवाही दे रहा हो तो उस समय भगवान् नृसिंह को याद करे और विश्वास कीजिए, भगवान् नृसिंह आपकी सहायता उसी प्रकार करेंगे, जिस प्रकार उन्होंने भक्त प्रहलाद की थी। ऐसा कौन-सा फल है, जो भगवान् नृसिंह की आराधना से ना मिलता हो, क्योंकि भगवान् नृसिंह का उपासक सभी सुखों को भोग कर वैकुण्ठ को जाता है।

साधना विधान :----------

          यह साधना आप नृसिंह जयन्ती से आरम्भ करें। इसके अलावा इसे किसी भी रविवार से शुरू किया जा सकता है। साधक इसमें वस्त्र आदि का रंग काला रखें तथा साधक मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए। साधक अपने सामने किसी बाजोट पर काला वस्त्र बिछाकर उस पर नृसिंह यन्त्र अथवा चित्र स्थापित करें और धूप-अगरबत्ती प्रज्ज्वलित करके घी का दीया जला दें।

          साधक सबसे पहले पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का सामान्य पूजन करे और फिर गुरुमन्त्र का चार माला जाप करे। तत्पश्चात सद्गुरुदेवजी से नृसिंह बीजमन्त्र साधना सम्पन्न करने के लिए मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लेकर उनसे साधना की सफलता हेतु प्रार्थना करें।

          इसके बाद भगवान गणपतिजी का स्मरण करके "ॐ वक्रतुण्डाय हुम् फट्" मन्त्र का एक माला जाप करें और फिर गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।

          तदुपरान्त साधक को चाहिए कि वह साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य करें। दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि "मैं अमुक नाम का साधक गोत्र अमुक परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी का शिष्य आज से नृसिंह बीजमन्त्र साधना शुरू कर रहा हूँ। मैं नित्य ११ दिनों तक १२५ माला जाप करूँगा। हे! भगवन्, आप मेरी साधना को स्वीकार कर मुझे इस मन्त्र की सिद्धि प्रदान करें और इसकी ऊर्जा को मेरे भीतर स्थापित कर दें।"

          इसके बाद साधक हाथ के जल को भूमि पर छोड़ दें।

          फिर साधक भगवान नृसिंह का सामान्य पूजन करे और दो लड्डू, दो लौंग, दो मीठे पान एवं एक नारियल भगवान नृसिंहजी को पहले तथा आखिरी दिन भेंट चढ़ाएं, जिन्हें अगले दिन किसी विष्णु मन्दिर में चढ़ा आएं।

          फिर निम्न विनियोग मन्त्र का उच्चारण करके एक आचमनी जल भूमि पर छोड़ दें -----

विनियोग :----------

          ॐ अस्य श्रीनृसिंह एकाक्षरमन्त्रस्य अत्रिः ऋषिः गायत्री छन्दः श्रीनृसिंहो देवता आत्मनोSभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास :----------

ॐ अत्रि ऋषये नमः शिरसि।        (सिर को स्पर्श करें)
ॐ गायत्री छन्दसे नमः मुखे।       (मुख को स्पर्श करें)
ॐ श्रीनृसिंह देवतायै नमः हृदि।       (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ विनियोगाय नमः सर्वांगे।        (सभी अंगों को स्पर्श करें)

कर न्यास :----------

ॐ क्ष्रां अँगुष्ठाभ्याम् नमः।      (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रीं तर्जनीभ्याम् नमः।       (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रूं मध्यमाभ्याम् नमः।      (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रैं अनामिकाभ्याम् नमः।       (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रौं कनिष्ठिकाभ्याम् नमः।    (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रः करतलकर पृष्ठाभ्याम् नमः।  (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)

हृदयादि न्यास :----------

ॐ क्ष्रां हृदयाय नमः।         (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रीं शिरसे स्वाहा।          (सिर को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रूं शिखायै वषट्।          (शिखा को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रैं कवचाय हूम्।          (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।         (नेत्रों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रः अस्त्राय फट्।                 (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)


ध्यान :----------

          हाथ जोड़कर भगवान नृसिंहजी का ध्यान करें -----

ॐ तपन सोम हुताशन लोचनं घनविराम हिमांशु समप्रभम्।
    अभयचक्र पिनाकवरान्करैः दधतमिन्दुधरं नृहरिं भजे।।

नृसिंह बीजमन्त्र :----------

         फिर निम्न मन्त्र का १२५ माला काली हकीक माला से जाप करें -----

          ।। क्ष्रौं ।।

          KSHROUM.

          साधना काल में घी का दीपक लगातार जलते रहना चाहिए।

          मन्त्र जाप के उपरान्त साधक एक आचमनी जल छोड़कर समस्त जाप भगवान नृसिंहजी को ही समर्पित कर दें। इस प्रकार यह साधना ११ दिनों तक नित्य सम्पन्न करें।

          साधना के उपरान्त यन्त्र को जल में विसर्जित कर दें और चित्र को पूजाघर में स्थापित कर दें।
        
          बीज मन्त्र भी पूर्ण प्रभावी होते हैं और कौल मार्ग तो बीज मन्त्रों पर ही टिका हुआ है। कौल मार्ग में बीज मन्त्रों के द्वारा ही साधक इष्ट सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, क्योंकि पूरे का पूरा वृक्ष एक बीज में ही छिपा होता है। बीज मन्त्र सतयुग में सवा लाख जप करने से सिद्ध हो जाते थे, त्रेतायुग में दोगुना जप करने से सिद्ध होते थे, वहीं द्वापर में तिगुना जप करने पर सिद्ध हो जाते थे और कलयुग में चौगुना करने पर सिद्ध हो जाते हैं।

          आपकी साधना सफल हो और भगवान नृसिंह आपका कल्याण करे! मैं सद्गुरुदेव भगवानजी से आप सबके लिए मंगल कामना करता हूँ।

         इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल गुरुजी को आदेश आदेश आदेश ।।।


शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

बगलामुखी मालामन्त्र साधना

बगलामुखी मालामन्त्र साधना

          बगलामुखी जयन्ती समीप ही है। यह २३ अप्रैल २०१८ को आ रही है। आप सभी को बगलामुखी जयन्ती की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ। 

          भारतीय तन्त्र-मन्त्र साहित्य अपने आप में अद्भुत, आश्चर्यजनक एवं रहस्यमय रहा है। ज्यों-ज्यों हम इसके रहस्य को मूल में जाते हैं, त्यों-त्यों हमें विलक्षण अनुभव होते जाते हैं। इस साहित्य से कुछ तन्त्र-मन्त्र तो इतने समर्थ बलशाली एवं शीघ्र फलदायी है कि देखकर चकित रह जाना पड़ता है। ऐसे ही मन्त्र-तन्त्रों में एक तन्त्र है बगलामुखी तन्त्र, जो प्रचण्ड तूफान से भी टक्कर लेने में समर्थ है।

          बगलामुखी साधना भारत की प्राचीनतम एवं दस महाविद्याओं में से एक रही है, कलियुग में तो इसको पग-पग पर देखा जा सकता है। शत्रुओं पर हावी होने, बलवान शत्रुओं का मान-मर्दन करने, भूत-प्रेतादि को दूर करने, हारते हुए मुकदमों में सफलता पाने एवं समस्त प्रकार से उन्नति करने में बगलामुखी मन्त्र व यन्त्र श्रेष्ठतम माने गए हैं। योगियों, तान्त्रिकों, मान्त्रिकों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। भारत के लगभग सभी तान्त्रिकों ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है कि बगलामुखी मन्त्र-यन्त्र के समान और कोई अन्य विधान नहीं है, जो कि इतने वेग से और तुरन्त प्रभाव दिखा सके।

          श्री प्रजापति ने बगला उपासना वैदिक रीति से की और वे सृस्टि की संरचना करने में सफल हुए। श्री प्रजापति ने इस विद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को दिया।  सनत्कुमार ने इसका उपदेश श्री नारद को और श्री नारद ने सांख्यायन परमहंस को दिया, जिन्होंने छत्तीस पटलों में बगला तन्त्रग्रन्थ की रचना की। स्वतन्त्र तन्त्रके अनुसार भगवान् विष्णु इस विद्या के उपासक हुए। फिर श्री परशुराम जी और आचार्य द्रोण इस विद्या के उपासक हुए। आचार्य द्रोण ने यह विद्या परशुराम जी से ग्रहण की।

          श्री बगला महाविद्या ऊर्ध्वाम्नाय के अनुसार ही उपास्य हैं, जिसमें स्त्री (शक्ति) भोग्या नहीं बल्कि पूज्या है। बगला महाविद्या श्री कुलसे सम्बन्धित हैं और अवगत हो कि श्रीकुल की सभी महाविद्याओं की उपासना अत्यन्त सावधानी पूर्वक गुरु के मार्गदर्शन में शुचिता बनाते हुए, इन्द्रिय निग्रह पूर्वक करनी चाहिए। फिर बगला शक्ति तो अत्यन्त तेजपूर्ण शक्ति हैं, जिनका उद्भव ही स्तम्भन हेतु हुआ था। इस विद्या के प्रभाव से ही महर्षि च्यवन ने इन्द्र के वज्र को स्तम्भित कर दिया था। श्रीमद् गोविन्दपाद की समाधि में विघ्न डालने से रोकने के लिए आचार्य श्री शंकर ने रेवा नदी का स्तम्भन इसी महाविद्या के प्रभाव से किया था। महामुनि श्री निम्बार्क ने कस्सी ब्राह्मण को इसी विद्या के प्रभाव से नीम के वृक्ष पर, सूर्यदेव का दर्शन कराया था। श्री बगलामुखी को ब्रह्मास्त्र विद्याके नामे से भी जाना जाता है। शत्रुओं का दमन और विघ्नों का शमन करने में विश्व में इनके समकक्ष कोई अन्य देवता नहीं है।

          भगवती बगलामुखी को स्तम्भन की देवी कहा गया है। स्तम्भनकारिणी शक्ति नाम रूप से व्यक्त एवं अव्यक्त सभी पदार्थों की स्थिति का आधार पृथ्वी के रूप में शक्ति ही है और बगलामुखी उसी स्तम्भन शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इसी स्तम्भन शक्ति से ही सूर्यमण्डल स्थित है, सभी लोक इसी शक्ति के प्रभाव से ही स्तम्भित है। अतः साधक गण को चाहिए कि ऐसी महाविद्या की साधना सही रीति व विधानपूर्वक ही करें।

साधनाकाल में ध्यान रखने योग्य बातें :-----------

१. बगलामुखी साधना में साधक को पूर्ण पवित्रता के साथ जप कार्य करना चाहिए।
२. साधक को पीले वस्त्र धारण करना चाहिए। धोती तथा ऊपर ओढ़ने वाली धोती (पीताम्बर) दोनों पीले रंग में रँगी हुई हो।
३. साधनाकाल में पीले अक्षत से "ह्लीं" बनाकर उस पर यन्त्र या चित्र स्थापित कर उसके सामने मन्त्र जाप करें।
४. साधनाकाल में घी प्रयोग में लें तथा दीपक में जो रूई का प्रयोग करें, उस रूई के पहले पीले रंग में रँगकर सुखा लें और इसके बाद ही उस रूई का दीपक के लिए प्रयोग करें।
५. मोक्ष प्राप्ति के लिए क्रोध का स्तम्भन आवश्यक है और यह इस साधना से सम्भव है। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए भी इसका प्रयोग साधकगण करते हैं।

          बगलामुखी तन्त्र में कहा गया है कि बगलामुखी माला मन्त्र अपने आप में पूर्ण है और जो साधक इस साधना को सम्पन्न करने के बाद नित्य बगलामुखी माला मन्त्र का एक बार पाठ कर लेता है, उसके जीवन में कोई बाधा व्याप्त नहीं होती।

साधना विधान :-----------

          साधना बगलामुखी जयन्ती से शुरू करें। इसके अलावा इस साधना को किसी भी नवरात्रि के प्रथम दिन से अथवा किसी भी मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से अथवा किसी भी मंगलवार से आरम्भ किया जा सकता है। साधना रात्रि काल में ९ बजे के बाद करना ही उचित है।

          साधक स्नान आदि से निवृत्त होकर पीले वस्त्र धारण करें और पूजा स्थल में पीला आसन बिछाकर बैठ जाएं। सामने किसी चौकी या बाजोट पर पीला कपड़ा बिछाकर उस पर बगलामुखी यन्त्र अथवा चित्र स्थापित करें। शुद्ध घी का दीपक और धूप-अगरबत्ती जला लें।

          अब सर्वप्रथम साधक पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का स्मरण करके चार माला गुरुमन्त्र का जाप करें और फिर गुरुदेवजी से बगलामुखी माला मन्त्र साधना सम्पन्न करने की अनुमति लें। फिर उनसे साधना की पूर्णता और सफलता के लिए निवेदन करें।

          इसके भगवान गणपतिजी का स्मरण करके एक माला किसी भी गणपति मन्त्र का जाप करें। फिर गणपतिजी से साधना की पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

          तत्पश्चात भगवान भैरवनाथजी का स्मरण करके "ॐ हौं जूं सः मृत्युंजय भैरवाय नमः" मन्त्र का एक माला जाप करें। फिर भैरवनाथजी से साधना की पूर्णता और सफलता के लिए निवेदन करें।

          इसके बाद साधक साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य लें। इसके लिए दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि मैं अमुक नाम का साधक अमुक गौत्र परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी का शिष्य होकर आज से बगलामुखी माला मन्त्र साधना का अनुष्ठान प्रारम्भ कर रहा हूँ। मैं नित्य ११ दिनों तक नित्य एक माला मन्त्र जाप करूँगा। हे,  माँ! आप मेरी साधना को स्वीकार कर मुझे इस मन्त्र की सिद्धि प्रदान करें और इसकी ऊर्जा को आप मेरे भीतर स्थापित कर दें।

          ऐसा कह कर हाथ में लिया हुआ जल जमीन पर छोड़ दें।

          इसके बाद माँ भगवती बगलामुखी का सामान्य पूजन करे। हल्दी, पीले अक्षत से पूजन कर पीले रंग के ही पुष्प चढ़ाएं और पीले रंग के ही मिष्ठान्न का भोग अर्पित करें।

          फिर साधक को चाहिए कि वह निम्न बगलामुखी मालामन्त्र का हल्दी माला या पीली हकीक माला से एक माला जाप सम्पन्न करें -----

वल्गामुखी माला मन्त्र :-----------

॥ ॐ नमो भगवति ॐ नमो वीर-प्रताप-विजय-भगवति बगलामुखि मम सर्वनिन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय-स्तम्भय ब्राह्मीं मुद्रय-मुद्रय बुद्धिं विनाशय-विनाशय अपरबुद्धिं कुरु-कुरु आत्मविरोधिनां-शत्रुणां शिरो-ललाट-मुख-नेत्र-कर्ण-नासिकोरु-पद-अणु-रेणु-दन्तोष्ठ-जिह्वा-तालु-गुह्य-गुद-कटि-जानु-सर्वांगेषु केशादिपादपर्यन्तं पादादिकेशपर्यन्तं स्तम्भय-स्तम्भय खें खीं मारय-मारय परमन्त्र-परयन्त्र-परतन्त्राणि छेदय-छेदय आत्ममन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणि रक्ष-रक्ष ग्रहं निवारय-निवारय व्याधिं विनाशय-विनाशय दुःखं हर-हर दारिद्रयं निवारय-निवारय सर्वमन्त्रस्वरूपिणि, सर्वतन्त्रस्वरूपिणि, सर्वशिल्पप्रयोगस्वरूपिणि, सर्वतत्वस्वरूपिणि, दुष्टग्रह-भूतग्रह-आकाशग्रह-पाषाणग्रह-सर्वचाण्डालग्रह-यक्षकिन्नरकिम्पुरुषग्रह-भूतप्रेतपिशाचानां-शाकिनी-डाकिनीग्रहाणां, पूर्वदिशां बन्धय-बन्धय वार्तालि माम् रक्ष-रक्ष, दक्षिणदिशां बन्धय-बन्धय किरातवार्तालि माम् रक्ष-रक्ष, पश्चिमदिशां बन्धय-बन्धय स्वप्नवार्तालि माम् रक्ष-रक्ष, उत्तरदिशां बन्धय-बन्धय कालि माम् रक्ष-रक्ष, ऊर्ध्वदिशां बन्धय-बन्धय उग्रकालि माम् रक्ष-रक्ष, पातालदिशां बन्धय-बन्धय बगलापरमेश्वरि माम् रक्ष-रक्ष, सकलरोगान् विनाशय-विनाशय, सर्वशत्रु पलायनाय, पंचयोजनमध्ये राजजनस्त्रीवशतां कुरु-कुरु, शत्रून् दह-दह पच-पच स्तम्भय-स्तम्भय मोहय-मोहय आकर्षय-आकर्षय, मम् शत्रून् उच्चाटय-उच्चाटय हुम् फट् स्वाहा ॥

          मन्त्र जाप के उपरान्त एक आचमनी जल छोड़कर सम्पूर्ण जाप माँ भगवती बगलामुखी को ही समर्पित कर दें।

          इस प्रकार यह साधना ११ दिन तक नित्य सम्पन्न करें। साधना समाप्ति के पश्चात यन्त्र को, यदि ताबीज़ रूप में है तो धारण कर लें अन्यथा विसर्जित कर दें। चित्र को पूजा घर में ही स्थापित रहने दें।

          आपकी साधना सफल हो और आपकी मनोकामना पूर्ण हो। मैं सद्गुरुदेव भगवान परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल गुरुजी को आदेश आदेश आदेश।।।