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मंगलवार, 12 जुलाई 2022

शिवलोक रहस्य साधना

 शिवलोक रहस्य साधना

          भगवान शिव प्रिय मास श्रावण मास निकट ही है। इसे शिव मास भी कहा जाता है। यह १४ जुलाई २०२२ से आरम्भ हो रहा है। आप सभी को शिव मास श्रावण मास की अग्रिम रूप से बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ!

          हमारे पुराणों में कई प्रकार के लोक-लोकान्तरों का उल्लेख मिलता है‚ जैसे देवलोक‚ यक्षलोक‚ गन्धर्वलोक‚ ब्रह्मलोक‚ शिवलोक‚ इन्द्रलोक आदि। वस्तुतः मुझे लगता था‚ कि हमारे पुराणों में जो भी लिखा है‚ वह सत्य है‚ लेकिन संकेतात्मक रूप में विविध उल्लेख अवश्य मिलता है। कहानियों के पीछे कई प्रकार के मत या विचारधारा तथा लक्ष्य हो सकते हैं‚ जिन्हें मात्र उस विषय में गहरी शोध के बाद समझा जा सकता है। जैसे कि मार्कण्डेय पुराण में स्थित दुर्गाशप्तशती पूर्ण तान्त्रोक्त विधानों का संग्रह है। सामान्य व्यक्ति को वह सिर्फ एक कहानी ही प्रतीत हो सकती है और लोक-लोकान्तरों के विषय में भी लोगों की यही धारणा बनी‚ कि वह मात्र कहानियाँ ही है। लेकिन ऐसा नहीं है‚ हमारे तन्त्र ग्रन्थों में बराबर कई ऐसी साधनाओं के विधान दिए हैं‚ जिसके माध्यम से कुछ दिनों में व्यक्ति सूक्ष्म रूप से लोक-लोकान्तरों की यात्रा कर सकता है।

          जीवन का यह दिव्य सौभाग्य ही है‚ कि हम उन लोक में जाएं‚ वहाँ के निवासियों को देखें‚ उनके साथ वार्तालाप करें‚ वहाँ की दिव्यता का आनन्द उठाएं‚ वहाँ के सौन्दर्य को आत्मसात करें। देवताओं के जिन लोकों का उल्लेख हैं‚ वहाँ वे देवता सशरीर निवास करते हैं‚ उनके दर्शन कर‚ आशीष पाकर जीवन को दिव्य बनाएं। कुछ ऐसा ही चिन्तन लेकर मैं भी जुट गया इस दिशा में और साधना के अन्तिम दिन जो भी अनुभूतियाँ हुई‚ उन दिव्य अनुभूतियों को कोई भी लेखनी लिख नहीं सकती। सामान्य व्यक्तियों के लिए यह भी एक कहानी ही हो सकती है। 

          लेकिन जिन्होंने अपने सद्गुरुदेवजी के साथ समय बिताया है तथा उनके चरण कमलों में साधना ज्ञान को प्राप्त किया है‚ वह भलीभाँति समझ सकता है‚ कि साधना के माध्यम से कुछ भी असम्भव नहीं है। शिवलोक भी ऐसा ही एक लोक है‚ जिसका विवरण कई पुराणों में बार-बार प्राप्त होता है। यहाँ तक कि इस लोक में भगवान सदाशिव का स्थायी निवास भी बताया गया है। इसकी भौतिक स्थिति पर कई प्रकार के वाद-विवाद हो सकते हैं। किसी कल्पना की तरह ही यह लोक अत्यधिक दिव्यता युक्त है। बर्फीले वातावरण में प्रकृति अपने पूर्ण श्रृंगार के साथ इस लोक में स्थायी रहती है। साथ ही साथ कई श्रेष्ठ योगी‚ जिन्होंने अपने साधना बल से इसमें प्रवेश किया है‚ वे इधर-उधर विचरण करते हुए नज़र आते हैं‚ तो किसी तरफ शिव के सहायक गणों की भी आवाजाही रहती है। 

          जिसमें वीरभद्र तथा भैरव भी शामिल होते हैं। आगे के स्थान में जहाँ पर अपने आप ही “ॐ” नाद का गुँजरण होता रहता है‚ वहाँ पर एक अत्यधिक मनोहर स्थान पर उच्च वेदी पर भगवान सदाशिव अपने पूर्ण रूप में हमेशा विद्यमान रहते हैं। सामने कई योगी‚ महायोगी तथा अन्य सेवकगण एवं लोक-लोकान्तर से आए शिवभक्त शिव अर्चना में भाव विभोर होकर मग्न ही रहते हैं।

          क्या होगा इससे बड़ा सौभाग्य कि देवताओं की प्रत्यक्ष पूजा की जाए। योगीजन समाधि मग्न होते हैं। सौभाग्यशाली भी होते हैं कुछ एक‚ जिन्हें भगवान सदाशिव अपने श्रीमुख से खुद ही आशीर्वाद देते हैं। कल्पना से भी परे अगर कोई मधुर अनुभव होगा तो वह यही होगा। इस शिवलोक में प्रवेश साधना के माध्यम से मिल सकता है। इस अत्यधिक दुर्लभ विधान को प्राप्त करने के लिए क्या-क्या करना पड़ा था? यह तो पूरी एक अलग कहानी है‚ लेकिन मेरे सभी भाईयों/बहिनों के मध्य मैं इस विधान को भी रखना चाहूँगा‚ ताकि सब अपना जीवन दिव्यता की ओर अग्रसर कर सके तथा देख सके‚ कि साधना में आज भी कितनी शक्ति है? 

साधना विधान :------------ 

          इस साधना को श्रावण मास में सोमवार के दिन रात्रिकाल में १० बजे के बाद शुरू करना चाहिए। साधक को अपने सामने विशुद्ध प्राण-प्रतिष्ठित पारदेश्वर की स्थापना करनी चाहिए तथा उसका पूर्ण पूजन करें‚ धतूरे के फूल अर्पित करें। साधक का मुख उत्तर की तरफ होना चाहिए तथा कमरे में दूसरा कोई व्यक्ति न हो। 

          पूजन के बाद साधक मन्त्र का पूर्ण श्रद्धा के साथ जाप करें। इसके लिए रुद्राक्ष माला पर मन्त्र जाप हो। साधक के वस्त्र काले या फिर सफ़ेद रंग के हो। वस्त्रों के रंग का ही आसन हो। साधक को पहले एक माला लघु अघोर मन्त्र की करनी चाहिए। 

लघु अघोर मन्त्र :------------ 

॥ ॐ अघोरेभ्यो घोरेभ्यो नमः ॥

OM AGHOREBHYO GHOREBHYO NAMAH.

          इसके बाद साधक दिव्य शिवलोक मन्त्र की ५१ (इकावन) माला मन्त्र जाप करें -----

दिव्य शिवलोक मन्त्र :------------ 

॥ ॐ शिवे त्वं लोक प्रसीद अघोरेश्वर्ये दिव्य दर्शय आत्मदृष्टि जाग्रयामि फट् ॥

OM SHIVE TWAM LOK PRASEED AGHORESHWARYE DIVYA DARSHAY AATMADRISHTI JAAGRAYAAMI PHAT. 

          मन्त्र जाप समाप्ति पर शिव को ही मन्त्र जाप समर्पित कर दें। इसके बाद साधक वहीं पर सो जाए। यह क्रम साधक अगले १४ दिनों तक (कुल १५ दिन) चालू रखें। 

          अन्तिम रात्रि को सोने के बाद अपने सूक्ष्म शरीर से शिवलोक में निश्चित रूप से प्रवेश करता है तथा भगवान सदाशिव के दर्शन को कर लेता है। माला को प्रवाहित न करें‚ उसे पूजा स्थान में स्थापित कर दें। 

               आपकी साधना सफल हो और आपकी मनोकामना पूर्ण हो! मैं पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी से आप सबके लिए ऐसी  ही कामना करता हूँ। 

               इसी कामना के साथ

        ॐ नमो आदेश निखिलजी को आदेश आदेश आदेश।।।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

इतरयोनिबाधा-मुक्ति रुद्र प्रयोग


इतरयोनिबाधा-मुक्ति रुद्र प्रयोग



          महाशिवरत्रि पर्व निकट ही है। यह ४ मार्च २०१९ को आ रहा है। आप सभी को महाशिवरात्रि पर्व की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ।

          इस अनन्त ब्रह्माण्ड में हम अकेले नहीं है, इस तथ्य को अब विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। आधुनिक विज्ञान में भी कई प्रकार के परीक्षण इससे सम्बन्धित होने लगे हैं तथा ऐसी कई शक्तियाँ हैं, जिनके बारे में विज्ञान आज भी मौन हो जाता है। क्योंकि विज्ञान की समझ की सीमा के दायरे के बाहर वह कुछ है। खैर, आधुनिक विज्ञान का विकास और परीक्षण अभी कुछ वर्षों की ही देन है, लेकिन इस दिशा में हमारे ऋषि-मुनियों ने सेैकड़ों वर्षों तक कई प्रकार के शोध और परीक्षण किये थे तथा सबने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये थे। मुख्य रूप से सभी महर्षियों ने स्वीकार किया था कि ब्रह्माण्ड में मात्र मनुष्य योनि ही नहीं है, मनुष्य के अलावा भी कई प्रकार के जीव इस ब्रह्माण्ड में मौजूद है। निश्चय ही मनुष्य से तात्विक दृष्टि में अर्थात शरीर के तत्वों के बन्धारण में ये भिन्न है, लेकिन इनका अस्तित्व बराबर बना रहता है।

          इसी क्रम में मनुष्य के अन्दर का आत्म-तत्व जब मृत्यु के समय स्थूल शरीर को छोड़ कर दूसरा शरीर धारण कर लेता है तो वह भी मनुष्य से अलग हो जाता है। वस्तुतः प्रेत, भूत, पिशाच, राक्षस आदि मनुष्य के ही आत्म-तत्व के साथ, लेकिन वासना और दूसरे शरीरों से जीवित है। इसके अलावा लोक लोकान्तरों में भी अनेक प्रकार के जीव का अस्तित्व हमारे आदि ग्रन्थ स्वीकार करते हैं, जिनमें यक्ष, विद्याधर, गान्धर्व आदि मुख्य है।

          अब यहाँ पर बात करते हैं, मनुष्य के ही दूसरे स्वरूप की। जब मनुष्य की मृत्यु अत्यधिक वासनाओं के साथ हुई है, तब मृत्यु के बाद उसको सूक्ष्म की जगह वासना शरीर की प्राप्ति होती है, क्योंकि मृत्यु के समय जीव या आत्मा उसी शरीर में स्थित थी। जितनी ही ज्यादा वासना प्रबल होगी, मनुष्य की योनि उतनी ही ज्यादा हीन होती जायेगी। जैसे कि भूत योनि से ज्यादा प्रेत योनि हीन है। यह विषय अत्यन्त बृहद है, लेकिन यहाँ पर विषय को इतना समझना अनिवार्य है। अब इन्हीं वासनाओं की पूर्ति के लिए या अपनी अधूरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ये जीव एक निश्चित समय तक एक निश्चित शरीर में घूमते रहते हैं। निश्चय ही इनकी प्रवृत्ति एवं मूल स्वभाव हीनता से युक्त होता है और इसीलिए उनको यह योनि भी प्राप्त होती है।

          कई बार ये अपने जीवन काल के दरमियान जो भी कार्यक्षेत्र या निवास स्थान रहा हो, उसके आसपास भटकते रहते हैं। कई बार ये अपने पुराने शत्रु या विविध लोगों को किसी न किसी प्रकार से प्रताड़ित करने के लिए कार्य करते रहते हैं। इनमें भूमि तथा जल तत्व अल्प होता है, इसीलिए मानवों से ज्यादा शक्ति इनमें होती है। कई जीवों में यह सामर्थ्य भी होता है कि वह दूसरों के शरीर में प्रवेश कर अपनी वासनाओं की पूर्ति करे। इस प्रकार के कई-कई किस्से आए दिन हमारे सामने आते ही रहते हैं।

          इन इतरयोनि से सुरक्षा प्राप्ति हेतु तन्त्र में भी कई प्रकार के विधान हैं, लेकिन साधक को इस हेतु कई बार विविध प्रकार की क्रिया करनी पड़ती है, जो कि असहज होती है। साथ ही साथ ऐसे प्रयोग के लिए स्थान जैसे कि श्मशान या अरण्य या फिर मध्यरात्रि का समय आदि आज के युग में सहज सम्भव नहीं हो पाता।

          प्रस्तुत विधान एक दक्षिणमार्गी, लेकिन तीव्र विधान है, जिसे व्यक्ति सहज ही सम्पन्न कर सकता है तथा अपने और अपने घर-परिवार के सभी सदस्यों को इस प्रकार की समस्या से मुक्ति दिला सकता है एवं अगर समस्या न भी हो तो भी इससे सुरक्षा प्रदान कर सकता है। यह पारद शिवलिंग से सम्बन्धित भगवान रूद्र का साधना प्रयोग है। मूलतः इसमें पारद शिवलिंग ही आधार है पूरे प्रयोग का, इसलिए पारद शिवलिंग विशुद्ध पारद से निर्मित हो तथा उस पर पूर्ण तान्त्रोक्त प्रक्रिया से प्राणप्रतिष्ठा और चैतन्यीकरण प्रक्रिया की गई हो, यह नितान्त आवश्यक है। अशुद्ध और अचेतन पारद शिवलिंग पर किसी भी प्रकार की कोई भी साधना सफलता नहीं दे सकती है।

साधना विधान :------------

          यह प्रयोग महाशिवरात्रि से आरम्भ करे। इसे साधक किसी भी सोमवार से भी शुरू कर सकता है। साधक रात्रिकाल में यह प्रयोग करे तो ज्यादा उत्तम है, वैसे अगर रात्रि में करना सम्भव न हो तो इस प्रयोग को दिन में भी किया जा सकता है।

          साधक स्नान आदि से निवृत्त होकर लाल वस्त्रों को धारण करे तथा लाल आसन पर बैठ जाए। साधक का मुख उत्तर की तरफ हो। साधक अपने सामने लाल वस्त्र से ढँके बाजोट पर किसी पात्र में पारदशिवलिंग को स्थापित करे। साधक पहले सामान्य गुरुपूजन और गणेशपूजन सम्पन्न करें। फिर यथाशक्ति गुरुमन्त्र का जाप करें। इसके बाद सद्गुरुदेवजी और भगवान गणपतिजी से रुद्र साधना सम्पन्न करने के लिए मानसिक रूप से आज्ञा लेकर उनसे साधना की सफलता एवं निर्विघ्न पूर्णता के लिए निवेदन करें।

          तत्पश्चात साधना के पहले दिन साधक को संकल्प अवश्य लेना चाहिए।

          संकल्प लेने के बाद साधक पारदशिवलिंग का सामान्य पूजन करे तथा भोग में कोई मिष्ठान्न अर्पित करें।

          फिर निम्न मन्त्र की २१ माला मन्त्र जाप पारदशिवलिंग के सामने करे। यह जाप रुद्राक्ष माला से करना चाहिए।

मन्त्र :-----------

॥ ॐ नमो भगवते रुद्राय भूत वेताल त्रासनाय फट् ॥

OM NAMO BHAGAWATE RUDRAAY BHOOT VETAAL TRAASANAAY PHAT.

          मन्त्र जाप के बाद साधक पारदशिवलिंग को किसी पात्र में रख कर उस पर पानी का अभिषेक उपरोक्त मन्त्र को बोलते हुए करे। यह क्रिया अन्दाज़े से १५-२० मिनिट करनी चाहिए। इसके बाद साधक उस पानी को अपने पूरे घर-परिवार के सदस्यों पर तथा पूरे घर में छिड़क दे।

          इस प्रकार यह क्रिया साधक सतत ११ दिन करे। अगर साधक को कोई समस्या नहीं हो तथा मात्र ऊपरी बाधा से और तन्त्र प्रयोग से सुरक्षा प्राप्ति के लिए अगर साधक यह प्रयोग करना चाहे तो भी यह प्रयोग किया जा सकता है। माला का विसर्जन करने की आवश्यकता नहीं है, साधक इसका उपयोग कई बार कर सकता है।

         आपकी साधना सफल हो और यह महाशिवरात्रि पर्व आपके लिए मंगलमय हो। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्रीनिखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।

रविवार, 17 फ़रवरी 2019

अघोरेश्वर शिव साधना

अघोरेश्वर शिव साधना


           शिवकल्प निकट ही है। माघ मास की पूर्णिमा से लेकर फाल्गुन शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि तक का समय शिवकल्प कहलाता है। यह १९ फरवरी २०१९ से आरम्भ हो रहा है। इन दिवसों में और शिवरात्रि में कोई भेद नहीं है, इन दिनों में की गई शिव साधना निष्फल नहीं होती, ऐसा भगवान शिव ने स्वयं कहा है।

          भगवान शिव नित्य और अजन्मा हैं। इनका आदि और अन्त न होने से वे अनन्त हैं। इनके समान न कोई दाता है, न तपस्वी, न ज्ञानी है, न त्यागी, न वक्ता है और न ऐश्वर्यशाली। भगवान सदाशिव की महिमा का गान कौन कर सकता है? भीष्म पितामह के शिवमहिमा बताने के सम्बन्ध में प्रार्थना करने पर भगवान श्रीकृष्ण ने भी यही कहा हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), इन्द्र और महर्षि आदि भी शिवतत्त्व जानने में असमर्थ हैं, मैं उनके कुछ गुणों का ही व्याख्यान करता हूँ।

          ऐसी स्थिति में हम जैसे तुच्छ जीव शिव-तत्त्व के बारे में क्या कह सकते हैं। परन्तु एक सत्य यह भी है कि आकाश अनन्त है, सृष्टि में कोई भी पक्षी ऐसा नहीं जो आकाश का अन्त पा ले, फिर भी वे अपनी सामर्थ्यानुसार आकाश में उड़ान भरते हैं; उसी तरह हम भी अपनी बुद्धि के अनुसार उस अनन्त शिवतत्त्व के बारे में लिखने का प्रयास करेंगे। भगवान शिव के विविध नाम हैं। भगवान शिव के प्रत्येक नाम में, नाम के गुण, प्रयोजन और तथ्य भरे पड़े हैं।

          हमारे हिन्दू धर्म में त्रिदेवों अर्थात भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का अपना एक विशिष्ट स्थान है और इसमें भी भगवान शंकर का चरित्र जहाँ अत्यधिक रोचक हैं, वहीं यह पौराणिक कथाओं में अत्यधिक गूढ रहस्यों से भी भरा हुआ है।

          पौराणिक कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है, क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है। जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं। यही नहीं भगवान शिव को कुबेर का स्वामी माना जाता है, जबकि वे स्वयं कैलाश पर्वत पर बिना किसी ठौर-ठिकानों के यूँ ही खुले आकाश के नीचे निवास करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि भगवान शिव का स्वभाव शास्त्रों में वर्णित उनके गुणों से जरा भी मेल नहीं खाता और इतने अधिक विरोधाभासों में, किसी भी व्यक्ति की शिव के प्रति आस्था, उसके अपने विश्वास के आधार पर ही टिकी हुई है, इसलिए सभी कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है।

           भगवान शिव के अनेकों स्वरूप हैं और उनका हर स्वरूप निराला है। उनकी पूजा किसी भी समय कीजिए, अनुभूतियाँ तो ऐसी-ऐसी मिलेगी कि सम्पूर्ण जीवन उनके गुणगान करने में ही निकल जाएगा। ऐसा समय आज तक शिवभक्तों के जीवन में नहीं आया होगा, जिस दिन उन्हें शिव कृपा प्राप्त ना हुई हो। आज एक दिव्य साधना दे रहा हूँ, जो मेरी ही नहीं बल्कि बहुत-से शिवभक्तों द्वारा अनुभूत की गई साधना है और एक बात, इस साधना को किए बिना चाहे कितना भी महाविद्या साधना कर लीजिए, प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ शीघ्र नहीं मिलेगी। इसलिए अघोरेश्वर शिव साधना प्रत्येक साधक के जीवन में लक्ष्य-प्राप्ति की ओर बढ़ने का एक आसान-सा मार्ग है। जिसने अघोरत्व प्राप्त कर लिया, वह तो जीवन मे सब कुछ प्राप्त कर लेता है अन्यथा जीवन जीने का हर एक अन्दाज़ व्यर्थ ही इच्छा पूर्ति हेतु गँवा देता है।

          प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ नया और अद्भुत करने का लक्ष्य होता है। कुछ नहीं तो कैरियर, कारोबार या सफल व्यक्तित्व का उद्देश्य अवश्य रहता है। निरन्तर प्रयास के साथ-साथ लक्ष्य साधने की कोशिश और जीवटता बनी रहे, इसके लिए यदि अघोर शिव साधना की जाए तो चमत्कारी लाभ निश्चित है। मान्यता है कि प्रत्येक साधक के लिए लक्ष्य साधने का यह आसान जरिया है। यह साधना वैदिक या शाबर मन्त्र से की जा सकती है।

           इस साधना से सभी प्रकार के ग्रह दोषों से मुक्ति मिलती है, सभी साधनाओं में पूर्ण सफलता मिलती है, सभी प्रकार के तन्त्र प्रयोगों से सुरक्षा प्राप्त होती है। अगर पुराना कोई मन्त्र-तन्त्र दोष किसी साधक के जीवन में हो, चाहे वह इस जन्म का हो या पूर्वजन्म का हो तो वह भी समाप्त हो जाता है। चाहे साबर मन्त्र हो, वैदिक हो या अघोर मन्त्र हो, इन सभी में इस साधना को सम्पन्न करने के पश्चात पूर्ण सफलता मिलती है।

          साधना के समय शरीर में बहुत ज्यादा गर्मी महसूस होगी, ऐसे समय में घबराना मत और साधना को अधूरा नहीं छोड़ना है। ऐसे समय में दुर्गन्ध या डरावनी आवाज़ आ सकती है तो यह भी आपकी साधना में सफलता के लक्षण हैं, जिसे आपको महसूस करना है। इस साधना के माध्यम से भोले बाबा अपने भक्तों को स्वप्न में दर्शन भी प्रदान करते हैं और आशीर्वाद भी।

साधना विधान :---------------

           इस साधना को सम्पन्न करने का सर्वाधिक उपयुक्त समय शिवकल्प ही है, अतः आप इसे शिवकल्प में ही सम्पन्न करें। यदि यह सम्भव न हो तो इसे श्रावण मास में किसी भी सोमवार से शुरू किया जा सकता है, लेकिन यदि इसे शिवकल्प और महाशिवरात्रि के अवसर पर सम्पन्न किया जाए तो यह अत्यधिक श्रेष्ठ माना गया है।

           यह साधना रात्रि १० बजे के बाद आरम्भ करना चाहिए। इस साधना में आसन-वस्त्र काले रंग के उत्तम होते हैं, परन्तु यदि आपके पास उपलब्ध न हो तो, जो भी उपलब्ध हो, उसे ही इस्तेमाल करें। ईशान दिशा की ओर साधक का मुख हो, माला रुद्राक्ष या काले हकीक की हो। इस साधना में पारद शिवलिंग की आवश्यकता होती है और उसी पर यह साधना सम्पन्न की जाती है। यदि आपके पास पारद शिवलिंग नहीं है तो फिर जिस शिवलिंग का पूजन आप करते हैं, उसी पर यह साधना सम्पन्न करें।

           मूल साधना से पूर्व सामान्य गुरुपूजन करें एवं गुरुमन्त्र की चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से अघोरेश्वर शिव साधना सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लें और उनसे साधना की पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।

           तदुपरान्त संक्षिप्त गणेश पूजन करें और किसी भी गणेश मन्त्र का एक माला जाप करें। फिर भगवान गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

           चूँकि यह एक तान्त्रिक मन्त्र साधना है। इसलिए इस साधना में दिग्बन्धन और सुरक्षा घेरा बनाना आवश्यक है। इसके लिए दाहिने हाथ में सरसों के दाने लेकर "रं" बीजमन्त्र का १०८ बार उच्चारण करते हुए अभिमन्त्रित कर लें। इन अभिमन्त्रित सरसों के दानों को बाएँ हाथ से थोड़े-थोड़े लेकर निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए क्रमशः दसों दिशाओं में फेंकते जाएं -----

ॐ वज्रक्रोधाय महादन्ताय दश दिशो बन्ध-बन्ध हूं फट् स्वाहा

           इसके बाद आसन के चारों ओर कील या लोहे की धारदार वस्तु से "ॐ रं अग्नि-प्राकाराय नमः" मन्त्र का उच्चारण करते हुए गोलाकार घेरा बना लेना चाहिए, जिससे आपकी अदृश्य शक्तियों से रक्षा हो।

            तत्पश्चात महामृत्युंजय मन्त्र का उच्चारण करते हुए भस्म और चन्दन को मिलाकर अपने मस्तक पर तिलक लगाएं -----

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्

          इसके बाद पारद शिवलिंग का सामान्य पूजन भस्म मिश्रित चन्दन, अक्षत, पुष्प आदि से करके भोग में कोई भी मिष्ठान्न अर्पित करें।

          फिर मन्त्र जाप से पूर्व हाथ जोड़कर भगवान अघोरेश्वर शिव की निम्नानुसार स्तुति करनी चाहिए -----

प्रार्थना :-------------

जय शम्भो विभो अघोरेश्वर स्वयंभो जयशंकर।
जयेश्वर जयेशान जय जय जय सर्वज्ञ कामदम्

          इस साधना में काली हकीक माला या रुद्राक्ष की माला से अघोरेश्वर शिव मन्त्र का २१ माला जाप किया जाता है। मन्त्र इस प्रकार है -----

मन्त्र :------------

॥ ॐ ह्रां ह्रीं हूं अघोरेभ्यो सर्वसिद्धिं देहि-देहि अघोरेश्वराय हूं ह्रीं ह्रां ॐ फट् ॥

OM HRAAM HREEM HOOM AGHOREBHYO SARVA SIDDHIM DEHI-DEHI AGHORESHWARAAYE HOOM HREEM HRAAM OM PHAT.

           मन्त्र जाप के उपरान्त भी उपरोक्तानुसार प्रार्थना करना आवश्यक है। अतः पुनः हाथ जोड़कर भगवान अघोरेश्वर शिव की स्तुति (प्रार्थना) करें -----

जय शम्भो विभो अघोरेश्वर स्वयंभो जयशंकर।
जयेश्वर जयेशान जय जय जय सर्वज्ञ कामदम्

           इस प्रकार प्रार्थना (स्तुति) करने के बाद एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर समस्त जाप भगवान अघोरेश्वर शिवजी को समर्पित कर दें।

           यह साधना नित्य ग्यारह दिन तक सम्पन्न करना चाहिए, ताकि सर्व कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो और आपको भोले बाबा शिव शंकर का आशीर्वाद प्राप्त हो। अन्तिम दिन साधना समाप्ति के बाद पाँच बिल्वपत्र, दुग्ध युक्त जल, अक्षत (चावल), गन्ध, वस्त्र, पुष्प, लड्डू का भोग, दक्षिणा मूल मन्त्र बोलकर चढ़ाएं।


          आपकी साधना सफल हो और यह शिवकल्प एवं महाशिवरात्रि पर्व आपके लिए मंगलमय हो। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्रीनिखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ 

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।


रविवार, 23 सितंबर 2018

पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग

पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग




          कल से श्राद्ध पक्ष शुरू हो रहा है। श्राद्धपक्ष में पितृदोष अथवा कालसर्पदोष के निवारण के लिए उपाय‚ पूजन व साधना की जाए तो शुभ फलों की प्राप्ति होती है तथा कालसर्प दोष अथवा पितृदोष के दुष्प्रभाव में कमी आती है।

          भगवान शिव का ही  एक नाम रसेश्वर  भी है। भारतीय  शास्त्रों  में  रस”  की  धारणा  पारद  से  की  गई है। रसविद्या का बड़ा महत्व माना गया है। “रसचण्डाशुः” नामक ग्रन्थ में कहा गया है –––––

शताश्वमेधेनकृतेन पुण्यं गोकोटिभि: स्वर्णसहस्रदानात।
नृणां भवेत् सूतकदर्शनेन यत्सर्वतीर्थेषु कृताभिषेकात्॥

          अर्थात सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद, एक करोड़ गाय दान देने के बाद या स्वर्ण की एक हजार मुद्राएँ दान देने के पश्चात् तथा सभी तीर्थों के जल से अभिषेक (स्नान) करने के फलस्वरूप जो–जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य केवल पारद के दर्शन मात्र से होता है।
          इसी तरह –––––

मूर्च्छित्वा हरितं रुजं बन्धनमनुभूय मुक्तिदो भवति।
अमरीकरोति हि मृतः कोऽन्यः करुणाकर: सूतात्॥


        जो मूर्छित होकर रोगों का नाश करता है, बद्ध होकर मनुष्य को मुक्ति प्रदान करता है, और मृत होकर मनुष्य को अमर करता है, ऐसा दयालु पारद के अतिरिक्त अन्य कौन हो सकता है? अर्थात कोई नहीं।

            रसतन्त्र सदा से मनुष्य के लिए आकर्षण का विषय रहा है, क्यूँकि यह एक ऐसा विषय है जो साधक को सब कुछ दे देने में समर्थ है। किन्तु जितनी इस क्षेत्र में  दिव्यता है, उतना ही परिश्रम भी है। रस तन्त्र के साधकों ने समय-समय पर समाज के समक्ष कई साधनाएँ रखी जो कि अपने आप में अद्भूत है।आज भी हम पारद से जुड़ी कई-कई साधनाएँ सम्पन्न करते हैं तथा उसके लाभ को अपने जीवन में अनुभूत करते है। ऐसी कोई साधना नहीं है जो "पारद विज्ञान" से दूर रही हो, चाहे महालक्ष्मी हो या कुबेर प्रयोग हो या स्वर्णाकर्षण साधना ही क्यों न हो? सभी पारद के माध्यम से कई-कई बार सम्पन्न की गई है। जहाँ हम पारद विग्रह के माध्यम से देवी-देवता, इतर योनि आदि को आकर्षित कर प्रसन्न कर सकते हैं, वहीं इन दिव्य विग्रहों पर साधना कर आप पितृदोष से मुक्त होकर पितरों की कृपा के पात्र भी बन सकते हैं।

           प्रश्न उठता है कि क्या यह सम्भव है कि हम पारद शिवलिंग के माध्यम से पितृ शान्ति कर सकें? क्या पारद शिवलिंग के माध्यम से पितरों की कृपा प्राप्त की जा सकती है?

           जी, हाँ! पारद में अद्भूत आकर्षण है, जो शेषनाग को भी अपनी ओर खींच ले। नागकन्याओं  का सम्मोहन कर उन्हें अपने समक्ष आने पर विवश कर दे तो फिर पितृ क्यों आकर्षित नहीं होंगे भला!

          सामान्य रूप से हम पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण आदि का सहारा लेते हैं और यह अत्यन्त प्राचीन विधान भी है, जिसके अन्तर्गत पिण्ड दान, तर पिण्डी आदि भी आती है। उसी प्रकार रसतन्त्र के ज्ञानी हमें पारद के क्षेत्र में भी पितरों के कई-कई विधान प्रदान करते है। उनमें से ही एक साधना है, जिसे रस क्षेत्र में पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग के नाम से जाना जाता है।  यह  तो  नाम से ही ज्ञात होता है कि प्रस्तुत विधान पितरों की मुक्ति से सम्बन्ध रखता है।

                       मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार गति पाता है। उसी अनुसार उसे पुनः गर्भ में भेज दिया जाता है, ताकि वो अपने कर्मों का भोग कर मुक्ति प्राप्त कर सके। परन्तु कभी-कभी कर्म अधिक दूषित होने पर मनुष्य को गर्भ की भी प्राप्ति नहीं होती है और उसे अन्य योनियों में भटकना पड़ता है, जिन्हें हम भूत, प्रेत या पिशाच आदि नामों से जानते हैं। इसके अतिरिक्त यदि मनुष्य इन सबसे बच भी जाए तो उसकी आत्मा ब्रह्माण्ड में अतृप्त रहकर मुक्ति की चाह में विचरण करती रहती है और अपने वंशजों को कष्ट पहुँचाती रहती है।

          ताकि वे इन कष्टों से व्यथित होकर उनकी मुक्ति का उपाय करे। प्रस्तुत साधना आज इसी विषय पर है, जिसके करने मात्र से पितृ मुक्त हो जाते हैं। यदि परिवार का कोई सदस्य किसी अन्य योनि में कष्ट भोग रहा हो तो उसे मुक्ति मिलती है तथा वो सद्गति पाता है। जब पितृ सद्गति को प्राप्त कर लेते हैं तो वंशजों की प्रगति निश्चित है, क्यूँकि अब पितरों की ओर से दी जा रही बाधा सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाती है। यह प्रयोग पारद शिवलिंग पर किया जाता है, क्यूँकि साधना के मध्य पारद पितरों का आकर्षण करता है और उन्हें खींचकर साधक के कक्ष तक लाता है। साधना के अन्त में इसी पितृ साधना का समस्त पुण्य लेकर पितृ लोक की ओर विदा लेते हैं तथा मुक्ति के मार्ग की ओर बढ़  जाते हैं। इसके साथ ही साधक को आशीर्वाद देते हैं, जिससे साधक आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सुख प्राप्त करता है।

          भाइयों/बहिनों! साधना को सम्पन्न कर आप अपने पितरों के ऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करें, जिन्होंने आपको जन्म दिया है, जिनके कारण आपका अस्तित्व है, उन्हें समस्त कष्टों से मुक्त कर उन्हें सद्गति प्रदान करवाएं। इससे बड़ा उपहार और कोई नहीं होगा जो आप अपने पितरों को दे सकें। सभी साधकों के लिए प्रस्तुत है पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग।




साधना विधान :-----------

          यह प्रयोग आप पितृपक्ष में पूर्णिमा अथवा सोमवार से शुरु कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त इसे किसी भी माह की पूर्णिमा से या सोमवार से आरम्भ किया जा सकता है। इस साधना को प्रातः ४ बजे से ९ बजे के मध्य ही कर सकते है।

          स्नान करने के पश्चात श्वेत वस्त्र धारण कर श्वेत आसन पर दक्षिण की ओर मुख करके बैठ जाए। सामने बाजोट पर श्वेत वस्त्र बिछाकर उस पर ताम्र या स्टील की थाली रखे। अब इस थाली में काले तिल और सफ़ेद तिल मिलाकर  एक ढेरी बना दे। अब पारद शिवलिंग को पहले दूध तथा फिर जल से स्नान कराकर स्वच्छ वस्त्र से पोंछकर इस ढेरी पर स्थापित कर दे।

          इसके बाद सद्गुरुदेवजी तथा गणपतिजी का सामान्य पूजन कर गुरुमन्त्र की चार माला तथा गणपति मन्त्र की एक माला जाप करे। तत्पश्चात सद्गुरुदेवजी से पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लेकर उनसे साधना की सफलता के लिए प्रार्थना करे।

          तदुपरान्त साधक को साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य लेना चाहिए। इसके लिए हाथ में जल लेकर संकल्प करे कि मैं यह पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग अपने पितरों की शान्ति तथा उनकी मुक्ति हेतु कर रहा हूँ तथा पितृ-दोष से मुक्ति एवं पितृ-शान्ति के लिए कर रहा हूँ। भगवान पारदेश्वर मेरी मनोकामना को पूर्ण करे तथा मुझे साधना में सफलता प्रदान करे।

           और हाथ के जल जमीन पर छोड़ दे।

          इसके बाद भगवान पारदेश्वर का सामान्य पूजन करे तथा शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करे। भोग में केसर मिश्रित खीर भगवान पारदेश्वर को अर्पित करे।

          अब नीचे कुछ मन्त्र दिए जा रहे हैं, सभी का आपको १०८ बार उच्चारण करना है और जिस मन्त्र के आगे जो सामग्री लिखी गई है वो सामग्री पारदेश्वर शिवलिंग पर अर्पित करना है। अर्थात एक बार मन्त्र पढ़ना है और सामग्री अर्पित करना है। इसी प्रकार हर मन्त्र को १०८ बार पढ़कर सामग्री अर्पण करते जाना है।

ॐ भूत मुक्तेश्वराय नमः।      (काले तिल)
ॐ प्रेत मुक्तेश्वराय नमः।      (सफ़ेद तिल)
ॐ पिशाच मुक्तेश्वराय नमः।        (जौ)
ॐ श्मशानेश्वराय नमः।        (गाय के कण्डे या लकड़ी से बनी भस्म)
ॐ सर्व मुक्तेश्वराय नमः।       (सफ़ेद तथा काले तिल का मिश्रण)
ॐ पितृ मुक्तेश्वराय नमः।      (सफ़ेद तिल, काले तिल तथा जौ का मिश्रण)
  रसेश्वराय नमः।            (दूध मिश्रित जल को पुष्प से छीटें)

          इसके बाद साधक को रुद्राक्ष माला से निम्न मन्त्र की ७ माला जाप करना चाहिए -----

मन्त्र :-----------

।। ॐ हरिहर पितृ-मुक्तेश्वर पारदेश्वराय नमः ।।

OM HARIHAR PITRI-MUKTESHWAR PAARADESHWARAAY NAMAH.

          प्रत्येक माला की समाप्ति के बाद साधक को थोड़े अक्षत लेकर पारदेश्वर पर अर्पण कर देना चाहिए।

          जब मन्त्र जाप पूर्ण हो जाए, तब सम्पूर्ण पूजन एवं जाप एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर भगवान् शिव को अर्पित कर दे तथा उनसे पितृ-शान्ति, पितृ-मुक्ति तथा पितृ-दोष निवारण की प्रार्थना करे।

          भोग की खीर नित्य गाय को खिला दे तथा साधना के बाद पुनः स्नान करे। इसी प्रकार यह साधना को ३ दिन करे।

          साधना समाप्ति के बाद पारदेश्वर को स्नान कराकर पूजा घर में ही स्थापित कर दे तथा समस्त समग्री जो पात्र में एकत्रित हुई है, उन्हें बाजोट पर बिछे वस्त्र में बाँधकर किसी पीपल वृक्ष के नीचे गाड़ दे। यदि यह सम्भव न हो तो वृक्ष के नीचे रख आए, परन्तु प्रयत्न यही करे कि सारी सामग्री गाड़ दी जाए। इस प्रकार यह दिव्य विधान पूर्ण होता है।

            निःसन्देह इस साधना से साधक के सभी पितृ इस प्रयोग से तृप्त होकर साधक को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। पितृ-दोष का नाश होता है, पितृ-शान्ति हो जाती है तथा पितरों को सद्गति प्राप्त होती है। कुपित हुए पितृ शान्त होकर साधक को आर्थिक, दैहिक तथा मानसिक बल प्रदान कर सुखी करते है।

          साधक भाइयों! प्रयोग को स्वयं सम्पन्न कर अनुभव करे तथा अपने पितरों के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करे।

                     आपको साधना में सफलता प्राप्त हो तथा भगवान पारदेश्वर आपके पितरों को शान्ति प्रदान करे!

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।