बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबर प्रयोग

अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबर प्रयोग

          महाशिवरात्रि पर्व निकट ही है। यह १३ फरवरी २०१८ को आ रहा है। आप सभी को महाशिवरात्रि की अग्रिम रूप से बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ! 

         बहुधा व्यक्ति जीवन में बाधाओं से ग्रस्त होता है, जिसकी वजह से उसकी आर्थिक, सामाजिक, मानसिक, पारिवारिक स्थिति कमजोर होते जाती हैं और परिणाम स्वरूप व्यक्ति का जीवन पूरी तरह बर्बाद हो जाता है। हम अक्सर ऐसे में स्वयं को बाह्य बाधा से ग्रसित मान लेते हैं, किन्तु यह पूरी तरह सत्य नहीं होता है और अगर यह सत्य भी हुआ तो हमें यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि यह बाधा किस प्रकार की है? क्यूँकि जीवन में पतन और अभाव के मूल ७ कारण होते हैं, जिनसे व्यक्ति ग्रसित होने पर उन्नति पथ से विचलित होकर विनाश के द्वार तक पहुँच कर अपना सब कुछ लुटा देता है। ये बाधाएँ बाह्य और आन्तरिक दोनों ही प्रकार की होती हैं, इनका सामूहिक शमन कर पाना किसी एक क्रिया से सम्भव नहीं होता है और हमें यह भी तो ज्ञात नहीं होता है कि यह किस प्रकार की बाधा है? जब हम इसके उपचार हेतु जानकारी चाहते हैं तो तथाकथित तान्त्रिक तन्त्रबाधा के नाम से लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं और व्यक्ति दुहरी मार से वैसे ही मर जाता है। क्यूँकि आवश्यक नहीं है कि जिनसे हम अपनी समस्या का समाधान चाहते हों, उन्हें यह ज्ञात भी हो कि इस समस्या का मूल क्या है? जिस प्रकार एक चिकित्सक चिकित्सा की सभी विधियों में पारंगत हो, ऐसा अनिवार्य नहीं है। 

         वही स्थिति तन्त्र में भी होती है अर्थात तन्त्र की सभी विधियों का ज्ञान एक ही तान्त्रिक को हो, ऐसा अनिवार्य नहीं है। किन्तु नाथ योगियों ने समाज के कल्याण के लिए निरन्तर साधनात्मक अन्वेषण का कार्य किया है और नूतन साधनात्मक पद्धतियों से साधकों को परिचित करवाया है। उसी क्रम में सिद्ध रेवणनाथ” का नाम आता है, जो कि तन्त्र के प्रकाण्ड विद्वान लंकाधिपति रावण का ही अवतार हैं और तन्त्र मार्ग के पथिक होने के कारण उन्होंने अपने प्रत्येक रूप से तन्त्र के विविध रहस्यों को आत्मसात् किया है और भगवान शिव के द्वारा अगम्य एवं कठिनतम साधनाओं को हस्तगत किया है। उसी क्रम में उन्होंने भगवान शिव के द्वारा इस पूर्ण तन्त्र बाधा और सप्तदोष नाशक अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबरी प्रयोग के विधान को प्राप्त किया था।


         पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी ने कहा था कि इस मन्त्र के द्वारा जीवन को रसातल में पहुँचाने वाले ७ दोषों का नाश किया जा सकता है। ये सात दोष निम्न प्रकार के हैं -----

(१) अधिदैविक दोष :----- कभी-कभी साधक के कुलदेवी-देवता किसी कारण नाराज हो जाते हैं अर्थात यदि उनका उचित सम्मान न किया जाए या उनके पूजन क्रम में आलस्य व प्रमादवश शिथिलता कर दी जाए तो ऐसे में कुलदेवता का सुरक्षा चक्र मन्द हो जाता है या भंग हो जाता है। तब अभी तक उसे जो सुरक्षा व गति प्राप्त हो रही थी, वो समाप्त हो जाती है। फलस्वरूप साधक दुर्भाग्य की जकड में आ जाता है।

(२) इष्ट दोष :----- प्रत्येक मनुष्य किसी विशेष देवशक्ति का अंश लिए हुए होता है तथा इसी तथ्य पर उसके इष्ट का निर्धारण भी होता है, किन्तु बहुधा साधक को उसके इष्ट की जानकारी नहीं होती है और इसका ज्ञान मात्र सद्गुरु को ही होता है। किन्तु जब साधक उसे जानने की कोई जिज्ञासा ही नहीं रखता है, तब ऐसे में वो भ्रमवश या लालचवश किसी भी देवी-देवता को अपना इष्ट बना लेता है और ऐसे में आवश्यक नहीं है कि वो चयनित देवशक्ति उसकी मित्र ही हो। कभी-कभी पूर्वजन्म के संस्कारों के फलस्वरूप शत्रु देवशक्ति भी हो सकती है, क्यूँकि प्रत्येक साधक को कौन-सी देवशक्ति का साहचर्य मिलेगा या किसका गुण उसके प्राणगत रूप से मेल खाता है, इसका ज्ञान साधक को हो पाना कठिन ही होता है। तब साधक अतिरंजित घटनाओं को सुनकर या अधिक पाने के लालच में किसी भी शक्ति की आराधना करने लगता है और उसके मूल इष्ट उपेक्षित रह जाते हैं तथा साधक उनकी कृपा से वंचित रह जाता है। ऐसे में तब उसे लाभ के बजाय हानि होने लगती है और उसे ये अज्ञात कारण समझ में ही नहीं आता है।

(३) कर्मदोष :----- प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में तीन प्रकार के कर्मों का परिणाम पाता है --- प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण। मान लीजिए, आपने इस जीवन में लगातार पुण्यकर्म किये हैं, किन्तु जीवन में अभाव है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा। तब यह समझ में नहीं आता है कि आखिरकार हमसे ऐसी कौन-सी त्रुटि हुई है, जो जीवन में ना तो प्रसन्नता है, ना ही कोई उन्नति के चिन्ह ही। अब इसका ज्ञान उसे गुरु ही दे सकता है या फिर इसे उसकी कुण्डली द्वारा भी जाना जा सकता है। यह ज्ञात किया जा सकता है कि आखिरकार हम किन कर्मों का परिणाम झेल रहे हैं? क्या वे हमारे पूर्वजन्मों का परिणाम है या फिर संचित या वर्तमान के क्रियमाण कर्मों का?

(४) आधारदोष :----- कभी-कभी हमारी अवनति का कारण हमारा मोह, प्रेम या कर्त्तव्य भी हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि हमारे सम्बन्ध में कोई ऐसा होता है, जो कि हमारा अत्यधिक स्नेही है और वो व्यक्ति जीवन में दुःख,अभाव या दुर्भाग्य से ग्रस्त होता है तथा हम उसकी उन्नति के लिए पूर्ण हृदय से प्रार्थना करते हैं, उसके कष्टों को दूर करने का प्रयत्न भी करते हैं, किन्तु हमें यह ज्ञात नहीं होता है कि कहीं न कहीं हमारे द्वारा किए जा रहे हस्तक्षेप का परिणाम हमारे दुर्भाग्य के रूप में हमारे सामने आ सकता है। अतः मोह जनित इस दोष से जो परिणाम प्राप्त होते हैं, वो इतने कष्टकारी और भयावह होते हैं कि हमारे साथ-साथ इस चक्की में हमारा परिवार भी पिसता जाता है और पूरे परिवार का विकास रुक जाता है तथा एक उदासी, बैचेनी का साम्राज्य परिवार में फैल जाता है। हमारे पूर्वजों के द्वारा किये गए बुरे कार्यों का परिणाम भी इसी श्रेणी में आता है, जो कि उनके प्रतिनिधि के रूप में हमें भोगना होता है, अर्थात पितृ दोष को भी हम इसी दोष के अन्तर्गत रखते हैं।

(५) शाप दोष :----- हमारे कर्मों के द्वारा किसी अन्य का हृदय दुखने से, उसका अहित होने से भी स्वयं के जीवन का योग दुर्भाग्य से युक्त हो जाता है। ब्रह्माण्ड भावों की तीव्रता से अछूता नहीं है और इसी कारण हमारे भाव साकार रूप में हमारे सामने आ जाते हैं। इसका सिद्धान्त यह है कि हमारे मन में चल रहे भाव का योग जैसे ही उस भाव विशेष के स्वामी काल क्षणों से होता है तो वे भाव, भाव ना रहकर साकार रूप में हमारे जीवन में प्रविष्ट हो जाते हैं। इसी कारण किसी के द्वारा पूर्ण शान्त हृदय से दिया गया आशीष और किसी के पीड़ित हृदय से निकली आह फलीभूत होती है और याद रखिए कि ब्रह्माण्ड नकारात्मकता को कहीं अधिक तीव्रता से स्वीकार भी करता है एवं उसके परिणाम को उससे कहीं अधिक तीव्रता से प्रदान भी करता है, क्यूँकि ऐसे में मात्र ऊर्जा का विखण्डन करना ही होता है जो कि सहज है अपेक्षाकृत सकारात्मक भावों से प्रेरित ऊर्जा के संलयन के। अर्थात आशीर्वाद फलीभूत होने में समय ले सकते है, किन्तु श्राप समय नहीं लेता है। इस दोष के अन्तर्गत वास्तुदोष भी आता है अर्थात जिस भूमि पर आप रह रहे हैं, परिस्थितियों, श्राप, काल या घटनाओं के कारण उसमें विकृति आ जाती है और वो भूमि, भवन निरन्तर नकारात्मक ऊर्जा छोड़ते हैं, जिससे दुर्भाग्य का साम्राज्य व्यक्ति विशेष के जीवन में समाहित हो जाता है।

(६) नवग्रह दोष :----- व्यक्ति के जन्म समय में ग्रहों की आधार स्थिति कैसी थी? नक्षत्रों का उस पर क्या प्रभाव पड़ रहा था? किस ग्रह के भुक्तफल को भोगते हुए उसका जन्म हुआ है? उन्नति प्रदायक ग्रहों के कमजोर होने से तथा शत्रु ग्रहों के बलवान होने से, ग्रहों की महादशा,अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर दशा, सूक्ष्मदशा तथा प्राणदशाओं के स्वामी का उस दशा विशेष में जातक के ऊपर क्या परिणाम होगा? उसे कितनी हानि या लाभ होगा? आदि तथ्य इसी प्रकार निर्धारित होते हैं। अतः इसका ज्ञान भी कुण्डली द्वारा किया जा सकता है।

(७) तन्त्र-बाधा दोष :----- आपकी निरन्तर उन्नति, परिवार में व्याप्त प्रसन्नता व आनन्द को देखकर या किसी शत्रुता के कारण कई ऐसे निकृष्ट कर्म विरोधियों द्वारा आपके विरुद्ध सम्पन्न कर दिए जाते हैं, जिससे सौभाग्य परिवार और स्वयं से कोसों दूर हो जाता है। तन्त्र की ये क्रिया करने में कोई विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं होती है या तो तीव्र तन्त्र बल से या फिर तन्त्र सामग्रियों का निकृष्ट काल और शक्तियों से योग कराकर पिशाच शक्तियों के द्वारा किसी का भी जीवन तहस-नहस किया जा सकता है। क्यूँकि भवन निर्माण में कुशलता और अनुभव की प्रधानता होती है, जहाँ अन्धाधुन्ध विनाश की बात है, वहाँ बिना किसी कुशलता के मात्र आप आँख मूँद कर भी पत्थर फेंकोगे तो कहीं न कहीं तो नुकसान होता ही है।

          उपरोक्त सात में से कोई भी एक कारण आपके और आपके परिवार तथा स्वजनों के दुर्भाग्य का कारण हो सकता है। आर्थिक रूप से टूटते जाना, पति या पत्नी का विपरीत हो जाना, सन्तान का गलत मार्ग पर बढ़ना, भ्रमित मानसिकता से गलत निर्णयों का उत्पन्न होना, गर्भपात या गर्भ का ना टिकना, अकाल दुर्घटना, शारीरक व्याधियों तथा रोगों का जन्म, साधना में असफलता, बदनामी, चिड़चिड़ाहट, गलत राह पर अग्रसर होना, मुकदमों में फँसे रहना, राज्य द्वारा निरन्तर बाधा उत्पन्न करना, अवसाद ग्रस्त होना, निरन्तर अवनति तथा दारिद्रय युक्त जीवन जीना आदि उपरोक्त दोषों का ही परिणाम है।

          अब ऐसे में हमें समझ में ही नहीं आता है कि आखिर हम उपाय क्या करें? हमें जो जैसा बता देता है, हम वैसा ही करते हैं और नतीजा ढाक के तीन पात वाला होता है। क्योंकि जब तक हमें समस्या का मूल कारण ही नहीं पाता होगा, तब तक उसका उचित समाधान नहीं किया जा सकता है, क्यूँकि पेटदर्द की औषधि से गले का दर्द तो ठीक नहीं किया जा सकता है।

          किन्तु अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबरी प्रयोग के द्वारा उपरोक्त सातों स्थितियों पर पूर्ण नियन्त्रण पाया जा सकता है। वस्तुतः यह मन्त्र उन बीज मन्त्रों के द्वारा निर्मित हुआ है, जिनसे सभी प्रकार के दोषों का नाश होता है।

साधना विधान :-----------

          शिवरात्रि से होली तक इस प्रयोग को करने पर तीव्रता से लाभ प्राप्त किया जा सकता है, अन्य दिवसों में यह साधना २१ दिन की होती है, रात्रि के १०.३० से १२.४५ तक नित्य इसका जाप किया जाता है। इस साधना में कोई विनियोग या ध्यान नहीं किया जाता है, दक्षिण दिशा की ओर मुख करके काले आसन पर बैठ कर, काले वस्त्रों को धारण कर सामने बाजोट पर काला वस्त्र बिछाकर उस पर पारद शिवलिंग या कोई भी चैतन्य शिवलिंग की स्थापना स्टील के पात्र में की जाए। 

          साधक के लिए उचित होगा कि सर्वप्रथम सद्गुरुदेव, भगवान गणपति, भगवान भैरव और भगवान अघोर का पूजन कर उनसे इस साधना में सफलता की प्रार्थना की जाए तथा आज्ञा ली जाए। शिवलिंग के बाईं तरफ तेल के दीपक का स्थान होगा तथा दाहिनी तरफ ताम्रपात्र में जल का कलश स्थापित होगा। उस ताम्रपात्र में जो जल भरा जाएगा, वो सभी सदस्यों के द्वारा स्पर्श किया हुआ होना चाहिए अर्थात सभी परिवार के सदस्य उसमें पूर्ण स्वच्छ होकर थोड़ा-थोड़ा जल डालेंगे तथा पूर्ण बाधा नाश की प्रार्थना करेंगे।

          सबसे पहले पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का स्मरण करके सामान्य पूजन सम्पन्न करें और गुरुमन्त्र का चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से अवधूतेश्वर कालेश चिन्तामणि साबर प्रयोग सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से आज्ञा लें और उनसे साधना की सफलता एवं पूर्णता के लिए निवेदन करें।

          इसके बाद साधक शिवलिंग का पूर्ण पूजन करे अर्थात अक्षत, पुष्प, धूप-दीप,भस्म, तिल के लड्डुओं के नैवेद्य द्वारा पूजन करे तथा काली हकीक माला या रुद्राक्ष माला द्वारा ७ माला निम्न मन्त्र का जाप करे। प्रत्येक माला की समाप्ति पर काले तिल, कालीमिर्च, सरसों और लौंग अर्पित कर दे।

।। ॐ पिशाचि पर्णशबरि सर्वोपद्रवनाशनि स्वाहा ।।

OM PISHAACHI PARNNASHABARI SARVOPDRAVNAASHNI SWAAHA.

          इस मन्त्र के जाप के बाद पूर्ण स्थिर चित्त होकर माला को धारण कर पुनः उपरोक्त सामग्री को निम्न मन्त्र के उच्चारण साथ धीरे-धीरे बिना किसी माला के जाप करते हुए शिवलिंग पर चढाते रहे, लगभग ४५ मिनट तक यह क्रिया करनी है -----

।। ॐ ह्लौं ग्लौं क्लीं ग्लीं ॐ फट् ।।

OM HLOUM GLOUM KLEEM GLEEM OM PHAT.

          इसके बाद फिर से पहले वाला मन्त्र ७ माला जप करते हुए सामग्री चढाएं -----

।। ॐ पिशाचि पर्णशबरि सर्वोपद्रवनाशनि स्वाहा ।।

          नित्य यही क्रम करना है, प्रतिदिन सामग्री को अलग कर पास में एक मिट्टी का पात्र रखकर उसमें डाल दे।

          जप काल में शरीर का तापमान बढ़ जाता है, सर दर्द करता है, साधना के प्रति उपेक्षा का भाव आता है, कँपकँपी तथा पसीना तीव्रता से निकलता है, भय लग सकता है। ऐसा लगता है, जैसे कोई और साथ में वहाँ पर है।

          यदि हम शिवरात्रि से यह प्रयोग करते हैं तो मात्र ७ दिन का ही यह प्रयोग है। जो भी सामग्री ७ दिनों में इकट्ठी हुई हो, उसे उसी काले कपडे में बाँध कर जप माला तथा नैवेद्य के सभी लड्डुओं समेत होली की रात्रि में होलिकाग्नि में दक्षिण की ओर मुँह करके डाल दे, साथ ही कुछ दक्षिणा अर्पित कर दे।

          यदि आप अन्य दिवसों में साधना कर रहे हैं तो २१ वें दिन किसी वीरान जगह पर अग्नि प्रज्वलित कर दक्षिण मुख होकर ये सामग्री डाल दे। जैसे ही हम सामग्री को अग्नि में अर्पित करते हैं तो चीत्कार और कोलाहल-सा सुनाई देने लगता है। घर आकर स्नान करें तथा कलश में जो जल है वो पूरे घर और सभी सदस्यों पर छिड़क दें।

          अगले दिन ३ कन्याओं तथा एक बालक को भोजन कराकर दक्षिणा देकर तृप्त कर दें। इस प्रकार यह अद्वितीय प्रयोग पूर्ण होता है।


          सद्गुरुदेवजी द्वारा प्रदत्त यह प्रयोग मेरा खुद का अनुभूत है और इससे तीव्र प्रयोग मैंने अभी तक नहीं देखा है। इसका लाभ मैंने उठाया है, अतः आप सभी भी इस प्रयोग से लाभ ले सकते हैं।

          आपकी साधना सफल हो। यह महाशिवरात्रि आपके लिए मंगलमय हो! मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ 

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश ।।।

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