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शनिवार, 1 जून 2019

तान्त्रोक्त धूमावती साधना


तान्त्रोक्त धूमावती साधना



          धूमावती जयन्ती समीप ही है। यह १० जून २०१९ को आ रही है। आप सभी को धूमावती जयन्ती की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

          मन्त्र महार्णव, मन्त्र महोदधि, तन्त्रसार इत्यादि ग्रन्थों में दस महाविद्याओं की साधना पर विशेष बल दिया गया है। विस्तार से यह स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकता अनुसार कैसे शक्ति सिद्धि प्राप्त कर सकता है? कौन-सी शक्ति की साधना करने से किस प्रकार का अभीष्ट फल प्राप्त होगा? काली, तारा, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी, भैरवी, षोडशी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला प्रत्येक महाविद्या का विस्तृत विवेचन है।

           दस महाविद्याओं की साधना करना जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानी जाती है। यह दस प्रकार की शक्तियों की प्रतीक होती है और महत्वपूर्ण अवसर पर जीवन में जिस शक्ति तत्व की कमी होती है, उस कमी को पूरा करने के लिए महाविद्या साधना-उपासना करना जीवन का सौभाग्य माना जाता है।

          दस महाविद्याओं के क्रम में धूमावती सप्तमी महाविद्या है, यह शत्रु का भक्षण करने वाली महाशक्ति और दुःखों की निवृत्ति करने वाली है। बुरी शक्तियों से पराजित न होना और विपरीत स्थितियों को अपने अनुकूल बना देने की शक्ति साधक को इनकी साधना से ही प्राप्त होती है।

          धूमावती दस महाविद्याओं में से एक है, जिस प्रकार "तारा" बुद्धि और समृद्धि की, "त्रिपुर सुन्दरी" पराक्रम एवं सौभाग्य की सूचक मानी जाती है, उसी प्रकार "धूमावती" शत्रुओं पर प्रचण्ड वज्र की तरह प्रहार करने वाली मानी जाती है। वह अपने आराधक को अप्रतिम बल प्रदान करने वाली देवी है, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में सहायक सिद्ध होती ही है, यदि पूर्ण निष्ठा व विश्वास के साथ धूमावती साधना को सम्पन्न कर लिया जाए तो।

          महाविद्याओं का कोई भी रूप हो, फिर वो चाहे महाकाली हों, तारा हों या कमला हों, अपने आप में पूर्ण होता है। यह सभी उसी पराशक्ति आद्याशक्ति के ही तो विभिन्न रूप हैं। जब वो स्वयं अपनी कल्पना मात्र से इस सृष्टि का सृजन, पालन और संहार कर सकती हैं तो उसी परम पूर्ण के यह महाविद्या रूपी रूप कैसे अपूर्ण होंगे, इनमें भी तो निश्चित ही वही विशिष्टता होंगी ही, ना!

          महाविद्याओं के पृथक-पृथक १० रूपों को उनके जिन गुणों के कारण पूजा जाता है, वास्तव में वो उन्हें जनसामान्य को ना होने देने की गोपनीयता ही है, जो पुरातनकाल से सिद्धों और साधकों की परम्परा में चलती चली आई है। जब कोई साधक गुरु के संरक्षण में पूर्ण समर्पण के साथ साधना के लिए जाता है तो परीक्षा के बाद उसे इन शक्तियों की ब्रह्माण्डीयता से परिचित कराया जाता है और तब सभी कुँजियाँ उसके हाथ में सौंप दी जाती हैं। तभी उसे ज्ञात होता है कि सभी महाविद्याएँ सर्वगुणों से परिपूर्ण है और वे अपने साधक को सब कुछ देने का सामर्थ्य रखती हैं अर्थात यदि माँ कमला धन प्रदान करने वाली शक्ति के रूप में साध्य हैं तो उनके कई गोपनीय रूप शत्रु मर्दन और ज्ञान से आपूरित करने वाले भी हैं।

          अब यह तो गुरु पर निर्भर करता है कि वो कब इन तथ्यों को अपने शिष्य को सौंपता है और यह शिष्य पर है कि वह अपने समर्पण से कैसे सद्गुरुदेव के हृदय को जीतकर उनसे इन कुँजियों को प्राप्त करता है। वास्तव में सत, रज और तम गुणों से युक्त ध्यान, दिशा, वस्त्र, काल और विधि पर ही उस शक्तियों के गुण परिवर्तन की क्रिया आधारित होती है। किसी भी महाविद्या को पूर्ण रूप से सिद्ध कर लेने के लिए साधक को एक अलग ही जीवनचर्या, आहार-विहार और खान-पान का आश्रय लेना पड़ता है, किन्तु जहाँ मात्र उनकी कृपा प्राप्त करनी हो तो यह नियम थोड़े सरल हो जाते हैं और यह हम सब जानते हैं कि विगलित कण्ठ से माँ को पुकारने पर वो आती ही हैं।

          माँ धूमावती के साथ भी ऐसा ही है, जनसामान्य या सामान्य साधक उन्हें मात्र अलक्ष्मी और विनाश की देवी ही मानते हैं, किन्तु जिनकी प्रज्ञा का जागरण हुआ हो वे जानते हैं कि आखिर इस महाविद्या का बाह्य परिवेश यदि इतना वृद्ध बनाया गया है तो क्या वह वृद्ध दादी या नानी माँ का परिवेश उन्हीं की भाँति वात्सल्यमयता से युक्त नहीं होगा।

          नीचे की पंक्तियों में माँ भगवती धूमावती से सम्बन्धित ऐसा ही साधना प्रयोग दिया जा रहा है, जिसे सम्पन्न करने पर ना सिर्फ जीवन में पूर्ण अनुकूलता प्राप्त हो जाती है, अपितु शत्रुओं से मुक्ति, आर्थिक उन्नति, कार्य क्षेत्र में सफलता, प्रभावकारी व्यक्तित्व और कुण्डलिनी जागरण जैसे लाभ भी प्राप्त होते हैं। विनाश और संहार के कथनों से परे यह गुण भी हम माँ भगवती धूमावती की साधना से स्पष्ट रूप से देख सकते हैं।

साधना विधान :----------

          यह साधना धूमावती जयन्ती पर सम्पन्न करे अथवा इसे धूमावती सिद्धि दिवस या किसी भी रविवार को भी किया जा सकता है। यह साधना रात्रि में ही १० बजे के बाद की जाती है। स्नान करके बगैर तौलिए से शरीर को पोंछे या तो वैसे ही शरीर को सुखा लिया जाए या धोती के ऊपर धारण किए जाने वाले अंग वस्त्र से हल्के-हल्के शरीर सुखा लिया जाए और साधना के निमित्त सफ़ेद वस्त्र या बहुत हल्का पीला वस्त्र  धारण कर लिया जाए। ऊपर का अंगवस्त्र भी सफ़ेद या हल्का पीला ही होगा। धोती और अंगवस्त्र के अतिरिक्त कोई अन्तर्वस्त्र प्रयोग नहीं किया जाए। साधक-साधिका दोनों के लिए यही नियम है, महिला ऊपर साड़ी के रंग का ही ब्लाउज पहन सकती हैं। आसन सफ़ेद होगा, दिशा दक्षिण होगी।

          सर्वप्रथम पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का सामान्य पंचोपचार पूजन करें और गुरुमन्त्र का कम से कम चार माला जाप करें। फिर उनसे तान्त्रोक्त धूमावती साधना सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लेकर साधना की पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

          तत्पश्चात भगवान गणपतिजी का स्मरण करके एक माला गणपति मन्त्र का जाप करें। फिर उनसे साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।

          इसके बाद एक पृथक बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाकर एक लोहे या स्टील के पात्र में काजल से धूं बीज का अंकन करके उसके ऊपर एक सुपारी स्थापित कर दें और हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मन्त्र का ११ बार उच्चारण करे

धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे।
सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि:।। 

          इसके बाद उस सुपारी को माँ धूमावती का रूप मानते हुए, अक्षत, काजल, भस्म (धूपबत्ती या अगरबत्ती की राख, गोबर के उपलों की राख या पहले हुए किसी भी हवन की भस्म), काली मिर्च और तेल के दीपक से और उबाली हुई उड़द तथा फल के नैवेद्य द्वारा उनका पूजन करे। (यथाॐ धूं धूं धूमावत्यै अक्षत समर्पयामि, ॐ धूं धूं धूमावत्यै कज्जलं समर्पयामि...आदि आदि)

          तत्पश्चात उस पात्र के दाहिने अर्थात अपने बायीं ओर एक मिटटी या लोहे का छोटा पात्र स्थापित कर उसमें सफ़ेद तिलों की ढेरी बनाकर उसके ऊपर एक दूसरी सुपारी स्थापित करे और निम्न ध्यान मन्त्र का ५ बार उच्चारण करते हुए माँ धूमावती के भैरव अघोर रूद्र का ध्यान करे

त्रिपाद हस्तं नयनं नीलांजनं चयोपमम्।
शूलासि सूची हस्तं च घोर दंष्ट्राटट् हासिनम्।।

          और उस सुपारी का पूजन काले तिल, अक्षत, धूप-दीप तथा गुड़ से करे तथा काले तिल डालते हुए ॐ अघोर रुद्राय नमःमन्त्र का २१ बार उच्चारण करे। इसके बाद बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से निम्न मन्त्र का ५ बार उच्चारण करते हुए पूरे शरीर पर छिड़के

धूमावती मुखं पातु  धूं धूं स्वाहास्वरूपिणी।
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्यसुन्दरी।।
कल्याणी हृदये पातु हसरीं नाभि देशके।
सर्वांग पातु देवेशी निष्कला भगमालिना।।
सुपुण्यं कवचं दिव्यं यः पठेदभक्ति संयुतः।
सौभाग्यमतुलं प्राप्य जाते देवीपुरं ययौ।।

           इसके बाद जिस थाली में माँ धूमावती की स्थापना की थी, उस सुपारी को अक्षत और काली मिर्च मिलाकर निम्न मन्त्र की आवृत्ति ११ बार कीजिए अर्थात क्रम से हर मन्त्र ११-११ बार बोलते हुए अक्षत मिश्रित काली मिर्च डालते रहे।
उदाहरण -----         भद्रकाल्यै नमः।

          मन्त्र को ११ बार बोलते हुए अक्षत और साबुत काली मिर्च का मिश्रण अर्पित करे, फिर दूसरा मन्त्र ११ बार बोलते हुए पुनः मिश्रण चढाएं। फिर क्रमशः तीसरा मन्त्र, चौथा, पाँचवाँ, छठवाँ, सातवाँ और आठवाँ मन्त्र ११-११ बार बोलते हुए अक्षत और काली मिर्च का मिश्रण अर्पित करते जाएं -----

  भद्रकाल्यै नमः।
  महाकाल्यै नमः।
  डमरूवाद्यकारिणीदेव्यै नमः।
  स्फारितनयनादेव्यै नमः।
  कटंकितहासिन्यै नमः।
  धूमावत्यै नमः।
  जगतकर्त्री नमः।
  शूर्पहस्तायै नमः।

          इसके बाद  निम्न मन्त्र का जाप रुद्राक्ष माला से ५१ माला करें, यथासम्भव एक बार में ही यह जाप हो सके तो अतिउत्तम  होगा

मन्त्र :-------------

          ।। ॐ  धूं धूं धूमावत्यै फट् स्वाहा ।।

OM DHOOM DHOOM DHOOMAVATYAI PHAT SWAAHA.

          मन्त्र जाप के बाद मिट्टी या लोहे के हवन कुण्ड (हवन कुण्ड ना हो तो कोई भी कटोरा, कढ़ाई, तवा आदि भी लिया जा सकता है) में लकड़ी जलाकर १०८ बार घी व काली मिर्च के द्वारा आहुति डाल दें। आहुति के दौरान ही आपको आपके आसपास एक तीव्रता का अनुभव हो सकता है और पूर्णाहुति के साथ अचानक मानो सब कुछ शान्त हो जाता है। इसके बाद आप पुनः स्नान करके ही सोने के लिए जाए और दूसरे दिन सुबह आप सभी सामग्री को बाजोट पर बिछे वस्त्र के साथ ही विसर्जित कर दें। जाप माला को कम से कम २४ घण्टे नमक मिश्रित जल में डुबाकर रखे और फिर साफ़ जल से धोकर तथा उसका पूजन कर अन्य कार्यों में प्रयोग करें। यदि बाद में भी कभी इस प्रयोग को करना हो तो नवीन सामग्री (माला छोड़कर) से उपरोक्त सारी प्रक्रिया पुनः करना पड़ेगा। इस प्रयोग को करने पर स्वयं ही अनुभव हो जाएगा कि आपने किया क्या है? कैसे परिस्थितियाँ आपके अनुकूल हो जाती है, यह तो स्वयं अनुभव करने वाली बात है।

          आपकी साधना सफल हो और आपकी मनोकामना पूर्ण हो। मैं सद्गुरुदेव भगवान परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी के आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश ।।।

शनिवार, 27 अप्रैल 2019

महामातंगी साधना

महामातंगी साधना

             अक्षय तृतीया पर्व समीप ही है। यह इस वर्ष १८ मार्च २०१८ को आ रहा है। इसी दिन मातंगी जयन्ती भी होती है। आप सभी को अग्रिम रूप से अक्षय तृतीया पर्व की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ!

         समस्त जगत जिस शक्ति से चलित है, उसी शक्ति की दस स्वरूप हैं ये दस महाविद्याएँ, जिनके नौवें क्रम में भगवती मातंगी का नाम आता है। भगवान शिव के मतंग रूप में उनकी अर्द्धांगिनी होने के कारण ही उनकी संज्ञा मातंगी रूप में विख्यात हुई।

         जीवन में भगवती मातंगी की साधना प्राप्त होना ही सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। महर्षि विश्वामित्र ने तो यहाँ तक कहा है कि बाकी नौ महाविद्याओं का भी समावेश मातंगी साधना में स्वतः ही हो गया है। चाहे हम बाकी नौ साधनाएँ नहीं भी करें और केवल मातंगी साधना को ही सम्पन्न कर लें तो भी अपने आप में पूर्णता प्राप्त हो सकती है।

         इसीलिए तो शास्त्रों में मातंगी साधना की प्रशंसा में कहा गया है‚ कि -------

मातंगी मेवत्वं पूर्ण, मातंगी पूर्णत्व उच्चते।”

         इससे यह स्पष्ट होता है कि मातंगी एकमात्र श्रेष्ठतम साधना है और एकमात्र मातंगी ही पूर्णता दे सकती है।

         मातंगी शब्द जीवन के प्रत्येक पक्ष को उजागर करने की क्रिया के का नाम है, जिससे जीवन के दोनों ही पक्षों को पूर्णता मिलती है। परन्तु मातंगी साधना साधकों के मध्य विशेष रूप से जीवन के भौतिक पक्ष को सुधारने के लिए ही की जाती रही है।

         माना जाता है कि मातंगी देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु ने की थी। तभी से वे सुखी, सम्पन्न, श्रीयुक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं। देवी की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं, किन्तु बौद्ध धर्म के प्रारम्भ में देवी का कोई अस्तित्व नहीं था। कालान्तर में देवी बौद्ध धर्म में मातागिरी नाम से जानी जाती है। तन्त्र विद्या के अनुसार देवी सरस्वती नाम से भी जानी जाती हैं, जो श्रीविद्या महात्रिपुरसुन्दरी के रथ की सारथी तथा मुख्य सलाहकार हैं।

          हम जीवन में सदैव मेहनत करते हैं तथा हमेशा यह प्रयत्न करते रहते हैं कि हमारा समाज तथा हमारा परिवार हमसे सदैव प्रसन्न रहे, परन्तु ऐसा होता नहीं है। उसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारे पास बहुमत नहीं है। यहाँ बहुमत का अर्थ प्रसिद्धि से है, क्यूँकि जब तक हमें जीवन में प्रसिद्धि नहीं मिलती, हमारा कोई सम्मान नहीं करता है। दुनिया सर झुकाएगी तो ही परिवार भी हमें सम्मान देगा अन्यथा वो कहावत तो सुनी ही होगी, घर की मुर्गी दाल बराबर। और यदि आप प्रसिद्ध है तो लक्ष्मी भी आपके जीवन में आने को आतुर हो उठती है।

         प्रस्तुत साधना इसीलिए है। कुछ लाभ यहाँ लिख रहा हूँ, जो इस साधना से आपको प्राप्त होंगे -------

     १. इस साधना को सम्पन्न करने के बाद साधक अपने कार्य क्षेत्र में तथा समाज में ख्याति प्राप्त करता है। वह एक लोकप्रिय और यशस्वी व्यक्तित्व बन जाता है।

     २. साधना माँ मातंगी से सम्बन्धित है, अतः साधक को पूर्ण गृहस्थ सुख प्राप्त होता है तथा परिवार में सम्मान होता है। साधक को कुटुम्ब सुख, पुत्र, पुत्रियाँ, पत्नी, स्वास्थ्य, पूर्णायु आदि सभी कुछ प्राप्त होता है, जिससे उसका गृहस्थ जीवन पूर्ण माना जा सकता है।

     ३. माँ मातंगी में महालक्ष्मी समाहित है, अतः साधक का आर्थिक पक्ष मजबूत होता है। स्वास्थ्य, आय, धन, भवन सुख, वाहन सुख, राज्य सुख, यात्राएँ और विविध इच्छाओं की पूर्ति सब कुछ तो मातंगी अपने साधक को प्रदान कर देती है।

         यह केवल मैंने तीन लाभ ही लिखे हैं, परन्तु एक साधक होने के नाते आप सभी यह बात बखूबी जानते है कि कोई भी साधना मात्र लाभ ही नहीं देती है, बल्कि साधक का चहुँमुखी विकास करती है। साथ ही धैर्य तथा विश्वास परम आवश्यक है। अतः साधना साधना कर लाभ उठाएं तथा अपने जीवन को प्रगति प्रदान करें।

साधना विधि :-----------

         यह साधना अक्षय तृतीया या मातंगी जयन्ती अथवा मातंगी सिद्धि दिवस से आरम्भ की जा सकती है। ए तो अधिक श्रेष्ठ रहता है। इसके अतिरिक्त यह साधना किसी भी नवरात्रि के प्रथम दिन से अथवा किसी भी शुक्रवार से शुरू की जा सकती है। फिर भी अक्षय तृतीया से वैशाख पूर्णिमा के मध्य यह साधना सम्पन्न करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

         यह साधना रात्रि १० बजे के बाद शुरू करे या ब्रह्ममुहूर्त में भी की जा सकती है। आसन, वस्त्र सफ़ेद हो तथा आपका मुख उत्तर की ओर हो। सामने बजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाएं और उस पर अक्षत से बीज मन्त्र “ह्रीं” लिखें, फिर उस पर माँ मातंगी का कोई भी यन्त्र या चित्र स्थापित करे। यह सम्भव न हो तो एक मिटटी के दीपक में तिल का तेल डालकर कर जलाएं और उसे स्थापित कर दें। इस दीपक को ही माँ का स्वरूप मानकर पूजन करना है। अगर अपने यन्त्र या चित्र स्थापित किया है तो घी का दीपक पूजन में लगाना होगा, जो सम्पूर्ण साधना काल में जलता रहे।

         सबसे पहले साधक को चाहिए कि वह समान्य गुरु पूजन करे और गुरुमन्त्र का चार माला जाप करे। फिर सद्गुरुदेवजी से महामातंगी साधना सम्पन्न करने के लिए मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लें और उनसे साधना की पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।

         तदुपरान्त भगवान गणपतिजी का संक्षिप्त पूजन करके “ॐ वक्रतुण्डाय हुम्” मन्त्र की एक माला जाप करें। फिर गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।

         इसके बाद भगवान भैरवनाथजी का स्मरण करके “ॐ हूं भ्रं हूं मतंग भैरवाय नमः” मन्त्र की एक माला जाप करें और भगवान भैरवनाथजी से साधना की निर्बाध पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।

         तत्पश्चात साधक को साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य लेना चाहिए। संकल्प में अपनी मनोकामना का उच्चारण करें और उसकी पूर्ति के लिए माँ भगवती मातंगी से साधना में सफलता तथा आशीर्वाद प्रदान करने की प्रार्थना करें।

         इसके बाद साधक माँ भगवती मातंगी का सामान्य पूजन करे, भोग में सफ़ेद मिठाई अर्पित करे। साथ ही कोई भी इतर अर्पित करे। यदि अपने तेल का दीपक स्थापित किया है तो घी का दीपक लगाने की कोई जरुरत नहीं है। बाकी सारा क्रम वैसा ही रहेगा।

         पूजन के बाद माँ भगवती मातंगी से अपनी मनोकामना कहे एवं सफलता तथा आशीर्वाद प्रदान करने की प्रार्थना करे। फिर स्फटिक माला से निम्न मन्त्र की २१ माला करें -----

मन्त्र :-----------

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं महामातंगी प्रचितीदायिनी लक्ष्मीदायिनी नमो नमः

OM HREEM HREEM HREEM MAHAAMAATANGI PRACHITIDAAYINI LAKSHMIDAAYINI NAMO NAMAH.

         मन्त्र जाप के बाद अग्नि प्रज्वलित कर घी, तिल तथा अक्षत मिलकर १०८ आहुति प्रदान करे।

         अगले दिन दीपक हो तो विसर्जन कर दे। यन्त्र या चित्र हो तो पूजाघर में रख दे। प्रसाद स्वयं ग्रहण कर ले। इतर सँभाल कर रख ले, प्रतिदिन इसे लगाने से आकर्षण पैदा होता है। इस तरह यह एक दिवसीय साधना सम्पन्न होगी।

          कुछ दिनों में आप साधना का प्रभाव स्वयं अनुभव करने लग जाएंगे तो देर किस बात की? साधना करें तथा जीवन को पूर्णता प्रदान करें!

          आपकी साधना सफल हो और आपकी मनोकामना माँ भगवती पूर्ण करे! मैं सद्गुरुदेव भगवान श्रीनिखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।

 

सोमवार, 28 जनवरी 2019

आपदुद्धारक धूमावती साधना

आपदुद्धारक धूमावती साधना



          माघ मास में आनेवाली गुप्त नवरात्रि समीप ही है। यह ५ फरवरी २०१९ से शुरू हो रही है। आप सभी को गुप्त नवरात्रि की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

          हिन्दू धर्म में नवरात्रि माँ दुर्गा की साधना के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। नवरात्रि के दौरान साधक विभिन्न तन्त्र विद्याएँ सीखने के लिए माँ भगवती की विशेष पूजा करते हैं। तन्त्र साधना आदि के लिए गुप्त नवरात्रियाँ बेहद विशेष मानी जाती हैं। आषाढ़ और माघ मास के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि कहा जाता है। इस नवरात्रि के बारे में बहुत ही कम लोगों को जानकारी होती है। शिशिर ऋतु के पवित्र माघ मास में शुभ्र चाँदनी को फैलाते शुक्ल पक्ष में मन्दिर-मठों और सिद्ध देवी स्थानों पर दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते की शास्त्रीय ध्वनि सुनाई देने लगती है।

          जिस तरह वर्ष में दो बार नवरात्रि आती हैं और जिस प्रकार नवरात्रियों में देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है, ठीक उसी प्रकार गुप्त नवरात्रि में दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। गुप्त नवरात्रि विशेषकर तान्त्रिक क्रियाएँ, शक्ति साधना, महाकाल आदि से जुड़े लोगों के लिए विशेष महत्त्व रखती है। इस दौरान देवी भगवती के साधक बेहद कड़े नियम के साथ व्रत और साधना करते हैं। इस दौरान लोग लम्बी साधना कर दुर्लभ शक्तियों की प्राप्ति करने का प्रयास करते हैं। गुप्त नवरात्रि में कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने से भी लाभ होता है।

          गुप्त नवरात्रि के दौरान माँ काली, तारा, भुवनेश्वरी, त्रिपुरसुन्दरी, छिन्नमस्तिका, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, माँ कमला देवी की आराधना करनी चाहिए। इन नवरात्रों में प्रलय एवं संहार के देव महादेव एवं माँ काली की पूजा का विधान है। इन गुप्त नवरात्रि में कई साधक गुप्त सिद्धियों को अंजाम देते हैं और चमत्कारी शक्तियों के स्वामी बन जाते हैं। ध्यान रखें कि पूजा अर्चना करते समय फल की इच्छा कभी ना करें। अगर आप किसी मन्शा से माता रानी की पूजा अर्चना करते है तो माता आपकी इच्छा पूर्ण नहीं करती। माता बहुत दयालु है, अपने सभी भक्तों की माता जरुर सुनती है। इस गुप्त नवरात्रि में वामाचार पद्धति से भी उपासना की जाती है।

          यह समय शाक्त एवं शैव धर्मावलम्बियों के लिए पैशाचिक, वामाचारी क्रियाओं के लिए अधिक शुभ एवं उपयुक्त होता है। इसमें प्रलय एवं संहार के देवता महाकाल और महाकाली की पूजा की जाती है। साथ ही संहारकर्ता देवी-देवताओं के गणों एवं गणिकाओं अर्थात भूत-प्रेत, पिशाच, बैताल, डाकिनी, शाकिनी, खण्डगी, शूलनी, शववाहनी, शवरूढ़ा आदि की साधना भी की जाती है। यह साधनाएँ बहुत ही गुप्त स्थान पर या किसी सिद्ध श्मशान में की जाती हैं।

          माँ धूमावती दस महाविद्याओं में सातवीं महाविद्या हैं। धूमावती को अलक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है। माँ धूमावती का रूप अत्यन्त उग्र होता है, लेकिन माँ अपने साधक/पुत्र के लिए सौम्य भाव रखती हैं और सन्तान के लिए कल्याणकारी सिद्ध होती हैं। क्रोधमय ऋषियों यथा दुर्वासा, भृगु एवं परशुराम आदि की मूल शक्ति माँ धूमावती ही थीं। माँ की कृपा से सभी पापों का नाश होता है और सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।

          माँ धूमावती का कोई स्वामी नहीं है। इनकी साधना से जीवन में निडरता और निश्चितता आती है। इनकी साधना से आत्मबल का विकास होता है। देवी धूमावती सूकरी रूप में प्रत्यक्ष होती हैं और साधक के सभी रोग, कष्ट, दुःख एवं शत्रुओं का नाश करती है। वह साधक महाप्रतापी और सिद्ध पुरुष के रूप में ख्याति प्राप्त करता है। माँ धूमावती महाशक्ति स्वयं नियन्त्रिका हैं। ऋग्वेद में रात्रिसूक्तम में इन्हे सूतरा कहा गया है अर्थात ये सुखपूर्वक तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट को दूर करने वाली कहा गया है। माँ धूमावती की सिद्धि के लिए तिल मिश्रित नमक और घी से होम किया जाता है।

          जीवन में यदि बार बार रूकावटें आ रही हों या समस्याएँ लगातार आपका पीछा कर रही हों तो यह प्रयोग ब्रह्मास्त्र समान है। माँ धूमावती इस प्रयोग को करने वाले पर अपनी कृपा अवश्य करती है। हर प्रकार की बाधा चाहे वह आर्थिक हो, दैहिक हो, मानसिक हो या साधनात्मक। हर प्रकार की बाधाओं का निवारण होता है इस दिव्य प्रयोग से। यह प्रयोग तीव्र रूप से फल प्रदान करता है।

साधना विधि :----------

          यह साधना किसी भी रविवार से आरम्भ करे। समय रात्रि १० के बाद का हो, दिशा दक्षिण हो। आपके आसन, वस्त्र सफ़ेद हो। यह साधना ८ दिन की है।

          सामने बाजोट पर एक सफ़ेद वस्त्र बिछा दे। उस पर पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का चित्र कर दे। एक पान के पत्ते पर भस्म से एक त्रिशूल की आकृति बनाए और उसे स्थापित करे।

           सर्वप्रथम संक्षिप्त सद्गुरु पूजन सम्पन्न करे। फिर गुरुमन्त्र की कम से कम चार माला जाप करे। तत्पश्चात सद्गुरुदेवजी से आपद उद्धारक धूमावती साधना सम्पन्न करने की अनुमति लेकर उनसे साधना की निर्बाध पूर्णता और सफलता के लिए निवेदन करें।

          इसके बाद सामान्य गणेश पूजन करे। फिर किसी भी गणपति मन्त्र का एक माला जाप करके उनसे साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना करें।

          तदुपरान्त भगवान भैरवनाथजी का स्मरण करके किसी भी भैरव मन्त्र का एक माला जाप करें। फिर भैरवनाथजी से साधना की निर्बाध पूर्णता और सफलता के लिए निवेदन करें।

          साधना के पहले दिन साधक को संकल्प अवश्य लेना चाहिए। फिर प्रतिदिन संकल्प लेने की आवश्यकता नहीं होती।

          अब उस त्रिशूल को जिसे आपने पान के पत्ते पर बनाया है, माँ भगवती धूमावती मानकर पूजन करे। इस साधना में यन्त्र या चित्र की कोई आवश्यकता नहीं है। सामान्य पूजन में केवल भस्म चढ़ाएं एवं सफ़ेद पुष्प अर्पण करे, थोड़े-से काले तिल भी अर्पण करे। तिल के तेल का दीपक लगाएं, दीपक मिटटी का होना चाहिए। भोग में आप पेठे का भोग लगाएं, यह सम्भव न हो तो कोई भी सफ़ेद मिठाई का भोग लगाएं। नित्य सुबह यह भोग किसी गाय को दे देना है, आपको नहीं खाना है।

          पान का पत्ता नित्य नया लेना है और पहले वाले पत्ते को किसी मिटटी के पात्र में नित्य डाल देना है। पूजन के बाद माँ से अपनी विपदाओं के निवारण के लिये प्रार्थना करे तथा तुलसी की माला से जाप करे।

          जिस क्रम से मन्त्र लिखे जा रहे हैं, उसी क्रम से जाप करे।

               ।। धूं धूं धूमावती ठः ठः ।।


DHOOM DHOOM DHOOMAAVATI TTHAH TTHAH. 

                              (एक माला जाप करे)


मूलमन्त्र :-----------

                ।। ॐ धूं धूं धूमावती आपद उद्धारणाय कुरु कुरु स्वाहा ।।


          OM DHOOM DHOOM DHOOMAAVATI AAPAD UDDHAARANAAY KURU KURU SWAAHA. 

                        (२१ माला जाप करे)

          पुनः उपरोक्त मन्त्र की एक माला जाप करे -----

                 ।। धूं धूं धूमावती ठः ठः ।।

          मन्त्र जाप के उपरान्त समस्त जाप माँ भगवती धूमावती का एक आचमनी जल भूमि पर छोड़ कर समर्पित कर दें।

          यह क्रम नित्य रहे। आखिरी दिन अग्नि जलाकर कम से कम १०८ आहुति काली मिर्च से प्रदान करे। इस तरह यह साधना सम्पन्न होती है।

          अगले दिन जिस मिटटी की मटकी में आप पान का पत्ता डालते थे, उसी में सारी सामग्री डाल दे। सफ़ेद कपड़ा, पान, माला, मिटटी का दीपक सब उसी में डाल दे और एक नए सफ़ेद कपड़े से मटकी का मुँह बाँध दे। उस मटकी को घर से ले जाते वक़्त माँ से प्रार्थना करे ----- "हे! माँ, आप जाते-जाते मेरे जीवन से सारी विपदाओं, सारे आर्थिक कष्टों, सारी दरिद्रता को साथ लेकर चली जाओ तथा मुझे आशीर्वाद देकर जाओ कि मैं जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति प्राप्त करूँ।"

          और मटकी को शमशान में रख आएं। यह सम्भव न हो तो किसी निर्जन स्थान में रख आएं या किसी पीपल के पेड़ के नीचे रख आएं या जल में विसर्जन कर आएं। पीछे मुड़कर न देखें, घर आकर स्नान अवश्य करें।

          याद रखें, एक बार मटकी को बाँधने के बाद पुनः खोले नहीं अन्यथा सारी विपदाएँ पुनः आपके जीवन में आ जाएंगी।

          आपकी यह साधना सफल हो और माँ भगवती धूमावती आप सबका कल्याण करे। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

              इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश ।।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

भुवनेश्वरी साधना

भुवनेश्वरी साधना

         माघ  मासीय  गुप्त  नवरात्रि  निकट  ही  है।  यह ५ फरवरी २०१९ से आरम्भ हो रही है। आप सभी को गुप्त नवरात्रि की अग्रिम रूप से बहुत–बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ!

         दस महाविद्याओं में चतुर्थ स्थान पर भुवनेश्वरी महाविद्याविद्यमान है, जो त्रिभुवन (ब्रह्माण्ड) पालन एवं उत्पत्ति कर्ता मानी गयी है। भुवनेश्वरी शब्द भुवन से बना है, जिसका अर्थ है भुवनत्रय अर्थात तीनों लोक। अतः भुवनेश्वरी तो तीनों लोकों की अधिष्ठात्री देवी है, उनकी नियन्ता है और इन तीनों ही लोकों में सब के द्वारा पूजनीय है।

          वस्तुतः भुवनेश्वरी साधना भोग और मोक्ष दोनों को समान रूप से देने वाली उच्च कोटि की साधना है, इसके बारे में संसार के कई तान्त्रिक, मान्त्रिक ग्रन्थों में विशेष रूप से उल्लेख है। शाक्त प्रमोद में बताया गया है कि भुवनेश्वरी साधना समस्त साधनाओं में श्रेष्ठ है और इस साधना से जीवन की सभी इच्छाएँ पूर्ण होती है। अतः जो साधक अपने जीवन में सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान चाहते हैं, उन्हें भुवनेश्वरी साधना अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिए।

          गुरु गोरखनाथ ने भुवनेश्वरी महाविद्या सिद्ध करने के बाद अपने ज्ञान बल और साधना के बल से यह अनुभव किया था कि हमें अपने जीवन में अन्य देवी-देवताओं की साधना करनी ही नहीं है,  यदि कोई साधक पूर्ण रूप से भुवनेश्वरी साधना ही सम्पन्न कर लेता है, उसके जीवन में किसी भी दृष्टि से कोई अभाव व्याप्त नहीं रहता।

          विश्व के सभी साधकों ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है कि प्रत्येक गृहस्थ को जीवन में एक बार अवश्य ही भुवनेश्वरी देवी की साधना या आराधना कर लेनी चाहिएजिससे उसके जीवन के सभी पाप समाप्त हो जाते हैंपूर्व जन्म कृत दोष दूर हो जाते हैं और इस जीवन में सभी प्रकार के भौतिक पदार्थों को भोगता हुआपूर्ण सुख और सम्मान प्राप्त करता हुआवह अन्त में भुवनेश्वरी महाविद्या में लीन होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

          तन्त्र सार एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसको अत्यन्त ही प्रमाणिक माना जाता है। उसमें भगवती भुवनेश्वरी साधना के दस लाभ स्पष्ट रूप से वर्णित किये गए है –––

          १. भुवनेश्वरी साधना से निरन्तर आर्थिक, व्यापारिक और भौतिक उन्नति होती ही रहती है। जो अपने भाग्य में दरिद्र योग लिखा कर लाया है, जो व्यक्ति जन्म से ही दरिद्री है, वह भी भुवनेश्वरी साधना कर अपनी दरिद्रता को समृद्धि में बदल सकता है।
          २. भुवनेश्वरी साधना ही एक मात्र कुण्डलिनी जागरण साधना है। इस साधना से स्वत: शरीर स्थित चक्र जाग्रत होने लगते हैं और अनायास उसकी कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है। ऐसा होने पर उसका सारा जीवन जगमगाने लग जाता है।
          ३. एक मात्र भुवनेश्वरी साधना ही ऐसी है, जो जीवन में भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक प्रगति एक साथ प्रदान करती है।
          ४. भुवनेश्वरी को आद्या माँ कहा गया है, फलस्वरूप भुवनेश्वरी साधना से योग्य सन्तान प्राप्त होती है और पूर्ण सन्तान सुख प्राप्त होता है।
          ५. भुवनेश्वरी साधना इच्छापूर्ति की साधना है। यदि पूर्ण रूप से भुवनेश्वरी को सिद्ध कर लिया जाए तो व्यक्ति जो भी इच्छा या आकांक्षा रखता है, वह इच्छा अवश्य ही पूर्ण होती है।
          ६. भुवनेश्वरी सम्मोहन स्वरूपा है। तन्त्र सार के अनुसार भुवनेश्वरी साधना करने से पुरुष या स्त्री का सारा शरीर एक अपूर्व सम्मोहन अवस्था में आ जाता है, जिसके व्यक्तित्व से लोग प्रभावित होने लगते हैं और वह जीवन में निरन्तर उन्नति करता रहता है।
          ७. भुवनेश्वरी भोग और मोक्ष दोनों को एक साथ प्रदान करने वाली है, यही एक मात्र ऐसी साधना है, जिसको सम्पन्न करने पर जीवन में सम्पूर्ण भोगों की प्राप्ति होती है और अन्त में पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति भी होती है।
          ८. भुवनेश्वरी रोगान् शेषा है अर्थात भुवनेश्वरी साधना करने पर असाध्य रोग भी समाप्त हो जाते हैं और जीवन में अथवा परिवार में किसी प्रकार का कोई रोग व्याप्त नहीं होता।
          ९. तोडल तन्त्र में बताया है कि भुवनेश्वरी शत्रु संहारिणी है। इसकी साधना करने वाले साधक के शत्रु स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं, यहाँ तक कि जो भी व्यक्ति इस प्रकार के साधक के प्रति दुराग्रह या शत्रुभाव रखते हैं, वे अपने आप समाप्त होते रहते हैं और उनका जीवन बर्बाद हो जाता है।
          १०. भुवनेश्वरी को योगमाया कहा गया है, इसकी साधना कर जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति निश्चित रूप से होती ही है।

          इन सारे तथ्यों को केवल एक ऋषि या एक साधक ने ही स्वीकार नहीं किया है, अपितु जिन-जिन योगियों या महर्षियों ने इस साधना को सम्पन्न किया है, उन्होंने यह अनुभव किया है कि यदि साधक अपने जीवन में इस साधना को सम्पन्न नहीं करता है तो वह जीवन ही बेकार चला जाता है। उसके जीवन में कोई रस नहीं रहता और यदि सिद्धाश्रम के द्वारा वर्णित इस साधना का उपयोग नहीं किया जाता, तो ऐसी महत्वपूर्ण साधना कहीं नहीं प्राप्त हो पाती।

साधना विधान :-----------

          यह साधना आप गुप्त नवरात्रि पहले दिन से आरम्भ करें। वैदिक ग्रन्थों में बताया गया है कि भुवनेश्वरी साधना किसी भी नवरात्रि, शिवरात्रि, भुवनेश्वरी जयन्ती अथवा किसी भी सोमवार से प्रारम्भ की जा सकती है।

          इस साधना को करने के लिए प्राण प्रतिष्ठित सिद्ध भुवनेश्वरी यन्त्र”‚ दस लघु नारियल और सफ़ेद हकीक या रुद्राक्ष माला की आवश्यकता होती है।

          इस साधना को करने के लिए साधक सफ़ेद रंग के वस्त्र धारण कर, प्रात: (४:२४ से ६:०० पूर्वाह्न) के बीच या रात्रि सवा दस बजे पूर्व दिशा की तरफ़ मुख होकर बैठे। अपने सामने किसी बाजोट (चौकी) पर सफेद रंग का वस्त्र बिछाकर उस पर किसी प्लेट में रोली से त्रिकोण बनाएं। यह त्रिकोण तीनों लोकों का प्रतीक है। उस त्रिकोण में अक्षत (बिना टूटे चावल) भर दें। उन अक्षत पर सिद्ध प्राण प्रतिष्ठित भुवनेश्वरी यन्त्र स्थापित करें। यन्त्र के सामने दस चावल की ढेरियाँ बनाकर उस पर १० लघु नारियल स्थापित करें। प्रत्येक नारियल पर रोली से तिलक करें। सामने शुद्ध घी का दीपक जलाकर धूप-अगरबत्ती प्रज्ज्वलित कर दें।

          अब साधक को चाहिए कि वह सद्गुरुदेवजी का सामान्य गुरुपूजन करे और गुरुमन्त्र का कम से कम चार माला जाप करे। फिर उनसे भुवनेश्वरी साधना सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा प्राप्त करे और साधना की सफलता के लिए प्रार्थना करे।

          इसके बाद साधक क्रमशः संक्षिप्त गणेशपूजन और भैरवपूजन सम्पन्न करे। फिर उनसे साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए निवेदन करे।

          तत्पश्चात साधक को चाहिए कि वह साधना के पहले दिन मन्त्र-विधान अनुसार संकल्प अवश्य करे। फिर माँ भगवती भुवनेश्वरी (यन्त्र) का सामान्य पूजन करे, कुमकुम, अक्षत (चावल), धूप, दीप, पुष्प से और भोग में कोई मिष्ठान्न अर्पण करे।

          इस प्रकार पूजन सम्पन्न कर सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़ें -----

          ॐ अस्य श्रीभुवनेश्वरी मन्त्रस्य शक्तिः ऋषि:, गायत्रीछन्द:, श्रीभुवनेश्वरी देवता, हं बीजं, ईं शक्ति:, रं कीलकं श्रीभुवनेश्वरी देवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:।

          और  फिर जल को भूमि पर छोड़ दें।

ऋष्यादि न्यास :----------

शक्तिऋषये नमः शिरसि।           (सिर को स्पर्श करें)
गायत्रीछन्दसे नमः मुखे।            (मुख को स्पर्श करें)
श्रीभुवनेश्वरी देवतायै नमः हृदये।     (हृदय को स्पर्श करें)
हं बीजाय नम: गुह्ये।               (गुह्य-स्थान को स्पर्श करें)
ईं शक्तये नमः पादयोः।             (दोनों पैरों को स्पर्श करें)
रं कीलकाय नमः नाभौ।             (नाभि को स्पर्श करें)
श्रीभुवनेश्वरी देवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नम: सर्वांगे।     (पूरे शरीर को स्पर्श करें)

कर न्यास :----------

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।         (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः।          (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः।         (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः।        (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।     (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।    (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)

हृदयादि न्यास :-----------

ॐ ह्रां हृदयाय नमः।          (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा।          (सिर को स्पर्श करें)
ॐ ह्रूं शिखायै वषट्।           (शिखा को स्पर्श करें)
ॐ ह्रैं कवचाय हुम्।           (परस्पर भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।       (नेत्रों को स्पर्श करें)
ॐ ह्र: अस्त्राय फट्।          (सिर से हाथ घुमाकर चारों दिशाओं में चुटकी बजाएं)

ध्यान :-----------
          इसके बाद दोनों हाथ जोड़कर माँ भगवती भुवनेश्वरी का ध्यान करे -----

ॐ उद्यद्दिनद्युतिमिन्दु किरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीति करां प्रभजेत् भुवनेशीम्॥

           ध्यान के पश्चात सिद्ध प्राण प्रतिष्ठित सफ़ेद हकीक माला या रुद्राक्ष माला से निम्न मन्त्र की १०१ माला मन्त्र जाप करें -----

भुवनेश्वरी मन्त्र :-----------

                 ‌‌॥ ह्रीं ॥
                                      HREEM.

          मन्त्र जाप के पश्चात् भुवनेश्वरी कवच का पाठ करें

॥ भुवनेश्वरीकवचम् ॥

देव्युवाच ।
देवेश भुवनेश्वर्या या या विद्याः प्रकाशिताः।
श्रुताश्चाधिगताः सर्वाः श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम्॥१॥
त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कवचं यत्पुरोदितम्।
कथयस्व महादेव मम प्रीतिकरं परम्॥२॥

ईश्वर उवाच ।
शृणु पार्वति वक्ष्यामि सावधानावधारय।
त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कवचं मन्त्रविग्रहम्॥३॥
सिद्धविद्यामयं देवि सर्वैश्वर्यसमन्वितम्।
पठनाद्धारणान्मर्त्यस्त्रैलोक्यैश्वर्यभाग्भवेत्॥४॥

विनियोग :----------

           ॐ अस्य श्रीभुवनेश्वरीत्रैलोक्यमङ्गलकवचस्य शिव ऋषिः, विराट् छन्दः, जगद्धात्री भुवनेश्वरी देवता, धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः।

ह्रीं बीजं मे शिरः पातु भुवनेशी ललाटकम्।
ऐं पातु दक्षनेत्रं मे ह्रीं पातु वामलोचनम्॥१॥
श्रीं पातु दक्षकर्णं मे त्रिवर्णात्मा महेश्वरी।
वामकर्णं सदा पातु ऐं घ्राणं पातु मे सदा॥२॥
ह्रीं पातु वदनं देवि ऐं पातु रसनां मम।
वाक्पुटा च त्रिवर्णात्मा कण्ठं पातु परात्मिका॥३॥
श्रीं स्कन्धौ पातु नियतं ह्रीं भुजौ पातु सर्वदा।
क्लीं करौ त्रिपुटा पातु त्रिपुरैश्वर्यदायिनी॥४॥
ॐ पातु हृदयं ह्रीं मे मध्यदेशं सदावतु ।
क्रौं पातु नाभिदेशं मे त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी॥५॥
सर्वबीजप्रदा पृष्ठं पातु सर्ववशङ्करी।
ह्रीं पातु गुह्यदेशं मे नमोभगवती कटिम्॥६॥
माहेश्वरी सदा पातु शङ्खिनी जानुयुग्मकम्।
अन्नपूर्णा सदा पातु स्वाहा पातु पदद्वयम्॥७॥
सप्तदशाक्षरा पायादन्नपूर्णाखिलं वपुः।
तारं माया रमाकामः षोडशार्णा ततः परम्॥८॥
शिरःस्था सर्वदा पातु विंशत्यर्णात्मिका परा।
तारं दुर्गे युगं रक्षिणी स्वाहेति दशाक्षरा॥९॥
जयदुर्गा घनश्यामा पातु मां सर्वतो मुदा।
मायाबीजादिका चैषा दशार्णा च ततः परा॥१०॥
उत्तप्तकाञ्चनाभासा जयदुर्गाऽऽननेऽवतु।
तारं ह्रीं दुं च दुर्गायै नमोऽष्टार्णात्मिका परा॥११॥
शङ्खचक्रधनुर्बाणधरा मां दक्षिणेऽवतु।
महिषामर्द्दिनी स्वाहा वसुवर्णात्मिका परा॥१२॥
नैऋत्यां सर्वदा पातु महिषासुरनाशिनी।
माया पद्मावती स्वाहा सप्तार्णा परिकीर्तिता॥१३॥
पद्मावती पद्मसंस्था पश्चिमे मां सदाऽवतु।
पाशाङ्कुशपुटा मायो स्वाहा हि परमेश्वरि॥१४॥
त्रयोदशार्णा ताराद्या अश्वारुढाऽनलेऽवतु।
सरस्वति पञ्चस्वरे नित्यक्लिन्ने मदद्रवे॥१५॥
स्वाहा वस्वक्षरा विद्या उत्तरे मां सदाऽवतु।
तारं माया च कवचं खे रक्षेत्सततं वधूः॥१६॥
हूँ क्षें ह्रीं फट् महाविद्या द्वादशार्णाखिलप्रदा।
त्वरिताष्टाहिभिः पायाच्छिवकोणे सदा च माम्॥१७॥
ऐं क्लीं सौः सततं बाला मूर्द्धदेशे ततोऽवतु।
बिन्द्वन्ता भैरवी बाला हस्तौ मां च सदाऽवतु॥१८॥

फलश्रुति ----------

इति ते कथितं पुण्यं त्रैलोक्यमङ्गलं परम्।
सारात्सारतरं पुण्यं महाविद्यौघविग्रहम्॥१९॥
अस्यापि पठनात्सद्यः कुबेरोऽपि धनेश्वरः।
इन्द्राद्याः सकला देवा धारणात्पठनाद्यतः॥२०॥
सर्वसिद्धिश्वराः सन्तः सर्वैश्वर्यमवाप्नुयुः।
पुष्पाञ्जल्यष्टकं दद्यान्मूलेनैव पृथक् पृथक्॥२१॥
संवत्सरकृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात्।
प्रीतिमन्योऽन्यतः कृत्वा कमला निश्चला गृहे॥२२॥
वाणी च निवसेद्वक्त्रे सत्यं सत्यं न संशयः।
यो धारयति पुण्यात्मा त्रैलोक्यमङ्गलाभिधम्॥२३॥
कवचं परमं पुण्यं सोऽपि पुण्यवतां वरः।
सर्वैश्वर्ययुतो भूत्वा त्रैलोक्यविजयी भवेत्॥२४॥
पुरुषो दक्षिणे बाहौ नारी वामभुजे तथा।
बहुपुत्रवती भूयाद्वन्ध्यापि लभते सुतम्॥२५॥
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि नैव कृन्तन्ति तं जनम्।
एतत्कवचमज्ञात्वा यो भजेद्भुवनेश्वरीम्।
दारिद्र्यं परमं प्राप्य सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात्॥२६॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे देवीश्वर संवादे त्रैलोक्यमङ्गलं नाम भुवनेश्वरीकवचं सम्पूर्णम् ॥

          कवच पाठ के पश्चात एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर समस्त जाप समर्पित कर दें। इस प्रकार नित्य साधना सम्पन्न करें।

          यह ग्यारह दिन की साधना है। साधना के बीच साधना के नियमों का अवश्य ही पालन करें। भय रहित होकर पूर्ण आस्था के साथ ग्यारह दिन तक भुवनेश्वरी मन्त्र जाप करें। नित्य जाप करने से पहले नित्य संक्षिप्त पूजन अवश्य करें। साधना के बारे में जानकारी गुप्त रखें।

          ग्यारह दिन तक मन्त्र का जाप करने के बाद जितना आपने मन्त्र का जाप किया है, उसका दशांश (१०%) या संक्षिप्त हवन कमल गट्टे, शुद्ध घी, हवन समग्री में मिलाकर हवन करें।

          हवन के पश्चात् भुवनेश्वरी यन्त्र को अपने घर के मन्दिर या तिजोरी में लाल वस्त्र से बाँधकर एक वर्ष के लिए रख दें और बाकि बची पूजा सामग्री को नदी या किसी पीपल के नीचे विसर्जित कर दें।

          इस तरह करने से यह साधना पूर्ण मानी जाती है, उसके संकल्पित कार्य भविष्य में शीघ्र पूरे होते हैं। माँ भुवनेश्वरी की कृपा से साधक को ज्ञान,  धन-सम्मान,  प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। धन प्राप्ति के नये-नये अवसर उसे प्राप्त होते हैं। माँ भुवनेश्वरी उसके जीवन की दरिद्रता पूर्णत: समाप्त कर उसे सभी दृष्टियों से परिपूर्ण कर देती है।

                    आपकी साधना सफल हो और आपका जीवन माँ भगवती भुवनेश्वरी की  कृपा से ज्ञान धन मान और प्रतिष्ठा  से परिपूर्ण हों। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्रीनिखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।


              इसी कामना के साथ


ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश ।।