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मंगलवार, 15 मई 2018

वासुदेव विष्णु साधना

वासुदेव विष्णु साधना



          भगवान विष्णु हिन्दू धर्म के अनुसार परमेश्वर के तीन मुख्य स्वरूपों में से एक सर्वमान्य रूप हैं। पुराणों के अनुसार त्रिदेवों में विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिदेवों के  दो अन्य स्वरूपों में भगवान शिव और ब्रह्मा को माना गया है। जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना गया है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। आदिशक्ति सात्विक स्वरूप में साक्षात् श्रीहरि विष्णु में विद्यमान महामाया हैं। सर्वदा क्षीर सागर के मध्य शेष नाग की शय्या पर शयन करने वाले श्रीहरि विष्णु से जो तामसी तथा संहारक शक्ति उत्पन्न होती हैं, वे योगमाया नाम से विख्यात हैं तथा उनकी शक्ति हैं। इसी शक्ति से सम्पन्न होकर वे दुराचारियों-आतताइयों का वध कर तीनों लोक के संरक्षण कार्य में संलग्न होते हैं। सम्पूर्ण जीवों के आश्रय होने के कारण भगवान श्री विष्णु ही नारायण कहे जाते हैं। सर्वव्यापक परमात्मा ही भगवान श्री विष्णु हैं। यह सम्पूर्ण विश्व भगवान विष्णु की शक्ति से ही संचालित है।

          विष्णु शब्द का अर्थ, उपस्थित होने से हैं, जो सर्वदा सभी तत्वों तथा स्थानों में व्याप्त हैं, वही विष्णु हैं। परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म के अन्तर्गत, ब्रह्माण्ड के प्रत्येक तत्व या कण-कण में परमेश्वर या ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति की जाती हैं। चराचर जगत के पालनकर्ता श्री विष्णु, श्री हरि, श्री नारायण इत्यादि नामों से विख्यात हैं तथा जिनको जगत में विशेषकर भारतवर्ष में लोग देवता के रूप में आदि काल से ही मानते चले आ रहे हैं और इनकी उपासना बहुत अधिकता से होती आई है। ऋग्वेद में यद्यपि विष्णु गौण देवता माने गए हैं, पर ब्राह्मण ग्रन्थों में इनका महत्व बहुत अधिक है। ऋग्वेद में विष्णु विशाल शरीरवाले और युवक माने गए हैं और कहा गया है कि ये त्रि + वि + क्रम अर्थात् तीन कदमों या डगों से सारे विश्व को अतिक्रमण करनेवाले हैं। पुराणों के वामन अवतार का यही बीज रूप है। कुछ लोगों ने इन तीनों डगों या कदमों का अर्थ सूर्य का दैनिक उदय और अस्त माना है तथा कुछ लोग इसका अर्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्गलोक लेते हैं। इसके अतिरिक्त ये नियमित रूप, बहुत दूर तक और जल्दी-जल्दी चलने वाले माने गए हैं। 

          यह भी कहा गया है कि ये इन्द्र के मित्र थे और वृत्र के साथ युद्ध करने में इन्होंने इन्द्र को सहायता दी थी । विष्णु और इन्द्र दोनों मिलकर वातावरण, अन्तरिक्ष, सूर्य, उषा और अग्नि के उत्पादक माने गए हैं और विष्णु इस पृथ्वी, स्वर्ग तथा सब जीवों के मुख्य आधार कहे गए हैं। ऋग्वेद और शतपथ ब्राह्मण में कुछ ऐसी कथाएँ भी हैं, जो पौराणिक काल के वराह, मत्स्य तथा कूर्म अवतार का भी मूल या आरम्भिक रूप मानी जा सकती हैं। वैदिक काल में विष्णु धन, वीर्य और बल देनेवाले तथा सब लोगों का अभीष्ट सिद्ध करने वाले माने जाते थे। 

          पुराणों के अनुसार विष्णु समय-समय पर पृथ्वी का भार हल्का करने के लिये, संसार में शान्ति और सुख की स्थापना करने के लिये और दुष्टों तथा पापियों का नाश करने के लिये अवतार धारण किया करते हैं। विष्णु के कुल चौबीस अवतार कहे गए हैं, जिनमें से दस मुख्य माने गए हैं, जिन्हें दशावतार के रूप में जाना जाता है। भिन्न-भिन्न पुराणों में विष्णु के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की कथाएँ और उनकी उपासना आदि का बहुत अधिक माहात्म्य मिलता है। विष्णु के उपासक वैष्णव कहलाते हैं। इनकी स्त्री का नाम श्री या लक्ष्मी कहा गया हैं। ये युवक, श्यामवर्ण और चतुर्भुज माने गए हैं। ये चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए रहते है। इनके शंख का नाम पाँचजन्य, चक्र का नाम सुदर्शन और गदा का नाम कौमोदकी है। इनकी तलवार का नाम नन्दक और धनुष का नाम शार्ङ्ग है। इनका वाहन वैनतेय नामक गरुड़ माना जाता है। पुराणों में इनके एक हजार नाम माने गए हैं और उन नामों का जप बहुत शुभ फल देनेवाला माना जाता है। नारायण, कृष्ण, वैकुण्ठ, दामोदर, केशव, माधव, मुरारि, अच्युत, हृषीकेश, गोविन्द, पीताम्बर, जनार्दन, चक्रपाणि, श्रीपति, मधुसूदन, हरि आदि इनके प्रसिद्ध नाम हैं।

          सृष्टि का आरम्भ भगवान विष्णु से माना गया है और यह संसार विष्णु की ही माया (लीला) का स्वरूप है। भगवान विष्णु का सगुण स्वरूप भी है और निर्गुण स्वरूप भी, माया रूपी स्वरूप में वे लक्ष्मी के साथ अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करते हैं।

          मुझे याद है कि बचपन में हम जिस गुरुकुल में जाते थे, वहाँ के आचार्य प्रातःकालीन और सायंकालीन संध्या करते थे तो हम सब बालक भी वहाँ बैठते थे। संध्या की विशेष विधि का ज्ञान नहीं था तो हमारे आचार्य श्री ने कहा कि सब बालक नेत्र बन्द कर ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मन्त्र का जाप करें। यह जीवन की आधार शक्ति का मूल मन्त्र है। सभी देवी-देवता भगवान श्रीविष्णु की लीला के आधीन है और आज भी जब मन अशान्त होता है, कार्य में बाधाएँ आती हैं, कोई मार्ग नहीं मिलता तो मैं हाथ-मुँह धोकर एक दीपक जलाकर शान्तभाव से बैठकर एक माला उपरोक्त मन्त्र का जाप करता हूँ और अपने आप एक मार्ग देखने लगता है।

          विष्णु साधना का पुरश्चरण बारह लाख मन्त्रों का जाप है और पुरश्चरण के पश्चात इसके शतांश बारह हजार मन्त्रों का हवन विधान भी है। विष्णु मन्त्र को चैतन्य मन्त्र माना गया है, इसी कारण विष्णु साधना में सफलता प्राप्त होती ही है।

सर्वोपरि साधना : विष्णु साधना

     १. विष्णु साधना आधार शक्ति की साधना है, जिससे पूर्व जन्मकृत दोष और वर्तमान जन्म के दोष दूर होते हैं।
     २. विष्णु साधना से व्यक्तित्व में तेजस्विता आती है, जीवन में नेतृत्व की क्षमता प्राप्त होती है।
     ३. विष्णु साधना कर्म प्रधान साधना है, साधक कर्मशील, कर्त्तव्यशील बनता है और अपने बलबूते पर आगे बढ़ने हेतु कार्यशील होता है।
     ४. विष्णु साधना शक्ति की साधना है। साधक को सुदर्शन चक्र शक्ति प्राप्त होती है, क्योंकि जहाँ विष्णु है, वहाँ लक्ष्मी का वास होता ही है।
     ५. विष्णु साधना पूरे परिवार की साधना है और ग्रह शान्ति, पारिवारिक उन्नति, पुत्र-पौत्र प्राप्ति, सहयोग तथा सुख की साधना है।
          साधना का मार्ग संक्षिप्त नहीं है और जब भी साधना करें तो पूर्ण विधि-विधान सहित सम्पन्न करें। उसी रूप में साधना करने पर पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। आगे जो साधना विधान दिया जा रहा है, उसमें विनियोग है,  न्यास भी है, ध्यान व पूजन भी है, उन्हें उसी रूप में सम्पन्न करना है।

कैसे बनता है अधिक मास या पुरुषोत्तम मास?

          सौर वर्ष और चान्द्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिए हर तीसरे वर्ष पंचांगों में एक चान्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। इसी को अधिक मास या अधिमास या मलमास कहते हैं। सौर-वर्ष का मान ३६५ दिन १५ घड़ी २२ पल और ५७ विपल हैं। जबकि चान्द्र-वर्ष ३५४ दिन २२ घड़ी १ पल और २३ विपल का होता है। इस प्रकार दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन ५३ घटी २१ पल अर्थात लगभग ११ दिन का अन्तर पड़ता है। इस अन्तर में समानता लाने के लिए चान्द्र-वर्ष १२ मासों के स्थान पर १३ मास का हो जाता है।

          अधिक मास को स्वयं भगवान पुरुषोत्तम ने अपना नाम दिया है, इसलिए इसे पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। कम ही लोग ये बात जानते होंगे कि अधिक मास भी कई प्रकार का होता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार अलग-अलग कारणों से अधिक मास के तीन प्रकार बताए गए हैं। सामान्य अधिकमास, संसर्प अधिकमास और मलिम्लुच अधिकमास।

          ज्योतिषियों के अनुसार जो अधिकमास क्षयमास के बिना आता है अर्थात वर्ष में केवल एक अधिकमास आता है वह सामान्य अधिकमास होता है।

          वर्तमान में जो अधिकमास चल रहा है, वह इसी प्रकार का है। भारतीय पंचांग के अनुसार सभी नक्षत्र, तिथियाँ-वार, योग-करण के अलावा सभी माह के कोई न कोई देवता स्वामी है, किन्तु पुरुषोत्तम मास का कोई स्वामी न होने के कारण सभी मंगल कार्य, शुभ और पितृ कार्य इस माह में वर्जित माने जाते हैं।

                       इस वर्ष ज्येष्ठ मास दो हैं, इन दोनों ज्येष्ठ मासों का मध्य भाग अधिमास या पुरुषोत्तम मास कहलाता है, यह मास शुक्ल पक्ष से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा १६ मई २०१८ से द्वितीय ज्येष्ठ अमावस्या १३ जून २०१८ को पूर्ण होता है।

क्यों विशेष है अधिक मास?

          हिन्दू धर्म में अधिक मास को बहुत ही पवित्र और पुण्य फल देने वाला माना गया है। अधिक मास को पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं। इस महीने में भगवान पुरुषोत्तम की पूजा करने व श्रीमद्भागवत की कथाएँ सुनने, मन्त्र जाप, तप व तीर्थ यात्रा का भी बड़ा महत्व है। वास्तव में यह तो विष्णु और लक्ष्मी की पूजा एवं साधना करने का सर्वोत्तम मास है। इस महीने में पवित्र नदियों में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसी मान्यता है। अधिक मास में सात्विक भोजन, शाकाहारी भोजन, दूध, फल, वनस्पतियों, फलाहार, नारियल इत्यादि का सेवन करना चाहिए।

साधना विधान :-----------

          यह साधना आप पुरुषोत्तम मास में सम्पन्न करें, क्योंकि पुरुषोत्तम मास विष्णु साधना के लिए सर्वश्रेष्ठ है। वैसे तो विष्णु साधना केवल श्राद्धपक्ष को छोड़कर किसी भी शुभ मुहूर्त में, किसी भी रविवार या गुरुवार को आरम्भ की जा सकती है। साधना काल में हर रविवार को यह पूजा विधान अवश्य सम्पन्न करना चाहिए।     इस साधना में साधक के आसन  वस्त्र पीले रहेंगे और दिशा उत्तर होगी।

          इस साधना में मूल रूप स विष्णु यन्त्र आवश्यक है, जिसे लकड़ी के एक पट्टे (चौकी) पर पीला वस्त्र बिछाकर स्थापित करें और पूरे अनुष्ठान में उसी रूप में स्थापित रहने दें। इसे हटाना नहीं है। इसके अतिरिक्त अबीर, गुलाल, कुमकुम, केसर, चन्दन, मौलि, सुपारी तथा अर्पण हेतु प्रसाद आवश्यक है।

          इस साधना क्रम में विष्णु के सभी स्वरूपों का पूजन किया जाता है। यह पूजन करते हुए द्वादश कमल बीज चन्दन में डुबोकर भगवान विष्णु को अर्पित करना है। इसके लिए काफी मात्रा में चन्दन घिसकर पहले से ही रख लेना चाहिए।

          श्रीविष्णु की साधना में विनियोग, साधना तथा पंचावरण पूजा का विशेष विधान है। सभी दिशाओं में स्थित विष्णु स्वरूपों का पूजन किया जाता है, अतः इसे इसी रूप में सम्पन्न करना है। दाहिने हाथ से शरीर के अंगों को स्पर्श करना है, अर्पण भी दाहिने हाथ से ही किया जाता है, इस बात का विशेष ध्यान रहे।

विनियोग :-----------

          दाहिने हाथ में जल लेकर विनियोग मन्त्र का उच्चारण करें ------

         ॐ अस्य श्री द्वादशाक्षरमन्त्रस्य प्रजापतिः ऋषिः गायत्री छन्दः वासुदेव परमात्मा देवता सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनियोगः।

          और फिर जल को भूमि पर छोड़ दें।

ऋषयादि न्यास :-----------

ॐ प्रजापति ऋषये नमः शिरसि।       (सिर को स्पर्श करें)
गायत्री छन्दसे नमः मुखे।                 (मुख को स्पर्श करें)
वासुदेव परमात्मा देवतायै नमः हृदि।  (हृदय को स्पर्श करें)
विनियोगाय नमः सर्वांगे।                  (सभी अंगों को स्पर्श करें)

कर न्यास :-----------

ॐ अँगुष्ठाभ्याम् नमः।         (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठों को स्पर्श करें)
नमो तर्जनीभ्याम् नमः।          (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
भगवते मध्यमाभ्याम् नमः।      (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
वासुदेवाय अनामिकाभ्याम् नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय कनिष्ठिकाभ्याम् नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)

हृदयादि न्यास :-----------

ॐ हृदयाय नमः।           (हृदय को स्पर्श करें)
नमो शिरसे स्वाहा।         (सिर को स्पर्श करें)
भगवते शिखायै वषट्।         (शिखा को स्पर्श करें)
वासुदेवाय कवचाय हुम्।       (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अस्त्राय फट्। (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)

ध्यान :-----------

          हाथ जोड़कर वासुदेव स्वरूप भगवान विष्णु का ध्यान करें ------

ॐ विष्णुं शारद चन्द्रकोटि सदृश शंखं रथांगं गदाम्,
अम्भोजं दधतं सिताब्जनिलयं कान्त्या जगन्मोहनम्।
आबद्धांगदहारकुण्डल महामौलिं स्फुरत्कंकणम्,
श्रीवत्सांकमुदार कौस्तुभधरं वन्दे मुनिन्द्रैः स्तुतम्।।

पीठशक्ति पूजन

          अपने सामने जो यन्त्र स्थापना के लिए पीठ बनाई है, उस पर वस्त्र बिछाकर सबसे पहले पीठ पूजन किया जाता है और यह पूजन पूर्व दिशा से प्रारम्भ करते हुए आठ दिशाओं तथा अन्त में पीठ की मध्य दिशा का पूजन किया जाता है। यह क्रम निम्न प्रकार से  होगा, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक पीठशक्ति का ध्यान कर उस दिशा में पुष्प चढ़ाएं ------

ॐ विमलायै नमः।  (पूर्व में)
ॐ उत्कर्षिण्यै नमः।
ॐ ज्ञानायै नमः।
ॐ क्रियायै नमः।
ॐ योगायै नमः।
ॐ प्रहर्यै नमः।
ॐ सत्यायै नमः।
ॐ ईशानायै नमः।
ॐ अनुग्रहायै नमः।  (मध्य में)

          इस प्रकार नवपीठशक्तियों की पूजा करने के बाद यन्त्र स्थापना आरम्भ होती है। हाथ में पुष्प लेकर उसे चन्दन में डुबोकर पीठ के मध्य में आसन स्थापित करें और निम्न मन्त्र बोलते हुए यन्त्र को पुष्प के इस आसन पर स्थापित करें -----

ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय सर्वात्मसंयोगापद्मपीठात्मने नमः।

          इसके बाद यन्त्र का षोडशोपचार अथवा पंचोपचार पूजन करें। यथाशक्ति नेवैद्य अर्पित करें।

          तत्पश्चात यन्त्र पर द्वादश कमल बीज भगवान विष्णु के द्वादश स्वरूपों का ध्यान करते हुए अर्पित करना है। प्रत्येक कमल बीज को चन्दन में डुबोकर नीचे दिए गए प्रत्येक मन्त्र का उच्चारण करके यन्त्र पर अर्पित करते जाएं -----

ॐ ॐ केशवाय नमः  श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ नं नारायणाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ मों माधवाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ भं गोविन्दाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ गं विष्णवे नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ वं मधुसूदनाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ तें त्रिविक्रमाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ वां वामनाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ सुं श्रीधराय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ दें हृषीकेशाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ वां पद्मनाभाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ यं दामोदराय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।

          तदुपरान्त हाथ जोड़कर भगवान विष्णु को निम्न मन्त्रोच्चारण से नमस्कार करें -----

ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं, विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं, वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

          इस प्रकार प्रणाम करने के बाद शान्त भाव में बैठकर वैजयन्ती माला से निम्न मन्त्र का जाप करना चाहिए -----

मन्त्र :-----------

।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।

OM NAMO BHAGVATE VAASUDEVAAYA.

          मन्त्र जाप के बाद एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर समस्त जाप भगवान वासुदेव विष्णु को ही समर्पित कर दें।

          इस साधना में मन्त्र जाप की संख्या साधक की इच्छा पर निर्भर करती है और यह क्रम निरन्तर चलते रहना चाहिए। शास्त्रोक्त विधान है कि बारह अक्षर के इस मन्त्र का सम संख्या लक्ष अर्थात् बारह लाख मन्त्रों का जाप करने से साधक को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है तथा भगवान विष्णु की अभीष्ट कृपा सिद्धि से साधक मनोवांछित फल प्राप्त करता है। सब प्रकार के पाप दोष दूर होकर साधक श्रीविष्णु का तेज ग्रहण करने में समर्थ रहता है। यह साधना तो निश्चय ही सर्वोत्तम साधना है।

          वर्तमान समय में सामान्य साधक के लिए इतने अधिक मन्त्र जाप सम्भव नहीं है। इसलिए साधक सवा लाख मन्त्र जाप का संकल्प लें और ११, २१ अथवा २४ दिनों में मन्त्र जाप सम्पन्न कर लें।

          आपकी साधना सफल हो और मनोकामना पूर्ण हो! मैं सद्गुरुदेव भगवान परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

  नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश  आदेश।।।

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

नृसिंह बीजमन्त्र साधना

नृसिंह बीजमन्त्र साधना


            नृसिंह जयन्ती समीप ही है। यह २८ अप्रैल २०१८ को आ रही है। आप सभी को नृसिंह जयन्ती की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

          जिस प्रकार से पुनर्जन्म का विश्वास हिन्दू धर्म का एक मूलभूत विश्वास है, उसी प्रकार से इस बात में भी दृढ़ आस्था है कि ईश्वर अपने भक्तों के कष्ट निवारणार्थ समय-समय पर अवतार धारण कर उन्हें पाप-ताप-सन्ताप से मुक्त करने की क्रिया करते हैं। यह भी हिन्दू धर्म का एक आधारभूत विश्वास है। दोनों ही विश्वासों के पीछे जो मुख्य तथ्य है, वह यही है कि भारतीय चिन्तन में कभी भी ईश्वर से अलगाव की कल्पना तक नहीं की गई है।

          जिस प्रकार जीवन एक सहज घटना है, उसी प्रकार ईश्वर का निश्चित कालावधि में अवतरण भी एक सतत घटना है, जो मत्स्यावतार से लेकर इस कलियुग में होने वाले कल्कि अवतार तक पुराणादि शास्त्रों में विस्तार से वर्णित है। जैसा कि लोक श्रुतियों में मान्य है कि जब यह धरा ढाई हज़ार वर्ष तक तपस्या करती है, तब ईश्वर युग के अनुरूप स्वरूप ग्रहण कर इस धरा पर अवतरण के माध्यम से अपने भक्तों का कल्याण करते हैं तथा उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिलाने के उपाय सृजित करते हैं।

          वस्तुतः प्रत्येक अवतरण का एक निश्चित अर्थ रहा है और सामान्य लोक-विश्वास से पृथक (कि ईश्वर ऐसा प्राणी मात्र के उद्धार के लिए करते हैं) अवतरण की घटना के विशिष्ट अर्थ भी होते हैं। प्रत्येक अवतरण किसी एक या दो भक्त की विपत्ति में रक्षा करने अथवा उसके उद्धार तक सीमित न रहकर अनेक गूढ़ सन्देश भी छिपाए हुए होता है। यद्यपि पौराणिक कथाओं से अभिव्यक्त ऐसा ही होता है, मानो ईश्वर ने किसी भक्त विशेष की पुकार पर इस धरा पर आना स्वीकार किया और यही बात भगवान श्रीविष्णु के नृसिंहावतार के सन्दर्भ में भी पूर्ण प्रासंगिक है।

          पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगवान ब्रह्मा के दो द्वारपालों ने एक बार ब्रह्माजी की आज्ञा से परिपालन के क्रम में भगवान ब्रह्मा के चार प्रथम मानस पुत्रों में से एक को भीतर प्रवेश करने से वर्जित कर दिया, जिससे उन्होंने क्रोधित होकर दोनों को राक्षस योनि में चले जाने का श्राप दे दिया। बाद में क्रोध शान्त होने व वास्तविकता का ज्ञान होने पर उन्होंने द्वारपालों की प्रार्थना पर उन्हें वरदान दिया कि यद्यपि उनका वचन मिथ्या नहीं हो सकता, अतः वे राक्षस योनि में तो जाएंगे ही, किन्तु उनका वध स्वयं भगवान विष्णु के हाथों से होने के कारण वे मुक्त होकर परमपद की प्राप्ति कर सकेंगे।

          कालान्तर में ये दोनों द्वारपालों ने ही क्रमशः हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकश्यप के रूप जन्म लिया, जिनके अत्याचारों से सारी पृथ्वी ही नहीं, देवलोक आदि तक त्राहि-त्राहि करने लगे, जिन्हें समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने दो बार अवतार लिए। हिरण्याक्ष को समाप्त करने के लिए वाराह अवतार तथा हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिए नृसिंह अवतार इसी कारणवश सम्भव हुए।

          पौराणिक गाथाओं की कथात्मक शैली में क्या तथ्य छुपे होते हैं अथवा क्या वे केवल विशिष्ट घटनाओं का कथात्मक विस्तार भर होती है, यह तो पृथक विवेचना और चिन्तन की बात है, किन्तु जैसा कि प्रारम्भ में कहा कि प्रत्येक अवतरण स्वयं में एक सन्देश भी निहित रखता है। उसी क्रम में चिन्तन करने पर स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि भगवान श्रीविष्णु के इस विशिष्ट अवतरण, नृसिंह अवतरण का भी एक गूढ़ सन्देश है और वह सन्देश है, "नृ" अर्थात मनुष्य को "सिंह" अर्थात पराक्रमी बनने का सन्देश।

          वास्तव में जीवन तो उसका कहा जा सकता है, जो अपने जीवन के लक्ष्यों को सिंह की भाँति झपट कर प्राप्त करने की क्षमता से युक्त हो। वन्य प्राणियों में सर्वाधिक ओजस्वी पशु सिंह को ही माना गया है, जो अनायास कभी किसी पर हमला करता ही नहीं, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर अथवा क्रुद्ध हो जाने पर जब वह हुंकार भर कर खड़ा हो जाता है तो अन्य छोटे-छोटे जानवरों की कौन कहे, मस्त गैराज भी कतरा कर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझते हैं। ऋषियों ने भी पुरुष की इसी "सिंहवत" रूप में कल्पना की थी। "सिंहवत" बनना केवल शौर्य प्रदर्शन की ही एक घटना नहीं होती वरन् "सिंहवत" बनना इस कारण से भी आवश्यक है कि केवल इसी प्रकार का स्वरूप ग्रहण करके ही जीवन की गति को सुनिर्धारित किया जा सकता है, अन्यथा एक-एक आवश्यकता केवल लिए वर्षों घिसट कर उसे प्राप्त करने में जीवन का सारा सौन्दर्य, सारा रस समाप्त हो जाता है।

          भगवान  विष्णु ने तो एक ही हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिए नृसिंह स्वरूप में, पौराणिक गाथाओं के अनुसार अवतरण किया था, किन्तु मनुष्य के जीवन में तो प्रतिदिन नूतन राक्षस आते रहते हैं, जो हिरण्यकश्यप की ही भाँति अस्पष्ट होते हैं। यह अस्पष्ट ही होता है कि उनका समापन कैसे सम्भव हो? उनसे मुक्ति पाने का क्या उपाय हो सकता है?

          और  यह भी सत्य है कि यदि जीवन में अभाव, तनाव, पीड़ा (शारीरिक, मानसिक अथवा दोनों), दारिद्रय जैसे राक्षसों से एक-एक करके निपटने का चिन्तन किया जाए तो मनुष्य की आधी से अधिक क्षमता तो इसी विचार-विमर्श में निकल जाती है, शेष जो बचती है वह किसी भी प्रयास को सफल नहीं होने देती। साथ ही जीवन के ऐसे राक्षसों से तो केवल सामान्य प्रयास से ही नहीं वरन् ऐसे क्षमता युक्त प्रयास से जूझना आवश्यक होता है, जो साक्षात नरकेसरी की ही क्षमता हो। तभी जीवन में कुछ ऐसा घटित हो सकता है, जिस पर गर्वित हुआ जा सकता है।

           सामान्यतः साधना का क्षेत्र दुष्कर प्रतीत होता है, क्योंकि साधना जीव को वास्तविकताओं यथावत प्रस्तुतिकरण व विवेचन कर देती है। उसमें भक्ति जगत की भाँति दिवास्वप्नों की मधुर लहर नहीं होती है, किन्तु अन्ततोगत्वा व्यक्ति का हित, साधना से ही साधित होता है, क्योंकि साधना जीवन की कटु वास्तविकताओं का यथावत वर्णन करने के साथ-साथ उससे मुक्त होने का उपाय भी वर्णित करती चलती है। वस्तु-स्थितियों का विवेचन इस कारणवश आवश्यक होता है, जिससे  साधक के मन में एक सुस्पष्ट धारणा बन सके कि अन्ततोगत्वा उसकी समस्या क्या है? किस प्रकार से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है?

           यहाँ नृसिंहावतार की संक्षिप्त व्याख्या से भी यही तात्पर्य था और साधकों  को सुविधार्थ उस साधना विधि का प्रस्तुतिकरण किया जा रहा है, जो इस व्याख्या को पूर्णता देने की क्रिया है अर्थात केवल वर्णन-विवेचन नहीं, वह उपाय भी प्रस्तुत करने का प्रयास है, जिसके माध्यम से कोई भी साधक अपने जीवन को सँवारता हुआ, अपनी रग-रग में सिंह की ही लपक और शौर्य को भरता हुआ जीवन की उन समस्याओं पर झपट्टा मार सकता है, जो नित नए स्वरूप में आती रहती है। यह भी जीवन का कटु सत्य है कि जब तक जीवन रहेगा, तब तक समस्याएँ भी आएंगी ही, लेकिन जो साधक दृढ़ निश्चयी होते हैं, जिनके मन में सर्वोच्च बनने का भाव हिलोरे ले रहा होता है, वे ही अवश्यमेव ऐसी साधना सम्पन्न कर अपने जीवन को एक नया ओज व क्षमता देते हैं, जैसा कि नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत साधना विधि की भावना है।

          भगवान् नृसिंह विष्णु जी के सबसे उग्र अवतार माने जाते हैं जितने उग्र नृसिंह भगवान् हैं, उतनी ही उग्र उनकी साधना है। नृसिंह भगवान् के जाप से शत्रुओं का नाश होता है और मुक़दमे आदि में विजय मिलती है। यदि आप के किसी सगे-सम्बन्धी पर किसी ने वशीकरण कर दिया हो या आपका कोई मित्र या सगा-सम्बन्धी किसी परायी स्त्री के जाल में फँस गया हो अथवा आपके परिवार की स्त्री किसी पर-पुरुष के चक्कर में हो तो इस साधना को ज़रूर करें।

         यदि किसी ने आपके विरुद्ध कोई षडयन्त्र रच दिया हो या कोई आपके खिलाफ़ झूठी गवाही दे रहा हो तो उस समय भगवान् नृसिंह को याद करे और विश्वास कीजिए, भगवान् नृसिंह आपकी सहायता उसी प्रकार करेंगे, जिस प्रकार उन्होंने भक्त प्रहलाद की थी। ऐसा कौन-सा फल है, जो भगवान् नृसिंह की आराधना से ना मिलता हो, क्योंकि भगवान् नृसिंह का उपासक सभी सुखों को भोग कर वैकुण्ठ को जाता है।

साधना विधान :----------

          यह साधना आप नृसिंह जयन्ती से आरम्भ करें। इसके अलावा इसे किसी भी रविवार से शुरू किया जा सकता है। साधक इसमें वस्त्र आदि का रंग काला रखें तथा साधक मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए। साधक अपने सामने किसी बाजोट पर काला वस्त्र बिछाकर उस पर नृसिंह यन्त्र अथवा चित्र स्थापित करें और धूप-अगरबत्ती प्रज्ज्वलित करके घी का दीया जला दें।

          साधक सबसे पहले पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का सामान्य पूजन करे और फिर गुरुमन्त्र का चार माला जाप करे। तत्पश्चात सद्गुरुदेवजी से नृसिंह बीजमन्त्र साधना सम्पन्न करने के लिए मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लेकर उनसे साधना की सफलता हेतु प्रार्थना करें।

          इसके बाद भगवान गणपतिजी का स्मरण करके "ॐ वक्रतुण्डाय हुम् फट्" मन्त्र का एक माला जाप करें और फिर गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।

          तदुपरान्त साधक को चाहिए कि वह साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य करें। दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि "मैं अमुक नाम का साधक गोत्र अमुक परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी का शिष्य आज से नृसिंह बीजमन्त्र साधना शुरू कर रहा हूँ। मैं नित्य ११ दिनों तक १२५ माला जाप करूँगा। हे! भगवन्, आप मेरी साधना को स्वीकार कर मुझे इस मन्त्र की सिद्धि प्रदान करें और इसकी ऊर्जा को मेरे भीतर स्थापित कर दें।"

          इसके बाद साधक हाथ के जल को भूमि पर छोड़ दें।

          फिर साधक भगवान नृसिंह का सामान्य पूजन करे और दो लड्डू, दो लौंग, दो मीठे पान एवं एक नारियल भगवान नृसिंहजी को पहले तथा आखिरी दिन भेंट चढ़ाएं, जिन्हें अगले दिन किसी विष्णु मन्दिर में चढ़ा आएं।

          फिर निम्न विनियोग मन्त्र का उच्चारण करके एक आचमनी जल भूमि पर छोड़ दें -----

विनियोग :----------

          ॐ अस्य श्रीनृसिंह एकाक्षरमन्त्रस्य अत्रिः ऋषिः गायत्री छन्दः श्रीनृसिंहो देवता आत्मनोSभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास :----------

ॐ अत्रि ऋषये नमः शिरसि।        (सिर को स्पर्श करें)
ॐ गायत्री छन्दसे नमः मुखे।       (मुख को स्पर्श करें)
ॐ श्रीनृसिंह देवतायै नमः हृदि।       (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ विनियोगाय नमः सर्वांगे।        (सभी अंगों को स्पर्श करें)

कर न्यास :----------

ॐ क्ष्रां अँगुष्ठाभ्याम् नमः।      (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रीं तर्जनीभ्याम् नमः।       (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रूं मध्यमाभ्याम् नमः।      (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रैं अनामिकाभ्याम् नमः।       (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रौं कनिष्ठिकाभ्याम् नमः।    (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रः करतलकर पृष्ठाभ्याम् नमः।  (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)

हृदयादि न्यास :----------

ॐ क्ष्रां हृदयाय नमः।         (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रीं शिरसे स्वाहा।          (सिर को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रूं शिखायै वषट्।          (शिखा को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रैं कवचाय हूम्।          (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।         (नेत्रों को स्पर्श करें)
ॐ क्ष्रः अस्त्राय फट्।                 (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)


ध्यान :----------

          हाथ जोड़कर भगवान नृसिंहजी का ध्यान करें -----

ॐ तपन सोम हुताशन लोचनं घनविराम हिमांशु समप्रभम्।
    अभयचक्र पिनाकवरान्करैः दधतमिन्दुधरं नृहरिं भजे।।

नृसिंह बीजमन्त्र :----------

         फिर निम्न मन्त्र का १२५ माला काली हकीक माला से जाप करें -----

          ।। क्ष्रौं ।।

          KSHROUM.

          साधना काल में घी का दीपक लगातार जलते रहना चाहिए।

          मन्त्र जाप के उपरान्त साधक एक आचमनी जल छोड़कर समस्त जाप भगवान नृसिंहजी को ही समर्पित कर दें। इस प्रकार यह साधना ११ दिनों तक नित्य सम्पन्न करें।

          साधना के उपरान्त यन्त्र को जल में विसर्जित कर दें और चित्र को पूजाघर में स्थापित कर दें।
        
          बीज मन्त्र भी पूर्ण प्रभावी होते हैं और कौल मार्ग तो बीज मन्त्रों पर ही टिका हुआ है। कौल मार्ग में बीज मन्त्रों के द्वारा ही साधक इष्ट सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, क्योंकि पूरे का पूरा वृक्ष एक बीज में ही छिपा होता है। बीज मन्त्र सतयुग में सवा लाख जप करने से सिद्ध हो जाते थे, त्रेतायुग में दोगुना जप करने से सिद्ध होते थे, वहीं द्वापर में तिगुना जप करने पर सिद्ध हो जाते थे और कलयुग में चौगुना करने पर सिद्ध हो जाते हैं।

          आपकी साधना सफल हो और भगवान नृसिंह आपका कल्याण करे! मैं सद्गुरुदेव भगवानजी से आप सबके लिए मंगल कामना करता हूँ।

         इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल गुरुजी को आदेश आदेश आदेश ।।।