बुधवार, 12 दिसंबर 2018

श्रीदत्तात्रेय वज्र पंजर कवच सिद्धि

श्रीदत्तात्रेय वज्र पंजर कवच सिद्धि


          भगवान श्रीदत्तात्रेय जयन्ती निकट ही है। यह इस बार २२ दिसम्बर २०१८ को आ रही है। आप सभी को भगवान श्रीदत्तात्रेय जयन्ती की अग्रिम रूप से बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ!

          भगवान दत्तात्रेय की जयन्ती मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है। दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं, इसीलिए उन्हें 'परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु'और 'श्रीगुरुदेवदत्त' भी कहा जाता हैं। उन्हें गुरु वंश का प्रथम गुरु, साधक, योगी और वैज्ञानिक माना जाता है। हिन्दू मान्यताओं अनुसार दत्तात्रेय ने पारद से व्योमयान उड्डयन की शक्ति का पता लगाया था और चिकित्सा शास्त्र में क्रान्तिकारी अन्वेषण किया था।

          हिन्दू धर्म के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के लिए ही भगवान दत्तात्रेय ने जन्म लिया था, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का स्वरूप भी कहा जाता है। दत्तात्रेय को शैवपन्थी शिव का अवतार और वैष्णवपन्थी विष्णु का अंशावतार मानते हैं। दत्तात्रेय को नाथ सम्प्रदाय की नवनाथ परम्परा का भी अग्रज माना है। यह भी मान्यता है कि रसेश्वर सम्प्रदाय के प्रवर्तक भी दत्तात्रेय थे। भगवान दत्तात्रेय से वेद और तन्त्र मार्ग का विलय कर एक ही सम्प्रदाय निर्मित किया था।

          भगवान दत्तात्रेय ने जीवन में कई लोगों से शिक्षा ली। दत्तात्रेय ने अन्य पशुओं के जीवन और उनके कार्यकलापों से भी शिक्षा ग्रहण की। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि जिससे जितना-जितना गुण मिला है, उनको उन गुणों को प्रदाता मानकर उन्हें अपना गुरु माना है, इस प्रकार मेरे 24 गुरु हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, सिन्धु, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग, मीन, पिंगला, कुररपक्षी, बालक, कुमारी, सर्प, शरकृत, मकड़ी और भृंगी।

          ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या और सांख्यशास्त्र के प्रवक्ता कपिलदेव की बहन सती अनुसूया इनकी माता थीं। श्रीमद्भागवत में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूया के यहाँ त्रिदेवों के अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है।

          पुराणों के अनुसार इनका तीन मुख, छह हाथ वाला त्रिदेवमयस्वरूप है। चित्र में इनके पीछे एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। औदुम्बर वृक्ष के समीप इनका निवास बताया गया है। विभिन्न मठ, आश्रम और मन्दिरों में इनके इसी प्रकार के चित्र का दर्शन होता है।

          यहाँ पर श्रीदत्तात्रेय वज्र पंजर कवच दिया जा रहा है। इस कवच का वर्णन श्रीरुद्रयामल तन्त्र के हिमवत्खण्ड में उमामहेश्वर संवाद के रूप में आया है। इस वज्र पंजर कवच की उपासना सर्वप्रथम स्वयं भगवान शिव ने अपने किरातरूपी महारुद्र अवतार रूप में सम्पन्न की है। इस कवच के माध्यम से ही महर्षि दधीचि ने अपने शरीर को वज्रवत बना लिया था एवं जिनके अस्थियों के द्वारा देवराज इन्द्र को वज्रास्त्र प्राप्त हुआ था। ब्रह्माण्ड के समस्त गुरु मण्डल भगवान महाअवधूत श्री दत्तत्रेय के अधीन हैं व उनके द्वारा ही संचालित और संरक्षित हैं।

         अतः इस स्त्रोत के बारे में कुछ भी कहना साक्षात सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर है। परन्तु फिर भी इसके फलश्रुति खण्ड का, जो स्वयं भगवान शिव माता भवानी से कहते हैं, मैं सरलार्थ कर यहाँ दे रहा हूँ -----

                    “इस कवच का जो भी पाठ या श्रवण करते हैं, वे वज्रदेही और दीर्घायु होते हैं। समस्त सुख-दुःखों से परे होकर जीवन्मुक्त हो जाते हैं, सर्वत्र सभी संकल्प सिद्ध होते हैं। धर्मार्थकाममोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रेष्ठ वाहनादि व सर्वैश्वर्य प्राप्त होता है। वेदादि शास्त्रों का मर्मज्ञ होता है। यह कवच बुद्धि, विद्या, प्रज्ञादि व सर्वसन्तोषों का कारक है। सर्वदुःखों का निवारक, शत्रुनिवारक और शीघ्र यशकीर्ति की वृद्धि करनेवाला है। मन्त्रतन्त्रादि कुयोगों से उत्पन्न, ब्रह्मराक्षसादि ग्रहोद्भव, देशकालस्थान से उत्पन्न तापत्रय और नवग्रह से होने वाले महापातकों एवं सर्वप्रकार के रोगों का नाश इस कवच के १०,००० पाठ से हो जाता है।

कवच साधना विधि :------

           इस साधना को श्रीदत्तात्रेय जयन्ती अथवा किसी भी गुरुवार से प्रारम्भ किया जा सकता है। सर्वप्रथम साधक स्नान आदि से निवृत्त होकर पीले वस्त्र धारणकर पीले आसन पर बैठ जाए। दिशा उत्तर या पूर्व ही उचित रहेगी। अपने सामने बाजोट पर पीला वस्त्र बिछाकर साधक उस पर सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी का चित्र अथवा गुरु यन्त्र स्थापित करे। घी या तेल का दीपक जलाकर साथ ही धूप-अगरबत्ती भी जला ले।

         फिर साधक सामान्य गुरुपूजन सम्पन्न करे और गुरुमन्त्र की कम से कम चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से श्रीदत्तात्रेय वज्र पंजर कवच साधना सम्पन्न करने की आज्ञा लें और उनसे साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना करें।

         इसके बाद संक्षिप्त गणेशपूजन सम्पन्न कर गणेशमन्त्र की एक माला जाप करें और भगवान गणेशजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना करें।

         फिर साधक को साधना के पहिले दिन संकल्प अवश्य लेना चाहिए। साधक दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि मैं अमुक नाम का साधक गोत्र अमुक आज से श्रीदत्तात्रेय वज्र पंजर कवच के १००० पाठ का अनुष्ठान आरम्भ कर रहा हूँ। भगवान श्रीदत्तात्रेयजी मेरी साधना को स्वीकार कर श्रीदत्तात्रेय वज्र पंजर कवच की सिद्धि प्रदान करे तथा इसकी ऊर्जा को मेरे भीतर स्थापित कर दे।

         ऐसा कहकर जल भूमि पर छोड़ दे और कवच पाठ आरम्भ करें -----

श्री दत्तात्रेय वज्र पंजर कवचम्

विनियोग :----------

          ॐ अस्य श्रीदत्तात्रेय वज्र पंजर कवच स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकिरातरूपी महारुद्र ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री दत्तात्रेयो देवता, द्रां बीजं, आं शक्तिः, क्रौं कीलकं, ॐ आत्मने नमः। ॐ द्रीं मनसे नमः। ॐ आं द्रीं श्रीं सौः ॐ क्लां क्लीं क्लूं क्लैं क्लौं क्लः। श्री दत्तात्रेय प्रसाद सिद्धयर्थे समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास :----------

श्रीकिरातरूपी महारुद्र ऋषये नमः शिरसि।   (सिर को स्पर्श करें)
अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे।           (मुख को स्पर्श करें)
श्री दत्तत्रेयो देवतायै नमः हृदि।     (हृदय को स्पर्श करें)
द्रां बीजाय नमः गुह्ये।                (गुह्य स्थान को स्पर्श करें)     
आं शक्तये नमः नाभौ।              (नाभि को स्पर्श करें) 
क्रौं कीलकाय नमः पादयोः।      (दोनों पैरों को स्पर्श करें)
श्री दत्तात्रेय प्रसाद सिद्ध्यर्थे समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगाय नमः अंजलौ।    (पूरे शरीर को स्पर्श करें)

करन्यास :----------

ॐ द्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।        (दोनों तर्जनी अँगुलियों से दोनों अँगूठों को स्पर्श करें) 
ॐ द्रीं तर्जनीभ्यां नमः।        (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी अँगुलियों को स्पर्श करें) 
ॐ द्रूं मध्यमाभ्यां नमः।        (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा अँगुलियों को स्पर्श करें)
ॐ द्रैं अनामिकाभ्यां नमः।    (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका अँगुलियों को स्पर्श करें)  
ॐ द्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।    (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका अँगुलियों को स्पर्श करें) 
ॐ द्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।    (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)

ह्र्दयादिन्यास :----------

ॐ द्रां ह्रदयाय नमः।          (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ द्रीं शिरसे स्वाहा।         (सिर को स्पर्श करें)
ॐ द्रूं शिखायै वषट्।         (शिखा को स्पर्श करें)
ॐ द्रैं कवचाय हुं।            (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ द्रौं नेत्रत्रयाय वौषट।     (नेत्रों को स्पर्श करें)
ॐ द्रः अस्त्राय फट्।         (दाहिने हाथ को सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)

ध्यानम् :------------

जगदंकुरकन्दाय सच्चिदानन्द मूर्तये।
दत्तात्रेयाय योगीन्द्रचन्द्राय परमात्मने॥
कदा योगी कदा भोगी कदा नग्नः पिशाचवत्।
दत्तात्रेयो हरिः साक्षाद् भुक्तिमुक्ति प्रदायकः॥
वाराणसीपुर स्नायी कोल्हापुर जपादरः।
माहुरीपुर भिक्षाशी सह्यशायी दिगम्बरः॥
इन्द्रनील समाकारः चन्द्रकान्तसम द्युतिः।
वैडूर्यसदृश स्फूर्तिः चलत्किंचित जटाधरः॥
स्निग्धधावल्य युक्ताक्षोऽत्यन्त नीलकनीनिकः।
भ्रूवक्षः श्मश्रु नीलांकः शशांक सदृशाननः॥
हासनिर्जित नीहारः कण्ठनिर्जित कम्बुकः।
मांसलांसो दीर्घबाहुः पाणिनिर्जित पल्लवः॥
विशाल पीनवक्षाश्च ताम्रपाणिर्दलोदरः।
पृथुल श्रोणि ललितो विशाल जघनस्थलः॥
रम्भास्तम्भोपमानः ऊरूर्जानु पूर्वैकजंघकः।
गूढ़गुल्फः कूर्मपृष्ठो लसत् पादोपरिस्थलः॥
रक्तारविन्द सदृश रमणीय पदाधरः।
चर्माम्बरधरो योगी स्मर्तृगामी क्षणे क्षणे॥
ज्ञानोपदेश निरतो विपद्धरण दीक्षितः।
सिद्धासन समासीन ऋजुकायो हसन्मुखः॥
वामहस्तेन वरदो दक्षिणेन् अभयं करः।
बालोन्मत्त पिशाचीभिः क्वचिद् युक्तः परीक्षितः॥
त्यागी भोगी महायोगी नित्यानन्दो निरंजनः।
सर्वरूपी सर्वदाता सर्वगः सर्वकामदः॥
भस्मोद्धूलित सर्वांगो महापातकनाशनः।
भुक्तिप्रदो मुक्तिदाता जीवन्मुक्तो न संशयः॥
एवं ध्यात्वा अनन्यचित्तो मद् वज्रकवचं पठेत्।
मामेव पश्यन् सर्वत्र स मया सह संचरेत्॥
दिगम्बरं भस्म सुगन्धलेपनं चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदायुधम्।
पद्मासनं योगिमुनीन्द्र वन्दितं दत्तेति नाम स्मरणेन् नित्यम्॥

मूल कवचम् :----------

ॐ दत्तात्रेयः शिरः पातु सहस्राब्जेषु संस्थितः ।
भालं पातु अनसूयेयः चन्द्रमण्डल मध्यगः ॥१॥
कूर्चं मनोमयः पातु हं क्षं व्दिदल पद्मभूः।
ज्योतिरूपो अक्षिणी पातु पातु शब्दात्मकः श्रुतिः ॥२॥
नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मकः।
जिह्वां वेदात्मकः पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिकः ॥३॥
कपोलावत्रिभूः पातु पातु अशेषं ममात्मवित्।
स्वरात्मा षोडशाराब्ज स्थितः स्वात्मा अवताद् गलम् ॥४॥
स्कन्धौ चन्द्रानुजः पातु भुजौ पातु कृतादिभूः।
जत्रुणी शत्रुजित पातु पातु वक्षः स्थलं हरिः ॥५॥
कादिठान्त द्वादशार पद्मगो मरुदात्मकः।
योगीश्वरेश्वरः पातु हृदयं हृदय स्थितः ॥६॥
पार्श्वे हरिः पार्श्ववर्ती पातु पार्श्वस्थितः स्मृतः।
हठयोगादि योगज्ञः कुक्षी पातु कृपानिधिः ॥७॥
डकारादि फकारान्त दशार सरसीरुहे।
नाभिस्थले वर्तमानो नाभिं वह्न्यात्मकोऽवतु ॥८॥
वह्नि तत्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूरकम्।
कटिं कटिस्थ ब्रह्माण्ड वासुदेवात्मकोऽवतु ॥९॥
बकारादि लकारान्त षट्पत्राम्बुज बोधकः।
जल तत्वमयो योगी स्वाधिष्ठानं ममावतु ॥१०॥
सिद्धासन समासीन ऊरू सिद्धेश्वरोऽवतु।
वादिसान्त चतुष्पत्र सरोरुह निबोधकः ॥११॥
मूलाधारं महीरूपो रक्षताद् वीर्यनिग्रही।
पृष्ठं च सर्वतः पातु जानुन्यस्तकराम्बुजः ॥१२॥
जंघे पातु अवधूतेन्द्रः पात्वंघ्री तीर्थपावनः।
सर्वांगं पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशवः ॥१३॥
चर्म चर्माम्बरः पातु रक्तं भक्तिप्रियोऽवतु।
मांसं मांसकरः पातु मज्जां मज्जात्मकोऽवतु ॥१४॥
अस्थीनि स्थिरधीः पायान्मेधां वेधाः प्रपालयेत्।
शुक्रं सुखकरः पातु चित्तं पातु दृढ़ाकृतिः ॥१५॥
मनोबुद्धिं अहंकारं हृषिकेशात्मकोऽवतु।
कर्मेन्द्रियाणि पात्वीशः पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यजः ॥१६॥
बन्धून् बन्धूत्तमः पायात् शत्रुभ्यः पातु शत्रुजित्।
गृहाराम धनक्षेत्र पुत्रादीन् शंकरोऽवतु ॥१७॥
भार्यां प्रकृतिवित् पातु पश्वादीन् पातु शांर्गभृत्।
प्राणान्पातु प्रधानज्ञो भक्ष्यादीन् पातु भास्करः ॥१८॥
सुखं चन्द्रात्मकः पातु दुःखात् पातु पुरान्तकः।
पशून् पशुपतिः पातु भूतिं भूतेश्वरो मम् ॥१९॥
प्राच्यां विषहरः पातु पातु आग्नेयां मखात्मकः।
याम्यां धर्मात्मकः पातु नैर्ऋत्यां सर्ववैरिहृत् ॥२०॥
वराहः पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोऽवतु।
कौबेर्यां धनदः पातु पातु ऐशान्यां महागुरुः ॥२१॥
ऊर्ध्वं पातु महासिद्धः पातु अधस्ताद् जटाधरः।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षतु आदिमुनीश्वरः ॥२२॥

फलश्रुति :----------

एतन्मे वज्रकवचं यः पठेच्छृणुयादपि ।
वज्रकायः चिरंजीवी दत्तात्रेयो अहमब्रुवम् ॥२३॥
त्यागी भोगी महायोगी सुखदुःख विवर्जितः ।
सर्वत्र सिद्धिसंकल्पो जीवन्मुक्तोऽथ वर्तते ॥२४॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे योगी दत्तात्रेयो दिगम्बरः ।
दलादनोऽपि तज्जपत्वा जीवन्मुक्तः स वर्तते ॥२५॥
भिल्लो दूरश्रवा नाम तदानीं श्रुतवानिदम् ।
सकृच्छ्र्वणमात्रेण वज्रांगोऽभवदप्यसौ ॥२६॥
इत्येतद वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य योगिनः ।
श्रुत्वाशेषं शम्भुमुखात् पुनरप्याह पार्वती ॥२७॥
एतत् कवचं माहात्म्यं वद विस्तरतो मम् ।
कुत्र केन कदा जाप्यं किं यज्जाप्यं कथं कथम् ॥२८॥
उवाच शम्भुस्तत्सर्वं पार्वत्या विनयोदितम् ।
श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि समाहितमनाविलम् ॥२९॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां इदमेव परायणम् ।
हस्त्यश्वरथपादाति सर्वैश्वर्य प्रदायकम् ॥३०॥
पुत्रमित्रकलत्रादि सर्वसन्तोष साधनम् ।
वेदशास्त्रादि विद्यानां निधानं परमं हि तत् ॥३१॥
संगीतशास्त्रसाहित्य सत्कवित्व विधायकम् ।
बुद्धि विद्या स्मृतिप्रज्ञां अतिप्रौढिप्रदायकम् ॥३२॥
सर्वसन्तोष करणं सर्व दुःख निवारणम् ।
शत्रु संहारकं शीघ्रं यशः कीर्तिविवर्धनम् ॥३३॥
अष्टसंख्या महारोगाः सन्निपातः त्रयोदशः ।
षण्णवत्यक्षिरोगाश्च विंशतिर्मेहरोगकाः ॥३४॥
अष्टादश तु कुष्ठानि गुल्मानि अष्टविधान्यपि । 
अशीतिर्वातरोगाश्च चत्वारिंश्त्तु पैत्तिकाः ॥३५॥
विंशति श्लेष्मरोगाश्च क्षयचातुर्थिकादयः ।
मन्त्रयन्त्रकुयोगाद्याः कल्पतन्त्रादि निर्मिताः ॥३६॥
ब्रह्मराक्षस वेतालकूष्माण्डादि ग्रहोद्भवाः ।
संगजा देशकालस्थान तापत्रयसमुत्थिताः ॥३७॥
नवग्रह समुद्भूता महापातक सम्भवाः ।
सर्वे रोगाः प्रणश्यन्ति सहस्रावर्तनाद् ध्रुवम् ॥३८॥
अयुतावृत्ति मात्रेण वन्ध्या पुत्रवति भवेत् ।
अयुतद्व हि अपमृत्युर्जयो भवेत् ॥३९॥
अयुत त्रितयाच्चैव खेचरत्वं प्रजायते ।
सहस्रादयुतादर्वाक् सर्वकार्याणि साधयेत् ॥४०॥
लक्षावृत्त्या कार्यसिद्धिः भवत्येव न संशयः ।
विषवृक्षस्य मूलेषु तिष्ठन् वै दक्षिणामुखः ॥४१॥
कुरुते मासमात्रेण वैरिणं विकलेन्द्रियम् ।
औदुम्बर तरोर्मूले वृद्धिकामेन् जाप्यते ॥४२॥
श्रीवृक्षमूले श्रीकामी तिंतिणी शांतिकर्मणि ।
ओजस्कामो अश्वत्थमूले स्त्रीकामैः सहकारके ॥४३॥
ज्ञानार्थी तुलसीमूले गर्भगेहे सुतार्थिभिः ।
धनार्थिभिस्तु सुक्षेत्रे पशुकामैस्तु गोष्ठके ॥४४॥
देवालये सर्वकामैस्तत्काले सर्वदर्शितम ।
नाभिमात्रजले स्थित्वा भानुम् आलोक्य यो जपेत् ॥४५॥
युद्धे वा शास्त्रवादे वा सहस्त्रेण जयो भवेत् ।
कंठमात्रे जले स्थित्वा यो रात्रौ कवचं पठेत् ॥४६॥
ज्वरापस्मार कुष्ठादि तापज्वर निवारणम् ।
यत्र यत्स्यात्स्थिरं यद्यत्प्रसन्नं तन्निवर्तते॥४७॥
तेन् तत्र हि जप्तव्यं ततः सिद्धिर्भवेद् ध्रुवं ।
इत्युक्त्वान् च शिवो गौर्ये रहस्यं परमं शुभम् ॥४८॥
यः पठेत् वज्रकवचं दत्तात्रेयो समो भवेत् ।
एवं शिवेन् कथितं हिमवत्सुतायै प्रोक्तम् ॥४९॥
दलादमुनये अत्रिसुतेन पूर्वम् यः कोअपि वज्रकवचं।
पठतीह लोके दत्तोपमश्चरति योगिवरश्चिरायुः॥५०॥

॥ हरिः ॐ तत्सत् श्री सदगुरुः महावधूत दत्त ब्रह्मार्पणमस्तु ॥

कवच पाठ विधि :-----------

          पहले पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच का पाठ करें और अन्तिम पाठ में पुनः मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप १००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को आप ५ बार सम्पन्न करें तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जायेंगे। प्रत्येक १००० पाठ की समाप्ति पर दशांश हवन करें और एक कुँवारी कन्या को भोजन वस्त्रादि प्रदान करें।

कवच प्रयोग विधि :-----------

          नित्य किसी भी पूजन या साधना को करने से पूर्व और अन्त में आप कवच का ५ बार पाठ करें। रोगयुक्त अवस्था में या यात्राकाल में स्तोत्र को मानसिक रूप से भावना पूर्वक स्मरण कर लें।

          इसी तरह यदि आप श्मशान में किसी साधना को कर रहें हों तो एक लोहे की छ्ड़ को कवच से २१ बार अभिमन्त्रित कर अपने चारों ओर घेरा बना लें और साधना से पूर्व व अन्त में कवच का ५-५ बार पाठ कर लें।

          जब कवच सिद्धि की साधना कर रहे हो, उस समय एक लोहे की छ्ड़ को भी गुरु चित्र या यन्त्र के सामने रख सकते हैं और बाद में उपरोक्त विधि से प्रयोग कर सकते हैं।

विशेष :-----------

           यदि आप पाठ में आए शरीर के अंगों में न्यास की भावना करें तो प्रभाव कई गुना हो जायेगा।
       
    पूज्यपाद सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी आपके समस्त अभीष्टों को पूर्ण करें। मैं ऐसी ही उनके श्री चरणों में प्रार्थना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश ।।।

सोमवार, 19 नवंबर 2018

काल भैरव साधना

काल भैरव साधना



          कालभैरव जयन्ती समीप ही है। यह २९ नवम्बर २०१८ को आ रही है। आप सभी को कालभैरव जयन्ती की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

          प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्दर तेजस्विता और प्रचण्डता  को भी आत्मसात कर सके, यह सम्भव है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के दो प्रमुख पहलू होते हैं अच्छा-बुरा, उल्टा-सीधा, तेज-धीमा, सौम्य-उग्र। और उसका व्यक्तित्व तभी पूर्णतायुक्त होता है, जब वह दोनों पहलुओं से परिपूर्ण हो। जहाँ उसके अन्दर ममत्व, प्यार, दया जैसी सौम्य भावनाएँ होनी आवश्यक हैं, वहीं पौरुष, प्रचण्डता, तेजस्विता जैसी स्थितियाँ भी होनी अत्यावश्यक है।

          कृष्ण के बारे में प्रसिद्ध है कि जहाँ उनकी एक आँख में करुणा, ममता, प्रेम, अपनत्व झलकता रहता था, तो वहीं उनकी दूसरी आँख में प्रचण्डता, शत्रु-दमन एवं क्रोध की स्थिति रहती थी और इन्हीं दोनों के समग्र रूप ने उन्हें "योगेश्वरमय पुरुषोत्तम" बनाया।

          काल भैरव ऐसे ही प्रचण्ड देव हैं, जिनकी आराधना-साधना से व्यक्ति के अन्दर स्वतः ही एक ऐसा अग्नि स्फुलिंग स्थापित हो जाता है कि उसका सारा शरीर शक्तिमय हो जाता है, ओजस्विता एवं दिव्यता से दिव्यता से परिपूर्ण हो जाता है और वह अपने जीवन में प्रत्येक प्रकार की चुनौती को मुस्कुरा कर झेलने तथा उस पर विजय पाने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।

          ऋषियों ने जब साधनाओं का निर्माण किया तो छोटी से छोटी साधना भी उनके अनुभव पर ही आधारित थी। जब उन्होंने काल भैरव के लिए अष्टमी तिथि निर्धारित की और वह भी कृष्ण पक्ष की, तो उसके पीछे एक गूढ़ चिन्तन था। प्रथम तो काल भैरव एक ऐसे देव हैं, जो कि व्यक्ति के झूठे व्यक्तित्व को नष्ट कर उसे सभी अष्टपाशों से मुक्त करते हैं और चूँकि सभी अष्टपाश अज्ञान रूपी अंधकार से निर्मित होते हैं, अतः इनकी साधना के लिए कृष्ण पक्ष की अष्टमी को निर्धारित किया गया।

          काल भैरव का रूप मनोहर है, उनका शरीर दिव्य, तेजस्वी एवं सम्मोहक है। उनके एक हाथ में मनुष्य का खप्पर, जो कि नवीन चेतना का प्रतीक है, स्थित है। दूसरे हाथ में यम पाश है, जो मृत्यु पर विजय का द्योतक है। तीसरे हाथ में खडग अष्टपाशों को काटने के लिए तथा चौथा वरमुद्रा में उठा हाथ सर्व स्वरूप में मंगल और आनंद का प्रतीक है।

          वैसे साधना के दौरान काल भैरव साधक की कई प्रकार से परीक्षा लेते हैं और कई बार तो विकराल रूप धारण कर उनके समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। पर साधक को इतना ख्याल रखना चाहिए कि काल भैरव केवल बाह्य रूप में ही भयंकर है, उनका अन्तः स्वरूप तो अमृत तत्व से आपूरित और साधक का हित चाहने वाला ही है। अतः साधक को ऐसी किसी भी परिस्थिति के उत्पन्न होने पर इस साधना से विचलित होने या डरने की जरा भी आवश्यकता नहीं है।

          प्राचीन ग्रन्थों में विवरण मिलता है कि अगर सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी यह साधना सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेता है, तो ऐसे व्यक्ति के जीवन में यदि अकाल मृत्यु या दुर्घटना का योग हो, तो वह स्वतः ही मिट जाता है और कुण्डली में स्थित कुप्रभावी ग्रह भी शान्त हो जाते हैं, जिससे उसकी सफलता का मार्ग प्रशस्त होने लगता है।

          ऐसे व्यक्ति का सारा शरीर एक दिव्य आभा से युक्त हो जाता है। मित्रगण हमेशा उसके चारो ओर मँडराते रहते हैं और उसकी हर बात का पालन करने के लिए तत्पर रहते हैं। शत्रु उसके समक्ष आते ही समर्पण मुद्रा में प्रस्तुत हो जाते हैं और साधक के आज्ञापालक बन जाते हैं। वह कभी भी युद्ध, विवाद, मुकदमे आदि में पराजित नहीं होता। इस साधना से व्यक्ति के अष्टपाश नष्ट होते हैं।

          काल भैरव "काल" के देवता हैं, अतः उनकी साधना सम्पन्न करने वाले साधक को स्वतः ही त्रिकाल स्वरूप में भूत, भविष्य, वर्तमान का ज्ञान होने लगता है, जिससे वह पहले से ही भविष्य के लिए उचित योजनाएँ बना लेता है। वह पहले से ही जान जाता है कि यह व्यक्ति मेरे लिए सहयोगी होगा कि नहीं, यह कार्य मेरे लिए अनुकूल होगा या नहीं। साथ ही साथ धन, मान, पद, प्रतिष्ठा, वैभव उसके जीवन में उसके साथ-साथ चलते हैं और वह सामान्य जीवन से ऊपर उठकर देवत्व की ओर अग्रसर होता है।

साधना विधान :-----------

          यह साधना एक दिवसीय है। इस साधना को काल भैरव अष्टमी, पुष्य नक्षत्र दिवस को या किसी भी रविवार को सम्पन्न करें।

          साधक रात्रि में स्वच्छ काले वस्त्र धारण कर काला आसन या कम्बल बिछाकर दक्षिणाभिमुख होकर यह साधना सम्पन्न करें। साधक अपने माथे पर काजल की बिन्दी भी लगाएं।

          अपने पूजा स्थान को साफ कर लकड़ी के बाजोट पर काला वस्त्र बिछाकर, उस पर काले तिल से अष्टदल कमल बनाएं, कमल के मध्य में "कालभैरव यन्त्र" स्थापित करें। प्रत्येक दल पर एक-एक सुपारी रखें।

          साधना से पूर्व साधक को सामान्य गुरुपूजन करके कम से कम चार माला गुरुमन्त्र की जाप करनी चाहिए और फिर सद्गुरुदेवजी से कालभैरव साधना सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लेकर उनसे साधना की सफलता के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।

          इसके बाद भगवान गणपति का स्मरण कर संक्षिप्त पूजन करें और एक माला गणपति मन्त्र का जाप कर उनसे साधना की निर्विघ्न पूर्णता के लिए निवेदन करे।

          तत्पश्चात यन्त्र का पूजन सिन्दूर, अक्षत तथा लाल पुष्प से करें, साथ ही प्रत्येक सुपारी पर भी सिन्दूर, अक्षत तथा पुष्प चढ़ाएं। तेल का दीपक लगाएं, दीपक में चार बत्तियाँ हो, धूप भी जला लें।

                     "काली हकीक माला" को हाथ में लेकर उस पर सिन्दूर तथा पुष्प चढ़ाएं। फिर निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए ५१ माला मन्त्र जाप सम्पन्न करें -----

मन्त्र :-----------

॥ ॐ क्रीं क्रीं कालभैरवाय फट् ॥

OM  KREEM  KREEM  KAALBHAIRAVAAY  PHAT.

          साधना समाप्ति के अगले दिन यन्त्र, माला तथा सुपारी उसी वस्त्र में लपेटकर नदी में यह कहते हुए प्रवाहित कर दें -----

         "हे, कालभैरव! आप समस्त प्रकार से मेरी रक्षा करें। मेरे शत्रुओं को परास्त करें तथा मुझ पर अपनी कृपा कर मुझे सर्व सुख और सम्पदा से युक्त करें।"

         ऐसा करने पर यह साधना पूर्ण होती है तथा साधक कालभैरव की तेजस्विता को अपने अन्दर समाहित कर अकाल मृत्यु, चिन्ताओं, बाधाओं को दूर करता हुआ निर्भरता व निडरता युक्त जीवन व्यतीत करने में समर्थ होता है।

          आपकी साधना सफल हो और भगवान कालभैरव आपकी मनोकामना पूरी करे! मैं सद्गुरुदेव भगवानजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिलजी को आदेश आदेश आदेश ॥