शनिवार, 11 नवंबर 2017

शनैश्चरी साधना प्रयोग

शनैश्चरी साधना प्रयोग


          शनैश्चरी अमावस्या समीप ही है। यह १८ नवम्बर २०१७ को आ रही है। इस दिन भगवान शनिदेव से सम्बन्धित साधना, प्रयोग और विविध उपाय किए जा सकते हैं।

          पौराणिक कथाओं में शनि को सूर्यपुत्रयम का भाईअपने भक्तों को अभय देने वालासमस्त विघ्नों को नष्ट करने वाला एवं सम्पूर्ण सिद्धियों का दाता कहा गया है। जबकि ज्योतिष की दृष्टि में शनि एक क्रूर ग्रह है। कहा गया है कि यह क्रूर ग्रह एक ही पल में राजा को रंक बना देता है। अतः जब बात आती है शनि कीतो हमारा भयभीत एवं चिन्तित होना स्वाभाविक होता है। जिस पर इनकी दृष्टि पड़ती हैउस पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ता है।

          शनि की उपासना करने से पूर्व उसके स्वरूप और उसकी कार्य क्षमताओं से परिचित हो जाना आवश्यक हो जाता है। सात ग्रहों सूर्यचन्द्रमंगलबुधबृहस्पतिशुक्र और शनि में शनि अलग व्यक्तित्व हैक्योंकि दुःखहानिकष्ट आदि का आक्षेप इसी पर अधिक लगाया जाता हैजबकि ऐसा है नहीं। वह तो किन्हीं परिस्थितियों में ही सम्भव होता है।

          शनि को अंग्रेजी में SATURN (सैटर्न) कहते हैं तो अरबी में जौहलफारसी में केदवान व संस्कृत में असितमन्दशनैश्चरसूर्यपुत्र कहते हैं। इस ग्रह के बारे में आज भ्रामक धारणाओं ने मनुष्य के दिलों में घर कर लिया हैजिस कारणवश हर कोई इस ग्रह से भयभीत तथा आशंकित दिखाई देता है।

           भारतीय ज्योतिष में एक भ्रामक धारणा दिन-ओ-दिन बलवती हो रही है कि शनि सदैव अहित ही करता है। उसका प्रभाव सदैव अमंगलकारीअशुभ एवं विघटनकारी ही होता है। अशान्ति का कारण शनि ही हैदुःख का कारण भी शनि ही हैलड़का भाग गयास्त्री भाग गईसन्तान कुमार्गी हो गईव्यापार में घाटा हो गया आदि सभी शनि ग्रह के ही कारण बताए जाते हैं।

          शनि सर्वाधिक मैलाफाइडअकस्मातकुप्रभाव देने वाला ग्रह माना जाता हैअतः भय तो सहज स्वाभाविक है। यह असमय-मृत्युअकाल-मृत्युरोगभिन्न-भिन्न कष्टव्यवसाय हानिअपमानधोखाद्वेषईर्ष्या का कारण माना जाता हैपर वास्तविकता यह नहीं है। सूर्यपुत्र शनि हानिकारक न होकर लाभदायक भी सिद्ध होता है। क्योंकि -----

१. शनि तुरन्त एवं निश्चित फल देता है।

२. शनि सन्तुलन और न्याय प्रिय है।

३. शनि शुभ होकर मनुष्य को अत्यन्त व्यवस्थितव्यावहारिकघोर परिश्रमीगम्भीर एवं स्पष्ट वक्ता बना देता है।

४. मनुष्य की भेद लेने में शनि प्रधान व्यक्ति दक्ष होता है।

५. शनि प्रधान व्यक्ति का अध्यात्मवाद की ओर विशेष झुकाव रहता है।

६. शनि प्रधान व्यक्ति योगाभ्यासीगूढ़ रहस्य का पता लगाने में दक्षकर्मकाण्ड व धार्मिक शास्त्रों का अभ्यासग्रन्थ प्रकाशतत्वज्ञलेखन कार्य का यश व सम्मान पाते हैं।

७. शनि प्रधान व्यक्ति सामाजिक व आर्थिक क्रान्ति के प्रयत्नपूर्णत्यागमयी जीवन व्यतीत करनेवालेपूर्ण सामाजिक व मिलनसारपरोपकार के कार्यों में समय व्यतीत करने वालेलोक कल्याण के कार्य में सतत् संलग्नविद्वानमन्त्रीउदारमना तथा पवित्रता पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं।

८. शनि प्रधान जातक संकुचित व्यक्तित्व , भरपूर  आत्मविश्वासीप्रबल इच्छा शक्तियुक्तमहत्वाकांक्षीमितव्ययता पूर्ण आचरण करनेवालाहर कार्य में सावधान रहने वालाव्यवसाय में चतुर तथा कार्यपटु होता है।

          शनि अशुभ होने पर व्यक्ति स्वार्थीधूर्तकपटीदुष्टआलसीमन्द बुद्धिउद्योग से मुँह मोड़ने वालानीच कर्म में लिप्तअविश्वास करने वालाईर्ष्यालुविचित्र मनोवृत्ति युक्तअसन्तोषीदुराचारीदूसरों की आलोचना करने वालावीभत्स बोलने वाला होता हैअपने को श्रेष्ठ मानना पसन्द करता हैवह दम्भीझूठा और दरिद्री होता है। ऐसा व्यक्ति व्यर्थ इधर-उधर घूमना पसन्द करता हैऐसा व्यक्ति आजीवन विपत्तियों  से घिरा रहता है।

          ज्योतिषीय विवेचना के अनुसार शनि की साढ़े साती जातक के पैरों में पीड़ा पहुँचाती हैमस्तिष्क विकृत एवं सिर दर्दधन-धान्यसम्पत्ति का नाशसन्तान को कष्टस्वयं को व्यभिचारी व कुमार्गी बना अपमानित करती है।

          शनि सर्वदा प्रभु भक्तों को अभय दान देते हैं और उनकी हर प्रकार से रक्षा करते हैं। शनि समस्त सिद्धियों के दाता हैं। साधनाउपासना द्वारा सहज ही प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों की समस्त कामनाओं को पूरा करते हैं।

           शनि को ज्योतिष में "विच्छेदात्मक ग्रह" माना गया है। जहाँ एक ओर शनि मृत्यु प्रधान ग्रह माना गया हैवहीं शनि दूसरी ओर शुभ होने पर भौतिक जीवन में श्रेष्ठता भी देता है। शनि पीड़ादायक हो सकता हैलेकिन यदि शनि को अनुकूल बना लिया जाए तो यह सर्वोच्चता भी प्रदान कर सकता है। शनि मात्र विध्वंसकारी ग्रह ही नहीं अपितु साधकों पर कृपा करनेवाले देव भी हैं।

          प्रत्येक व्यक्ति को जो शनि की साढ़े साती या अढ़ैया अथवा जन्म कुण्डली में शनि ग्रह के अशुभ होने के कारण पीड़ित एवं दुःखी हैउसे शनि जयन्तीशनैश्चरी अमावस्या अथवा किसी भी शनिवार को यह साधना प्रयोग अवश्य ही सम्पन्न करना चाहिएक्योंकि इसे सम्पन्न करने पर शनि का उस पर अशुभ प्रभाव नहीं पड़ता। यह साधना प्रयोग  नीचे दिया जा रहा है।

          जो व्यक्ति शनि की साधना सम्पन्न करते हैंउनके जीवन में आ रही बाधाएँ समाप्त हो जाती है। यह प्रयोग शनि के कुप्रभाव को दूर करने वाला एक अत्यन्त ही गोपनीय प्रयोग है। इस प्रयोग को सम्पन्न करने पर शनि की समस्त महादशा और अन्तर्दशाएँ शान्त होने लग जाती हैजिससे उसका कोई अहित नहीं होता।

           इस साधना को साधक द्वारा यदि एक बार भी सम्पन्न कर लिया जाए तो शनि का वरदहस्त साधक पर आजीवन बना रहता है। हानि के स्थान पर लाभ ही लाभ प्राप्त होता रहता है साधक को।

साधना विधान :----------

            यह प्रयोग आप शनि जयन्तीशनैश्चरी अमावस्या या किसी भी शनिवार अथवा रवि-पुष्य योग में आरम्भ करें। साधना प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में अर्थात पाँच बजे से शुरू करें।

            स्नान करके काले या नीले वस्त्र धारण करें। गुरु पीताम्बर ओढ़ लें और पूर्व दिशा की ओर मुख करके काले अथवा नीले ऊनी आसन पर बैठ जाएं।

             सर्वप्रथम साधक परमपूज्य सद्गुरुदेवजी का स्मरण करके चार माला गुरुमन्त्र का जाप करें। फिर उनसे शनैश्चरी अमावस्या के अवसर पर शनि साधना प्रयोग सम्पन्न करने हेतु आज्ञा प्राप्त करें और उनसे साधना की निर्बाध पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना करें।
             इसके बाद साधक को चाहिए कि वह भगवान गणपतिजी का स्मरण करके एक माला किसी भी गणपति मन्त्र का जाप करें। फिर भगवान गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें
           अपने सामने भूमि पर काजल से त्रिभुज बनाएं और उस पर एक ताम्र पात्र रखें। ताम्र पात्र में काजल से ही अष्टदल कमल बनाएं और उस पर शनि यन्त्र स्थापित करें। यदि यन्त्र उपलब्ध न हो तो काजल से निम्नानुसार यन्त्र का अंकन करें लें -----



            यन्त्र पर काजल से रँगे हुए चावल चढ़ाते हुए "ॐ शं ॐ" मन्त्र का उच्चारण करते रहें। इसके पश्चात निम्न कर न्यास तथा हृदयादि न्यास सम्पन्न करें ------

कर न्यास :-----------

ॐ शनैश्चराय अँगुष्ठाभ्याम् नमः।
ॐ मन्दगतये तर्जनीभ्याम् नमः।
ॐ अधोक्षजाय मध्यमाभ्याम् नमः।
ॐ कृष्णांगाय अनामिकाभ्याम् नमः।
ॐ शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्याम् नमः।
ॐ छायात्मजाय करतलकर पृष्ठाभ्याम् नमः।

हृदयादि न्यास :------------

ॐ शनैश्चराय हृदयाय नमः।
ॐ मन्दगतये शिरसे स्वाहा।
ॐ अधोक्षजाय शिखायै वषट्।
ॐ कृष्णांगाय कवचाय हुम्।
ॐ शुष्कोदराय नेत्रत्रयाय वौषट्।
 छायात्मजाय अस्त्राय फट्।

            फिर भगवान शनिदेव का निम्नानुसार ध्यान करें ----- 
      
       ॐ नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
       छाया मार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।
 शं शनैश्चराय नमः,  शं शनैश्चराय नमः,  शं शनैश्चराय नमः ध्यानम् समर्पयामि। 


            इसके बाद शनि साफल्य माला, काली हकीक माला अथवा रुद्राक्ष माला से निम्न मन्त्र की २४ माला मन्त्र जाप करें -----

मन्त्र :----------

       ।। ॐ शं शनैश्चराय सशक्तिकाय सूर्यात्मजाय नमः।।

OM SHAM SHANEISHCHARAAY SASHAKTIKAAY SOORYAATMAJAAY NAMAH.

            मन्त्र जाप पूर्ण होने के बाद साधक यन्त्र पर तीन काले अथवा नीले रंग के फूल चढ़ाएं। यदि काले रंग के फूल न मिल सके तो सफ़ेद फूल (काजल को तिल के तेल में घोलकर) रँग लें।

            साधना के पश्चात शनि की प्रार्थना निम्न दशनाम स्तुति से करनी चाहिए -----

ॐ कोणस्थः पिंगलो वभ्रुः कृष्णो रौद्रान्तको यमः।
सौरिः शनिश्चरो मन्दः पिप्पलादेन संस्तुतः।।
एतानि दश नमामि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
शनिश्चर कृत पीड़ा न कदाचित् भविष्यति।।

           इसके बाद हाथ जोड़कर श्रद्धा पूर्वक निम्न वन्दना करें -----

ॐ नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्द्धरम्।
      चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं वन्दे सदाअभीष्टकरं वरेण्यं।।
      सूर्यपुत्रो दीर्घदेहा विशालाक्ष: शिवप्रिय:।
      मन्दचार: प्रसन्नात्मा पीडां हरतु मे शनि।।

          साधना समाप्ति के बाद यन्त्र तथा माला को उसी स्थान पर रहने दें। अगले दिन प्रातः या सायंकाल यन्त्र के सम्मुख हाथ जोड़कर पुनः उपरोक्त श्लोक का उच्चारण करें तथा "ॐ शं ॐ" मन्त्र बोलते हुए यन्त्र व माला को किसी काले वस्त्र में लपेटकर पूजा स्थान में रख दें और एक माला उपरोक्त शनि मन्त्र का जाप करते रहें। अगले शनिवार को वस्त्र सहित यन्त्र व माला को जल में प्रवाहित कर दें।

          आपकी यह शनि साधना सफल हो और भगवान शनिदेव ही कृपा से आपकी समस्याओं और पीड़ाओं का अन्त हो। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से ऐसी प्रार्थना करता हूँ।

           इसी कामना के साथ 

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।

रविवार, 5 नवंबर 2017

भैरव तन्त्र साधना

भैरव तन्त्र साधना 


      कालभैरव अष्टमी निकट ही है। इस वर्ष यह ११ नवम्बर २०१७ को आ रही है। आप सभी को अग्रिम रूप से कालभैरवाष्टमी की ढेरी सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

      शून्य या ब्रह्माण्ड एक ऐसे साम्राज्य का नाम है, जिसमें असम्भव जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं है, वहाँ हर वो चीज सम्भव है जो सामान्य बातों में सोच के भी परे हो।

          “सम्भवशब्द के सम्भवतः हज़ारों-करोड़ों अर्थ हो सकते हैं, क्योंकि कौन-कैसी मानसिकता के साथ इस शब्द की व्याख्या करता है, यह निर्भर करता है इस बात पर कि हर एक से दूसरे इन्सान के बीच विचारों का मतभेद कितना गहरा है। किन्तु तन्त्र में इस शब्द का एक ही अर्थ है---सक्षम बनो ताकि काल का पहिया भी तुम्हारे हिसाब से चले।

     तन्त्र मूर्खों की अपेक्षाओं पर नहीं चलता और जिसने काल का वरण कर लिया उसके लिए करने को कुछ और शेष नहीं रह जाता। हम सब जानते हैं कि दशानन रावण कालजयी थे क्योंकि उन्होंने काल को अपने पलंग के खूँटे से बाँध रखा था, पर हमने कभी यह जानने की चेष्टा नहीं की कि उन्होंने ऐसा किया कैसे था, वो यह सब इसलिए सम्भव कर पाए थे क्योंकि वो एक श्रेष्ठ तान्त्रिक थे और उन्होंने अपने अन्दर के कालपुरुष पर विजय प्राप्त कर ली थी।

     हम सब के अन्दर एक कालपुरुष होता है, जिससे हम शिव के प्रतिरूप कालभैरव के रूप में परिचित हैं। भैरव कुल ५२ होते हैं, पर इनमें से सबसे श्रेष्ठ कालभैरव हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हर भैरव एक विशेष शक्ति के अधिपति हैं, पर काल भैरव को इन सब भैरवों के स्वामित्व का सम्मान प्राप्त है और ज़ाहिर हैयदि यह स्वामी है तो हर परिस्थिति में अपने साधक को अधिक से अधिकतम सुख और फल प्रदान करने वाले होंगे, इसीलिए इनकी साधना को जीवन की श्रेष्टतम साधना कहा गया है। वैसे तो हर साधना का हमारे जीवन में विशेष स्थान हैपर कुबेर साधना, दुर्गा साधना और कालभैरव साधना को जीवन की धरोहर माना गया है।

     अब सबसे बड़ी बात यह है कि भैरव नाम सुनते ही मन में एक अजीब-से भय का संचार होने लगता है, भयंकर से भयंकर आकृति आँखों के सामने उभरने लगती है, गुस्से से भरी लाल सुर्ख आँखें, सियाह काला रंग, लम्बाचौड़ा डील-डौल और ना-जाने क्या-क्याइसके विपरीत एक सच यह भी है, जहाँ भय हो, वहाँ साधना नहीं हो सकती और साक्षत्कार तो दूर की बात है।

     किन्तु जहाँ समस्या हैवहाँ समाधान मौजूद है। काल भैरव की साधना से सम्बन्धित डर से मुक्ति पाने के लिए हमें इनको समझना पड़ेगा। जैसे सिक्के के दो पहलु होते हैं, वैसे ही काल और भैरव एक सिक्के के दो पक्ष हैं। काल का अर्थ है समय और भैरव का अर्थ है वो पुरुष, जिसमें काल पर विजय प्राप्त करने की क्षमता हो। अब यहाँ काल का अर्थ सिर्फ मृत्यु नहीं है अपितु हर उस वस्तु से है जो हमारे मानसिक सुखों को क्षीण करने में सक्षम हो। अब यह समस्या शारीरिक, आन्तरिक, मानसिक और रुपये-पैसे से सम्बन्धित कैसी भी हो सकती है।

     अब जो काल पुरुष होगा, उसे इनमें से किसी समस्या का भय नहीं होगा, क्योंकि समस्या उसके सामने ठहर ही नहीं सकती। देवता और मनुष्यों में सबसे बड़ा अन्तर यही है कि देवताओं की सीमाएँ होती है, जैसे अग्निदेव मात्र अग्नि से सम्बन्धित कार्य कर सकते हैं। उनका वरुणदेव से कोई लेना देना नहीं, इसी प्रकार कामदेव का इन दोनों और अन्य देवताओं से कोई सरोकार नहीं, जबकि इसके विपरीत केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी हैं, जिसके अन्दर पूरा ब्रह्माण्ड समाहित है, जिसकी किसी भी कार्य को करने की कोई सीमा नहीं। बस जरूरत है तो उसे अपने अन्दर के पुरुष को जगाने की और यह तभी सम्भव है जब हमने हमारे ही अन्दर के ब्रह्माण्ड को अर्थात काल को जीत लिया हो।

     ऐसा ही एक साधना विधान यहाँ दे रहा हूँ जो करने में बेहद सरल तो है ही, पर इस विधान को करने के बाद के नतीजे आपको आश्चर्यचकित कर देंगे। इस साधना को करने के बाद ना केवल आप में आत्म विश्वास बढ़ेगा, बल्कि जटिल से जटिल साधनाएँ भी आप बिना किसी भय और समस्या के कर पायेंगे। इस साधना को करने के पश्चात काल साधना करना सहज हो जाता है, जो आपको काल ज्ञाता बनाने में सक्षम है अर्थात आप भूत, भविष्य, वर्तमान सब देखने में सामर्थ्यवान हो जाते हैं। आँखों में एक ऐसी तीव्रता आ जाती है कि हठी से हठी मनुष्य भी आपके समक्ष घुटने टेक देता है।  इसके लिए आपको बस यह एक छोटा-सा विधान करना है।

साधना विधान :—–—–—–—–—

       कालभैरव अष्टमी या किसी भी रविवार मध्यरात्रि काल में नहा-धोकर अपने पूजास्थान में लाल वस्त्र पहनकर लाल आसन पर बैठ जाएं। साधना को करते समय आपकी दिशा पश्चिम होगी और दीपक तिल के तेल का जलाना है।

       अब अपने सामने किसी बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर उसपर पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का चित्र स्थापित कर दें। चित्र के समक्ष एक काले तिलों की ढेरी बनाकर उस पर एक सुपारी को काजल से रँगकर स्थापित कर दें। धूप-अगरबत्ती भी जला लें।

      किसी भी साधना में सफलता हेतु सदगुरुदेव का और विघ्नहर्ता भगवान गणपति का आशीर्वाद अति अनिवार्य है। इसलिए भगवान गणपति की अर्चना करने के पश्चात ही साधना प्रारम्भ करें।

      सर्वप्रथम भगवान गणपतिजी का पंचोपचार पूजन करके एक माला किसी भी गणपति मन्त्र का जाप करें और फिर भगवान गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना करें।

      तदुपरान्त पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का संक्षिप्त पूजन करें और मूलमन्त्र की माला शुरू करने से पहले कम से कम गुरुमन्त्र की ११ माला का जाप जरूर कर लें। फिर सद्गुरुदेवजी से कालभैरव साधना सम्पन्न करने की आज्ञा लें और उनसे साधना की निर्बाध पूर्णता एवं सफलता के लिए आशीर्वाद ग्रहण करें।

      इसके बाद साधक को चाहिए कि वह साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य करें। फिर उसे प्रतिदिन संकल्प लेने की आवश्यकता नहीं होती।

      तत्पश्चात तिलों की ढेरी पर स्थापित सुपारी को भगवान कालभैरव मानकर सामान्य पूजन करें और भोग में कोई मिष्ठान्न अर्पित करें।

      फिर आपको निम्नलिखित मन्त्र का मात्र २१ (इक्कीस) माला मन्त्र जाप करना है। यदि आपने कोई माला सिद्ध की हो तो आप उसका उपयोग करें अन्यथा काली हकीक माला अथवा रुद्राक्ष माला का प्रयोग कर सकते हैं।

मन्त्र :---––––––––––

।। ॐ क्रीं भ्रं क्लीं भ्रं ऐं भ्रं भैरवाय भ्रं ऐं भ्रं क्लीं भ्रं क्रीं फट ।।

OM KREEM BHRAM KLEEM BHRAM AING BHRAM BHAIRAVAAY BHRAM AING BHRAM KLEEM  BHRAM  KREEM  PHAT.
          
       साधना करते समय आपका वक्षस्थल अनावर्त होना चाहिए और यदि कोई गुरुबहन इस विधान को सम्पन्न कर रही है तो उन पर यह नियम लागू नहीं होता।
       
        २१ माला जाप के पश्चात एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर अपना पूरा मन्त्र जाप सदगुरुदेव को समर्पित कर दें। इस प्रकार यह साधना क्रम नित्य ग्यारह दिनों तक सम्पन्न करना चाहिए।

          एक ज़रूरी बात हो सकती है कि साधना के दौरान आपका शरीर बहुत ज्यादा गर्म हो जाए या ऐसा लगे जैसे गर्मी के कारण मितली आ रही है तो घबराएं नहीं, जब आपके अन्दर ऊर्जा का प्रस्फुटन होता है तो ऐसा होना स्वाभाविक है। अपनी साधना पर केन्द्रित रहें, थोड़ी देर बाद स्थिति अपने आप सामान्य हो जायेगी।

      खुद इस अद्भुत विधान को करके देखें और अपने सामान्य जीवन में बदलाव का आनन्द लें, पर एक बात का ध्यान जरूर रखें। किसी भी साधना में ऐसा कभी नहीं होता है कि आज साधना की और कल नतीजा आपके सामने आ जायेगा। इसके लिए आपको अपने दैनिक जीवन पर बड़ी बारीकी से नज़र रखनी पड़ती है , क्योंकि बड़े बदलाव की शुरुआत छोटे-छोटे परिवर्तनों से होती है।

नोट :-----------

              कृपया साधना करने के पश्चात हर दिन या कुछ दिनों के अन्तराल से की गयी साधना की न्यूनतम एक माला या अधिकतम अपनी क्षमता के अनुसार जितनी चाहें उतनी माला मन्त्र जाप कर लें, जिससे कि यह मन्त्र सदा सर्वदा आपको सिद्ध रहे।

     आपकी साधना सफल हो और भगवान कालभैरव आप पर कृपालु हों। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्रीनिखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए ऐसी ही कामना करता हूँ।

           आज के लिए बस इतना ही

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।

बुधवार, 1 नवंबर 2017

श्री निखिलेश्वरानन्द साबर सिद्धि साधना

श्री निखिलेश्वरानन्द साबर सिद्धि साधना
         
           निखिल संन्यास दिवस निकट ही है। यह इस बार ४ नवम्बर २०१७ को आ रहा है। आप सभी को निखिल संन्यास दिवस की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

          एक अकेला व्यक्तित्व जो संसार की समस्त साधनाओं और सिद्धियों को समेटे हुए है, जो अपने आप में अप्रतिम, अद्भुत और अनिवर्चनीय है, जिनमें हिमालय की ऊँचाई और सागरवत् गहराई भी है। उच्चकोटि की वैदिक एवं दैविक साधनाओं में जहाँ यह व्यक्तित्व अग्रणी है, वहीं औघड़, श्मशान और साबर साधनाओं में भी अन्यतम है।

          परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी का व्यक्तित्व ऐसा ही अनिन्द्य, अनिवर्चनीय और अद्वितीय है। औघड़ साधनाओं, साबर साधनाओं तथा समस्त साधनाओं के विषय में आज पूरे विश्व में उच्चतम प्रामाणिक व्यक्तित्व माने जाते हैं। साधनाओं के तो वे महारथी हैं।

          संसार की शायद ही ऐसी कोई साधना पद्धति रही होगी, जिनको उन्होंने आत्मसात् न किया हो। साबर साधनाओं के तो वे मसीहा हैं। उन्होंने गुरु गोरखनाथ के स्तर पर खड़े होकर उनके चिन्तन को समझा है तथा उनकी साधना-सम्बन्धी न्यूनताओं को सुधार है, उनको परिमार्जित किया है। उन साधना विधियों को खोज निकाला है, जो अभी तक अपने आप में अगम्य रही है।

          साबर साधनाएँ जीवन की सरल, सहज और महत्वपूर्ण साधनाएँ हैं, जिनमें लम्बे-लम्बे संस्कृत के श्लोक नहीं है, अपितु सरल भाषा में सफलता की शैलियाँ हैं। इस क्षेत्र में भी उन्होंने उन विद्याओं को ढूँढ निकाला है, जो अपने आप में लुप्त हो गई थी, जिनके प्रयास से आज भी ये विद्याएँ जीवित है।

          पूज्यपाद सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी का व्यक्तित्व अपने आप में पूर्णता लिए हुए है। उन्हें इन विद्याओं की पूर्ण प्रामाणिकता के साथ जानकारी है। आज पूरे विश्व में सद्गुरुदेव निखिलेश्वरानन्दजी ही है, जिन्हें लुप्त विद्याओं की प्रामाणिक जानकारी है, वे लुप्त विद्याएँ हैं - परकाया प्रवेश विद्या, हाजी विद्या, काजी विद्या, मदालसा विद्या, वायुगमन सिद्धिकनकधारा सिद्धि, सूर्य विज्ञान, संजीवनी विद्या आदि।

          भारतीय साधना क्षेत्र का मध्यकाल अन्धकार में था। ऐसे अन्धकार के क्षणों में सूर्य की तरह पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का अवतरण हुआ, जिन्होंने खोई हुई साधना-सम्पदा को पुनः भारतीयों को देने का अथक प्रयास किया। उस लुप्त साहित्य से लोगों को परिचित किया और मन्त्र एवं साधना के क्षेत्र में लोगों की आस्था बनी। एक बार पुनः साधना-सम्बन्धी चेतना लोगों में जागृत हुई, पुनः प्रकाश की किरणें इस धरती पर प्रकट हुई। उन साधनाओं को सीखने और समझने की ललक जगी तथा वे साधना पथ की ओर अग्रसर हुए।

साधना विधि :-----------

          साधक को चाहिए कि वह निखिल जयन्ती, निखिल संन्यास दिवस, गुरु पूर्णिमा अथवा किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के गुरुवार को प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर पीली धोती पहन लें, पीली गुरु चादर लें। सफ़ेद आसन पर पूर्व की ओर मुँह करके सुखासन या पद्मासन में बैठ जाएं।

          अपने सामने किसी चौकी (बाजोट) पर पीला वस्त्र बिछा लें, उसके ऊपर प्राण-प्रतिष्ठित गुरु चित्र तथा गुरु यन्त्र स्थापित करें। लोबान धूप तथा घी का दीपक जलाकर रख लें।

          सर्वप्रथम भगवान गणपतिजी का स्मरण करके एक माला किसी भी गणपति मन्त्र का जाप करें। फिर भगवान गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें। 

          फिर दोनों हाथ जोड़कर पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का निम्नानुसार ध्यान करें -----

ॐ गुरुर्वै शतां द्वै हिमलेव ध्यानम् प्रज्ञा प्रदम्शे निवेदं च ध्याना।
दैवत्व दर्शन मदैव भवसिन्धु पारं गुरुर्वै कृपात्वं गुरुर्वै कृपात्वं।।

          उसके बाद निम्न मन्त्रों से गुरु चरणों में जल चढ़ावें ----

ॐ भवाय नमः पादो पूजयामि नमः।
ॐ गुरुभ्यो नमः पादो पूजयामि नमः।
ॐ परम गुरुभ्यो नमः पादो पूजयामि नमः।
ॐ परात्पर गुरुभ्यो नमः पादो पूजयामि नमः।
ॐ पारमेष्ठि गुरुभ्यो नमः पादो पूजयामि नमः।
ॐ रुद्राय नमः पादो पूजयामि नमः।
ॐ रिलाय नमः पादो पूजयामि नमः।
ॐ भवाय नमः पादो पूजयामि नमः।
ॐ सर्वाज्ञान हराय नमः पादो पूजयामि नमः।

          फिर यन्त्र और चित्र का गन्ध (कुमकुम या अष्टगन्ध) एवं अक्षत से पूजन कर धूप, दीप तथा नैवेद्य अर्पित करें ---

गन्धम् समर्पयामि श्री गुरुचरण कमलेभ्यो नमः।
अक्षतान् समर्पयामि श्री गुरुचरण कमलेभ्यो नमः।
धूपम् आघ्रापयामि श्री गुरुचरण कमलेभ्यो नमः।
दीपम् दर्शयामि श्री गुरुचरण कमलेभ्यो नमः।
नैवेद्यम् निवेदयामि श्री गुरुचरण कमलेभ्यो नमः।

          इसके बाद दोनों हाथों में पुष्प लेकर पुष्पांजलि समर्पित करें ---

ॐ परमहंसाय विदमहे महातत्पराय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्।
ॐ महादेवाय विदमहे रुद्रमूर्तये धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।
ॐ गुरुदेवाय विदमहे परब्रह्माय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्।
श्री गुरुचरण कमलेभ्यो नमः पुष्पांजलिं समर्पयामि।

          फिर पुनः एक बार हाथ जोड़े और पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी को नमस्कार करें -----

ॐ नमोष्टुग्रवे तस्मै इष्टदेव स्वरूपिणे।
सस्य वाग्मृतं हन्ते विषं संसार संज्ञकाम्।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवै नमः।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम् देव देव।।

          सामने चौकी पर जिसमें पीला वस्त्र बिछा हो, उस पर लाल रंग से रँगे हुए चावल से अष्टदल कमल बनाकर ताँबे की प्लेट रखें। उस प्लेट में कुमकुम से स्वस्तिक का निर्माण करें। स्वस्तिक की चारों दिशाओं की चार लाइनों पर चार सुपारी स्थापित करें। यह चार सुपारियाँ चार गुरुत्व शक्ति का प्रतीक हैं। फिर उन चारों का कुमकुम लगाकर पूजन करें, अक्षत और पुष्प भी चढ़ावें। फिर बाँयें हाथ में सरसों के दाने एवं काली मिर्च के दाने मिलाकर चारों सुपारी पर क्रमशः चढ़ावें और निम्न सन्दर्भ का उच्चारण करें -----

ॐ गुरुभ्यो स्वाहा।          (एक सुपारी पर चढ़ावें)
ॐ परम गुरुभ्यो स्वाहा।          (दूसरी सुपारी पर चढ़ावें)
ॐ परात्पर गुरुभ्यो स्वाहा।          (तीसरी सुपारी पर चढ़ावें)
ॐ पारमेष्ठि गुरुभ्यो स्वाहा।          (चौथी सुपारी पर चढ़ावें)

          इसके बाद स्वस्तिक के मध्य में तेल का दीपक जलावें। फिर "रुद्राक्ष माला" से निम्न मन्त्र का ११ माला जाप सम्पन्न करें -----

मूल मन्त्र :-----------

।। ॐ न्रिं निखिलेश्वराय न्रिं हुं जं जं सिद्धये फट् ।।

OM NRIM NIKHILESHWARAAY NRIM HUM JAM JAM SIDDHAYE PHAT.

          मन्त्र जाप समाप्ति के पश्चात पुनः संक्षिप्त गुरुपूजन सम्पन्न करें। फिर समस्त जाप एक आचमनी जल छोड़कर पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी को ही समर्पित कर दें।

          इस प्रकार इस साधना क्रम को नित्य ग्यारह दिनों तक सम्पन्न करना चाहिए।

          साधना समाप्ति के बाद अगले दिन प्रातः माला को गले में पहिन लें। शेष सामग्री को उसी कपड़े में बाँधकर ग्यारह दिनों तक के लिए अपने पूजा स्थान में ही रख दें। बाद में  सभी सामग्री को जल में प्रवाहित कर दें। माला एक वर्ष तक पहिने रहें।

          इस साधना के माध्यम से आपके जीवन में धन-धान्य, यश, मान-प्रतिष्ठा की प्राप्ति, साधनाओं में सफलता तथा पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी के पूर्ण आशीर्वाद की प्राप्ति होगी। इस साधना से परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री निखिलेश्वरानन्दजी की दिव्यता और चैतन्यता को आप स्वयं ही अनुभूत कर सकेंगे। यह आपका सौभाग्य होगा।

          आपकी साधना सफल हो और आपको पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त हो। मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए ऐसी ही कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।