रविवार, 23 सितंबर 2018

पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग

पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग




          कल से श्राद्ध पक्ष शुरू हो रहा है। श्राद्धपक्ष में पितृदोष अथवा कालसर्पदोष के निवारण के लिए उपाय‚ पूजन व साधना की जाए तो शुभ फलों की प्राप्ति होती है तथा कालसर्प दोष अथवा पितृदोष के दुष्प्रभाव में कमी आती है।

          भगवान शिव का ही  एक नाम रसेश्वर  भी है। भारतीय  शास्त्रों  में  रस”  की  धारणा  पारद  से  की  गई है। रसविद्या का बड़ा महत्व माना गया है। “रसचण्डाशुः” नामक ग्रन्थ में कहा गया है –––––

शताश्वमेधेनकृतेन पुण्यं गोकोटिभि: स्वर्णसहस्रदानात।
नृणां भवेत् सूतकदर्शनेन यत्सर्वतीर्थेषु कृताभिषेकात्॥

          अर्थात सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद, एक करोड़ गाय दान देने के बाद या स्वर्ण की एक हजार मुद्राएँ दान देने के पश्चात् तथा सभी तीर्थों के जल से अभिषेक (स्नान) करने के फलस्वरूप जो–जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य केवल पारद के दर्शन मात्र से होता है।
          इसी तरह –––––

मूर्च्छित्वा हरितं रुजं बन्धनमनुभूय मुक्तिदो भवति।
अमरीकरोति हि मृतः कोऽन्यः करुणाकर: सूतात्॥


        जो मूर्छित होकर रोगों का नाश करता है, बद्ध होकर मनुष्य को मुक्ति प्रदान करता है, और मृत होकर मनुष्य को अमर करता है, ऐसा दयालु पारद के अतिरिक्त अन्य कौन हो सकता है? अर्थात कोई नहीं।

            रसतन्त्र सदा से मनुष्य के लिए आकर्षण का विषय रहा है, क्यूँकि यह एक ऐसा विषय है जो साधक को सब कुछ दे देने में समर्थ है। किन्तु जितनी इस क्षेत्र में  दिव्यता है, उतना ही परिश्रम भी है। रस तन्त्र के साधकों ने समय-समय पर समाज के समक्ष कई साधनाएँ रखी जो कि अपने आप में अद्भूत है।आज भी हम पारद से जुड़ी कई-कई साधनाएँ सम्पन्न करते हैं तथा उसके लाभ को अपने जीवन में अनुभूत करते है। ऐसी कोई साधना नहीं है जो "पारद विज्ञान" से दूर रही हो, चाहे महालक्ष्मी हो या कुबेर प्रयोग हो या स्वर्णाकर्षण साधना ही क्यों न हो? सभी पारद के माध्यम से कई-कई बार सम्पन्न की गई है। जहाँ हम पारद विग्रह के माध्यम से देवी-देवता, इतर योनि आदि को आकर्षित कर प्रसन्न कर सकते हैं, वहीं इन दिव्य विग्रहों पर साधना कर आप पितृदोष से मुक्त होकर पितरों की कृपा के पात्र भी बन सकते हैं।

           प्रश्न उठता है कि क्या यह सम्भव है कि हम पारद शिवलिंग के माध्यम से पितृ शान्ति कर सकें? क्या पारद शिवलिंग के माध्यम से पितरों की कृपा प्राप्त की जा सकती है?

           जी, हाँ! पारद में अद्भूत आकर्षण है, जो शेषनाग को भी अपनी ओर खींच ले। नागकन्याओं  का सम्मोहन कर उन्हें अपने समक्ष आने पर विवश कर दे तो फिर पितृ क्यों आकर्षित नहीं होंगे भला!

          सामान्य रूप से हम पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण आदि का सहारा लेते हैं और यह अत्यन्त प्राचीन विधान भी है, जिसके अन्तर्गत पिण्ड दान, तर पिण्डी आदि भी आती है। उसी प्रकार रसतन्त्र के ज्ञानी हमें पारद के क्षेत्र में भी पितरों के कई-कई विधान प्रदान करते है। उनमें से ही एक साधना है, जिसे रस क्षेत्र में पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग के नाम से जाना जाता है।  यह  तो  नाम से ही ज्ञात होता है कि प्रस्तुत विधान पितरों की मुक्ति से सम्बन्ध रखता है।

                       मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार गति पाता है। उसी अनुसार उसे पुनः गर्भ में भेज दिया जाता है, ताकि वो अपने कर्मों का भोग कर मुक्ति प्राप्त कर सके। परन्तु कभी-कभी कर्म अधिक दूषित होने पर मनुष्य को गर्भ की भी प्राप्ति नहीं होती है और उसे अन्य योनियों में भटकना पड़ता है, जिन्हें हम भूत, प्रेत या पिशाच आदि नामों से जानते हैं। इसके अतिरिक्त यदि मनुष्य इन सबसे बच भी जाए तो उसकी आत्मा ब्रह्माण्ड में अतृप्त रहकर मुक्ति की चाह में विचरण करती रहती है और अपने वंशजों को कष्ट पहुँचाती रहती है।

          ताकि वे इन कष्टों से व्यथित होकर उनकी मुक्ति का उपाय करे। प्रस्तुत साधना आज इसी विषय पर है, जिसके करने मात्र से पितृ मुक्त हो जाते हैं। यदि परिवार का कोई सदस्य किसी अन्य योनि में कष्ट भोग रहा हो तो उसे मुक्ति मिलती है तथा वो सद्गति पाता है। जब पितृ सद्गति को प्राप्त कर लेते हैं तो वंशजों की प्रगति निश्चित है, क्यूँकि अब पितरों की ओर से दी जा रही बाधा सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाती है। यह प्रयोग पारद शिवलिंग पर किया जाता है, क्यूँकि साधना के मध्य पारद पितरों का आकर्षण करता है और उन्हें खींचकर साधक के कक्ष तक लाता है। साधना के अन्त में इसी पितृ साधना का समस्त पुण्य लेकर पितृ लोक की ओर विदा लेते हैं तथा मुक्ति के मार्ग की ओर बढ़  जाते हैं। इसके साथ ही साधक को आशीर्वाद देते हैं, जिससे साधक आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सुख प्राप्त करता है।

          भाइयों/बहिनों! साधना को सम्पन्न कर आप अपने पितरों के ऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करें, जिन्होंने आपको जन्म दिया है, जिनके कारण आपका अस्तित्व है, उन्हें समस्त कष्टों से मुक्त कर उन्हें सद्गति प्रदान करवाएं। इससे बड़ा उपहार और कोई नहीं होगा जो आप अपने पितरों को दे सकें। सभी साधकों के लिए प्रस्तुत है पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग।




साधना विधान :-----------

          यह प्रयोग आप पितृपक्ष में पूर्णिमा अथवा सोमवार से शुरु कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त इसे किसी भी माह की पूर्णिमा से या सोमवार से आरम्भ किया जा सकता है। इस साधना को प्रातः ४ बजे से ९ बजे के मध्य ही कर सकते है।

          स्नान करने के पश्चात श्वेत वस्त्र धारण कर श्वेत आसन पर दक्षिण की ओर मुख करके बैठ जाए। सामने बाजोट पर श्वेत वस्त्र बिछाकर उस पर ताम्र या स्टील की थाली रखे। अब इस थाली में काले तिल और सफ़ेद तिल मिलाकर  एक ढेरी बना दे। अब पारद शिवलिंग को पहले दूध तथा फिर जल से स्नान कराकर स्वच्छ वस्त्र से पोंछकर इस ढेरी पर स्थापित कर दे।

          इसके बाद सद्गुरुदेवजी तथा गणपतिजी का सामान्य पूजन कर गुरुमन्त्र की चार माला तथा गणपति मन्त्र की एक माला जाप करे। तत्पश्चात सद्गुरुदेवजी से पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लेकर उनसे साधना की सफलता के लिए प्रार्थना करे।

          तदुपरान्त साधक को साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य लेना चाहिए। इसके लिए हाथ में जल लेकर संकल्प करे कि मैं यह पितृ-मुक्ति रसेश्वर प्रयोग अपने पितरों की शान्ति तथा उनकी मुक्ति हेतु कर रहा हूँ तथा पितृ-दोष से मुक्ति एवं पितृ-शान्ति के लिए कर रहा हूँ। भगवान पारदेश्वर मेरी मनोकामना को पूर्ण करे तथा मुझे साधना में सफलता प्रदान करे।

           और हाथ के जल जमीन पर छोड़ दे।

          इसके बाद भगवान पारदेश्वर का सामान्य पूजन करे तथा शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करे। भोग में केसर मिश्रित खीर भगवान पारदेश्वर को अर्पित करे।

          अब नीचे कुछ मन्त्र दिए जा रहे हैं, सभी का आपको १०८ बार उच्चारण करना है और जिस मन्त्र के आगे जो सामग्री लिखी गई है वो सामग्री पारदेश्वर शिवलिंग पर अर्पित करना है। अर्थात एक बार मन्त्र पढ़ना है और सामग्री अर्पित करना है। इसी प्रकार हर मन्त्र को १०८ बार पढ़कर सामग्री अर्पण करते जाना है।

ॐ भूत मुक्तेश्वराय नमः।      (काले तिल)
ॐ प्रेत मुक्तेश्वराय नमः।      (सफ़ेद तिल)
ॐ पिशाच मुक्तेश्वराय नमः।        (जौ)
ॐ श्मशानेश्वराय नमः।        (गाय के कण्डे या लकड़ी से बनी भस्म)
ॐ सर्व मुक्तेश्वराय नमः।       (सफ़ेद तथा काले तिल का मिश्रण)
ॐ पितृ मुक्तेश्वराय नमः।      (सफ़ेद तिल, काले तिल तथा जौ का मिश्रण)
  रसेश्वराय नमः।            (दूध मिश्रित जल को पुष्प से छीटें)

          इसके बाद साधक को रुद्राक्ष माला से निम्न मन्त्र की ७ माला जाप करना चाहिए -----

मन्त्र :-----------

।। ॐ हरिहर पितृ-मुक्तेश्वर पारदेश्वराय नमः ।।

OM HARIHAR PITRI-MUKTESHWAR PAARADESHWARAAY NAMAH.

          प्रत्येक माला की समाप्ति के बाद साधक को थोड़े अक्षत लेकर पारदेश्वर पर अर्पण कर देना चाहिए।

          जब मन्त्र जाप पूर्ण हो जाए, तब सम्पूर्ण पूजन एवं जाप एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर भगवान् शिव को अर्पित कर दे तथा उनसे पितृ-शान्ति, पितृ-मुक्ति तथा पितृ-दोष निवारण की प्रार्थना करे।

          भोग की खीर नित्य गाय को खिला दे तथा साधना के बाद पुनः स्नान करे। इसी प्रकार यह साधना को ३ दिन करे।

          साधना समाप्ति के बाद पारदेश्वर को स्नान कराकर पूजा घर में ही स्थापित कर दे तथा समस्त समग्री जो पात्र में एकत्रित हुई है, उन्हें बाजोट पर बिछे वस्त्र में बाँधकर किसी पीपल वृक्ष के नीचे गाड़ दे। यदि यह सम्भव न हो तो वृक्ष के नीचे रख आए, परन्तु प्रयत्न यही करे कि सारी सामग्री गाड़ दी जाए। इस प्रकार यह दिव्य विधान पूर्ण होता है।

            निःसन्देह इस साधना से साधक के सभी पितृ इस प्रयोग से तृप्त होकर साधक को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। पितृ-दोष का नाश होता है, पितृ-शान्ति हो जाती है तथा पितरों को सद्गति प्राप्त होती है। कुपित हुए पितृ शान्त होकर साधक को आर्थिक, दैहिक तथा मानसिक बल प्रदान कर सुखी करते है।

          साधक भाइयों! प्रयोग को स्वयं सम्पन्न कर अनुभव करे तथा अपने पितरों के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करे।

                     आपको साधना में सफलता प्राप्त हो तथा भगवान पारदेश्वर आपके पितरों को शान्ति प्रदान करे!

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।



शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

भुवनेश्वरी साधना प्रयोग

भुवनेश्वरी साधना प्रयोग


               माँ भगवती भुवनेश्वरी जयन्ती निकट ही है। यह २१ सितम्बर २०१८ को आ रही है। आप सभी को भुवनेश्वरी जयन्ती की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

               पृथ्वी लोक पर शायद ही ऐसा कोई साधक होगा, जो भगवती के इस स्वरूप से परिचित न हो। दस महाशक्ति अर्थात महाविद्याओं में भुवनेश्वरी महाविद्या का अत्यन्त ही विशिष्ट स्थान है। भगवती के नाम के विविध अर्थ ही उनकी शक्ति और सामर्थ्य के बारे में संकेत कर ही देते हैं, लेकिन फिर भी उनकी कृपा दृष्टि साधक के जीवन में कितना आनन्द प्रदान कर सकती है, इसकी कोई सीमा ही नहीं है। अनन्त सम्भावनाओं के रास्ते खोल देती है भगवती भुवनेश्वरी की साधना-उपासना।

                सम्पूर्ण जगत या तीनों लोकों की ईश्वरी देवी भुवनेश्वरी नाम की महा-शक्ति हैं तथा महाविद्याओं में इन्हें चौथा स्थान प्राप्त हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रि-भुवन या तीनों लोकों के ईश्वरी या स्वामिनी हैं, देवी साक्षात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दायित्व इन्हीं  भुवनेश्वरी देवी  पर हैं, परिणामस्वरूप ये जगन्-माता तथा जगत-धात्री के नाम से भी विख्यात हैं।

          पंच तत्व अर्थात १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि और  ५. जल, जिनसे इस सम्पूर्ण चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तियों द्वारा संचालित होता हैं। पञ्च तत्वों को इन्हीं, देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं, देवी की इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोकों) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। प्रकृति से सम्बन्धित होने के कारण देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं।

          आद्या शक्ति, भुवनेश्वरी स्वरूप में भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं, सखी हैं। देवी नियन्त्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिए दण्ड का विधान भी तय करती हैं, इनके भुजा में व्याप्त अंकुश, नियन्त्रक का प्रतीक हैं। जो विश्व को वमन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्म नियन्त्रक, जीवों को दण्डित करने के कारण रौद्री, प्रकृति का निरूपण करने से मूल-प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव के वाम भाग को देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदाशिव के सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।

          भुवनेश्वरी नाम का अर्थ ही है ब्रह्माण्ड की अधिष्ठात्री। जो ब्रह्माण्ड की अधिष्ठात्री स्वयं है, वह अपने साधक को भला क्या प्रदान नहीं कर सकती है? अगर साधक पूर्ण श्रद्धा और समर्पण के साथ भगवती की साधना करता है तो निश्चय ही उसे अनुकूलता की प्राप्ति होती है। भले ही वह आध्यात्मिक क्षेत्र हो या भौतिक क्षेत्र, भगवती साधक को दोनों ही क्षेत्रों में उन्नति का आशीर्वाद प्रदान करती है।

          देवी की साधना उपासना जीवन को सुखमय बनाने के लिए, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए आदिकाल होती आई है। इस रहस्यमय शक्ति स्वरूप से सम्बन्धित कई गुप्त प्रयोग एवं प्रक्रियाएँ हैं, जिसके सम्बन्ध में विवरण प्राप्त नहीं होता है। लेकिन सहज रूप से इनके कल्याणमय स्वरूप की साधना उपासना तथा इनके विश्वविख्यात बीज मन्त्र "ह्रीं" के कारण साधकों के मध्य यह प्रिय रही है।

          भगवती से सम्बन्धित कई प्रकार के त्रि-बीज प्रयोग है, जिनमें तीन बीज मन्त्र होते हैं। इनसे सम्बन्धित विविध मन्त्र विविध फल प्रदान करते है। भगवती के विविध त्रि-बीज मन्त्रों में से एक मन्त्र कम प्रचलन में रहा है, लेकिन यह मन्त्र साधक को कई प्रकार के फलों की प्राप्ति करा सकने में समर्थ है। इस गूढ़ मन्त्र का विस्तार अनन्त है तथा इसकी व्याख्या करना असम्भव कार्य ही है। भले ही यह अति सामान्य-सा मन्त्र दिखे, लेकिन यह त्रि-शक्ति अर्थात ज्ञान, इच्छा एवं क्रिया में आ रही न्यूनता को तीव्र रूप से दूर करने में समर्थ है, जिसका अनुभव साधक प्रयोग के माध्यम से कर सकता है।

          एक तरफ यह प्रयोग करने पर साधक के आन्तरिक पक्ष में बदलाव आता है, साधक के नकारात्मक विचार हटकर सकारात्मक विचारों की प्राप्ति होती है तथा आत्मविश्वास का विकास होता है। साथ ही साथ, बाह्य रूप से साधक के जीवन की न्यूनताओं का क्षय होता है। मुख्य रूप से साधक को ऐश्वर्य प्राप्ति में आने वाली बाधाओं का निराकरण होता है। साथ ही साथ साधक को घर-मकान से सम्बन्धित कोई समस्या हो तो उसका समाधान प्राप्त होता है। इस दृष्टि से यह प्रयोग अति उत्तम है, क्योंकि यह साधक के आन्तरिक तथा बाह्य रूप में आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों ही पक्षों में लाभ प्रदान करता है।

साधना विधान :-----------

          इस साधना प्रयोग को साधक भुवनेश्वरी जयन्ती की रात्रि में सम्पन्न करे। यदि यह सम्भव न हो तो साधक इसे किसी भी माह के शुक्लपक्ष के रविवार की रात्रि में कर सकता है। समय रात्रि ९ बजे के बाद का रहे।

          रात्रि में स्नान आदि से निवृत होकर साधक लाल वस्त्रों को धारण करे तथा लाल आसन पर उत्तर की तरफ मुख करके बैठ जाए। अपने सामने साधक एक बाजोट रखकर उसपर लाल वस्त्र बिछाए। फिर किसी पात्र में कुमकुम से ह्रीं बीजमन्त्र लिखकर उसके ऊपर साधक एक हकीक पत्थर रख दे। इसके अलावा अगर सम्भव हो तो बाजोट पर साधक को भगवती भुवनेश्वरी का यन्त्र या चित्र भी स्थापित कर देना चाहिए।

          इसके बाद साधक सामान्य गुरुपूजन करके गुरुमन्त्र का जाप करे और मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लेकर उनसे साधना की सफलता के लिए निवेदन करे।

          फिर संक्षिप्त गणेशपूजन सम्पन्न करे तथा किसी गणेश मन्त्र का जाप कर उनसे साधना की निर्विघ्न पूर्णता के लिए प्रार्थना करे।

          इसके बाद साधक को संकल्प अवश्य लेना चाहिए। फिर उस हकीक पत्थर पर ही माँ भगवती भुवनेश्वरी का सामान्य पूजन सम्पन्न करे और कोई भी मिठाई भोग में अर्पण करे। इसके बाद साधक निम्नानुसार न्यास सम्पन्न करे -----

कर-न्यास :----------

ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।            (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः।             (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः।             (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः।         (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रौं  कनिष्ठिकाभ्यां नमः।       (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।   (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)

अङ्ग-न्यास :----------

ॐ ह्रां हृदयाय नमः।           (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा।           (सिर को स्पर्श करें)
ॐ ह्रूं शिखायै वषट्।            (शिखा को स्पर्श करें)
ॐ ह्रैं कवचाय हुम्।             (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।        (नेत्रों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।            (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)

          तत्पश्चात साधक हाथ जोड़कर माँ भगवती भुवनेश्वरी का निम्नानुसार ध्यान करे -----

ॐ उद्यदिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
       स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ।।

          इसके बाद साधक निम्न मन्त्र की १०१ माला उसी रात्रि में जाप कर ले -----

मन्त्र :-----------

                 ।। ॐ ह्रीं क्रों ।।

                                  OM HREEM KROM.

          इस मन्त्र में मात्र तीन बीज है, अतः १०१ माला जाप में ज्यादा समय नहीं लगता है। यह जाप मूँगामाला, शक्ति माला या लाल हकीक माला से करे।

          जाप समाप्ति के बाद साधक एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर समस्त जाप माँ भगवती भुवनेश्वरी देवी को ही समर्पित कर दे तथा आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करे।

          साधक को माला का विसर्जन नहीं करना है, यह माला आगे भी भुवनेश्वरी साधना के लिए उपयोग में लायी जा सकती है। हकीक पत्थर को पूजा स्थान में स्थापित कर दे। ह्रीं बीज लिखे हुए पात्र को धो ले।

         आपकी साधना सफल हो और माँ भगवती आप पर कृपालु हो! मैं सद्गगुरुदेव भगवानजी से ऐसी ही प्रार्थना करता हूँ!

          इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश ।।।


बुधवार, 5 सितंबर 2018

मयूरेश स्तोत्र साधना

मयूरेश स्तोत्र साधना

     ॐ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ।

     निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा॥”

           हम परम्परा अनुसार भी और चूँकि बचपन से हम सबने इसी तरह की विधियाँ दैनिक जीवन में देखी हैं, अतः हम भी उसी पर चलने के आदि हैं, जो कि शास्त्र सम्मत भी है कि किसी भी शुभ कार्य के पहले भगवान गणपतिजी का स्मरण किया जाता है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि भगवान गणपति समस्त विघ्नों का नाश करने वाले, कार्यों में सिद्धि देने वाले तथा जीवन में सभी प्रकार से पूर्णता देने वाले हैं।

           इसीलिए "कलौ चण्डी विनायको" कहा गया है अर्थात् कलियुग में दुर्गा एवं गणपति ही पूर्ण सफलता देने में सहायक है। चाहे मानव हो, देव हो या असुर हो, सभी प्रत्येक कार्य की निर्विघ्न  सफलता हेतु भगवान गणपतिजी की साधना सम्पन्न करते ही हैं, स्वयं भगवान शिव ने भी गणेश साधना सम्पन्न कर अपने कार्यों को को निर्विघ्न सम्पन्न किया है।

          तुलसीदासजी ने राम चरित मानस में कहा है कि -------

जो सुमिरत सिद्धि होय, गणनायक करिवर वदन।

करउ अनुग्रह सोई, बुद्धि राशि शुभ गुण सदन॥”

          विश्व के समस्त साधक इस बात पर एक मत है कि प्रत्येक कार्य को सफलता पूर्वक सम्पन्न करने के लिए सर्वप्रथम गणपति का ध्यान या उनकी पूजा आवश्यक है। देवताओं में भी गणपति की पूजा को सर्वप्रथम स्वीकार किया है, यही नहीं अपितु भगवान शिव ने भी कार्य की सफलता के लिए सबसे पहले गणपति साधना को आवश्यक बताया है।

          सद्गुरुदेवजी ने गणपति साधना की अनेक विधियाँ बताई हैं, मान्त्रिक भी और तान्त्रिक भी, साथ ही स्त्रोत साधना भी। उन्हीं में से एक मयुरेश स्त्रोत का वर्णन भी है। यूँ तो गणपतिजी से सम्बन्धित सैकड़ों, हज़ारों स्त्रोत हैं, किन्तु मयुरेश स्त्रोत उनमें सर्वोपरि माना गया है। यह स्तोत्र अपने आप में चैतन्य और मन्त्र सिद्ध है, अतः इसका पाठ ही पूर्ण सफलता देने में सहायक है।

          सभी प्रकार की चिन्ता एवं रोग, गृह-बाधा शान्ति हेतु, बच्चों के रोग निवारण हेतु, घर में सुख-शान्ति हेतु, हर क्षेत्र में उन्नति तथा प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए मयूरेश स्तोत्र को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इन्द्र ने स्वयं इस स्तोत्र के द्वारा गणपति को प्रसन्न कर विघ्नों पर विजय प्राप्त की थी।           

          इस स्तोत्र का पाठ सभी व्यक्ति स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, युवा कोई भी कर सकता है। हमारे जीवन में यदि इस स्त्रोत के पाठ से दिन का आरम्भ हो तो यह अति शुभ है।

साधना विधान :-----------

          आप यह साधना गणेश चतुर्थी से आरम्भ कर सकते हैं। यदि यह सम्भव न हो तो इसे किसी भी माह के शुक्लपक्ष की चतुर्थी अथवा किसी भी बुधवार से शुरु किया जा सकता है।

          सर्वप्रथम साधक को स्नान कर सफ़ेद या पीले वस्त्र धारण कर आसन पर बैठ जाना चाहिए। यह आसन पीला या सफ़ेद रंग का हो सकता है। साधक को पूर्व की तरफ मुँह करके बैठना चाहिए। अपने सामने गणपति की मूर्ति या चित्र स्थापित कर देनी चाहिए।

          अब सबसे पहले पूज्यपाद पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का स्मरण कर पञ्चोपचार से पूजन करे और गुरुमन्त्र का यथाशक्ति जाप करें।

          इसके बाद साधक या साधिका को भक्तिपूर्वक भगवान गणपतिजी को हाथ जोड़ कर प्रणाम करना चाहिए और निम्नानुसार ध्यान करना चाहिए ------

ॐ खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम्

प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम्।

दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकरम्

वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम्।।

          तत्पश्चात भगवान गणपति के बारह नामों का स्मरण करना चाहिए, जिससे कि हम जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकें। यात्रा पर रवाना होते समय या प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व भी इन बारह नामों का स्मरण करना सिद्धिदायक माना गया है -----

ॐ सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।

लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः

धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।

द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि

विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।

संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते

          इसके बाद भगवान गणपतिजी की पूजा होनी चाहिए। देवताओं के षोडश पूजन में निम्नलिखित उपचार माने गए हैं -----

(१) आवाहन,  (२) आसन,  (३) पाद्य,  (४) अर्घ्य,  (५) आचमनीय,  (६) स्नान,  (७) वस्त्र,  (८) यज्ञोपवीत,  (९) गन्ध,  (१०) पुष्प {दूर्वा},  (११) धूप,  (१२) दीप,  (१३) नेवैद्य,  (१४) ताम्बूल,  (१५) प्रदक्षिणा और (१६) पुष्पाञ्जलि।

सावधानियाँ :-----------

१. गणपतिजी की पूजा में तुलसी पत्र का प्रयोग सर्वथा निषिद्ध है।

२. गणपतिजी को दूर्वादल अत्यन्त प्रिय है।

३. अर्घ्य में जल के अतिरिक्त निम्न ८ वस्तुएँ होती है -----

     (१) दही (२) दूर्वा (३) कुशाग्र (४) पुष्प (५) अक्षत

     (६) कुमकुम (७) सुपारी और (८) पीली सरसों।

          इन ८ वस्तुओं को एक पात्र में लेकर गणपतिजी को अर्घ्य दिया जाता है।

४. कोई सामग्री उपलब्ध न हो तो उसके स्थान पर अक्षत का प्रयोग किया जाना चाहिए।

५. साधनाकाल में घी का दीपक प्रज्ज्वलित रहना चाहिए तथा गणपति को भोग में मोदक (लड्डू) अर्पण करना आवश्यक है।

          गणपतिजी की पूर्ण पूजा करने के बाद साधक को चाहिए कि वह मयूरेश स्तोत्र के २१ या ५१ अथवा १०८ पाठ करे।

॥ मयूरेश स्तोत्रम् ॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥

पुराणपुरुषं देवं नानाक्रीडाकरं मुदा।

मायाविनं दुर्विभाव्यं मयूरेशं नमाम्यहम्॥१॥

परात्परं चिदानन्दं निर्विकारं हृदिस्थितम्।

गुणातीतं गुणमयं मयूरेशं नमाम्यहम्॥२॥

सृजन्तं पालयन्तं च संहरन्तं निजेच्छया।

सर्व विघ्नहरं देवं मयूरेशं नमाम्यहम्॥३॥

नानादैत्यनिहन्तारं नानारूपाणि बिभ्रतम्।

नानायुधधरं भक्त्या मयूरेशं नमाम्यहम्॥४॥

इन्द्रादिदेवतावृन्दैरभिष्टतमहर्निशम्।

सदसद्वयक्तमव्यक्तं मयूरेशं नमाम्यहम्॥५॥

सर्वशक्तिमयं देवं सर्वरूपधरं विभुम्।

सर्वविद्याप्रवक्तारं मयूरेशं नमाम्यहम्॥६॥

पार्वतीनन्दनं शम्भोरानन्दपरिवर्धनम्।

भक्तानन्दकरं नित्यं मयूरेशं नमाम्यहम्॥७॥

मुनिध्येयं मुनिनुतं मुनिकामप्रपूरकम्।

समष्टिव्यष्टिरूपं त्वां मयूरेशं नमाम्यहम्॥८॥

सर्वज्ञाननिहन्तारं सर्वज्ञानकरं शुचिम्।

सत्यज्ञानमयं सत्यं मयूरेशं नमाम्यहम्॥९॥

अनेककोटिब्रह्माण्डनायकं जगदीश्वरम्।

अनन्तविभवं विष्णुं मयूरेशं नमाम्यहम्॥१०॥

फलश्रुति

मयूरेश उवाच

इदं ब्रह्मकरं स्तोत्रं सर्वपापप्रनाशनम्।

सर्वकामप्रदं नृणां सर्वोपद्रवनाशनम्॥११॥

कारागृहगतानां च मोचनं दिनसप्तकात्।

आधिव्याधिहरं चैव भुक्तिमुक्तिप्रदं शुभम्॥१२॥

॥ इति मयूरेशस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

          स्तोत्र पाठ के पश्चात एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर समस्त जाप समर्पित कर देना चाहिए। इस साधना को आप चाहे तो गणेश चतुर्थी से अनन्त चतुर्दशी तक नियमित सम्पन्न कर सकते हैं। यदि यह सम्भव न हो तो प्रत्येक पक्ष की चतुर्थी अथवा प्रत्येक बुधवार को कर सकते हैं।

          यह स्तोत्र समस्त प्रकार की चिन्ताओं तथा परेशानियों को दूर करने वाला,  समस्त प्रकार के भौतिक सुख,  आर्थिक उन्नति,  व्यापार में लाभ,  राज्य कार्य में विजय तथा समस्त उपद्रवों का नाश करने में पूर्णतः समर्थ है।

          स्त्री या बालक भी स्तोत्र का पाठ कर सकते हैं। किसी भी वर्ण या जाति का व्यक्ति इस पाठ को श्रद्धापूर्वक कर सकता है। स्त्रियों को चाहिए कि वह रजस्वला दिन से सात दिन तक गणपति पूजन न करे,  सात दिनों तक स्त्री पूजन कार्य या मांगलिक कार्य में अशुद्ध मानी जाती है।

          गणपति की पूजा में सुगन्धित द्रव्य तथा घी का दीपक विशेष महत्वपूर्ण है। साधक को चाहिए कि वह नित्य अपने नित्य पूजा कर्म में इस स्तोत्र को सम्मिलित कर लें तथा सर्वप्रथम गणपति पूजन एवं मयूरेश स्तोत्र का पाठ करे,  गायत्री स्मरण भी इसके बाद किया जाना चाहिए।

          इसमें कोई दो राय नहीं कि यह स्तोत्र अत्यन्त ही महत्वपूर्ण,  त्वरित सफलतादायक, विघ्नों,  बाधाओं और कठिनाइयों को दूर करने में समर्थ तथा रोग निवारण,  सफलता एवं जीवन में समस्त प्रकार की भौतिक सुविधाओं को प्रदान करने में समर्थ व सर्वश्रेष्ठ है।

          इस तरह आप अपने जीवन में शुभता को प्रविष्ट कराकर, निर्विघ्न होकर, अपने कार्यों को सम्पन्न कर सकते हैं और अपने साधनात्मक जीवन में भी सफलता प्राप्त कर सकते हैं।     

          इसी के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।।