मंगलवार, 15 मई 2018

वासुदेव विष्णु साधना

वासुदेव विष्णु साधना



          भगवान विष्णु हिन्दू धर्म के अनुसार परमेश्वर के तीन मुख्य स्वरूपों में से एक सर्वमान्य रूप हैं। पुराणों के अनुसार त्रिदेवों में विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिदेवों के  दो अन्य स्वरूपों में भगवान शिव और ब्रह्मा को माना गया है। जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना गया है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। आदिशक्ति सात्विक स्वरूप में साक्षात् श्रीहरि विष्णु में विद्यमान महामाया हैं। सर्वदा क्षीर सागर के मध्य शेष नाग की शय्या पर शयन करने वाले श्रीहरि विष्णु से जो तामसी तथा संहारक शक्ति उत्पन्न होती हैं, वे योगमाया नाम से विख्यात हैं तथा उनकी शक्ति हैं। इसी शक्ति से सम्पन्न होकर वे दुराचारियों-आतताइयों का वध कर तीनों लोक के संरक्षण कार्य में संलग्न होते हैं। सम्पूर्ण जीवों के आश्रय होने के कारण भगवान श्री विष्णु ही नारायण कहे जाते हैं। सर्वव्यापक परमात्मा ही भगवान श्री विष्णु हैं। यह सम्पूर्ण विश्व भगवान विष्णु की शक्ति से ही संचालित है।

          विष्णु शब्द का अर्थ, उपस्थित होने से हैं, जो सर्वदा सभी तत्वों तथा स्थानों में व्याप्त हैं, वही विष्णु हैं। परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म के अन्तर्गत, ब्रह्माण्ड के प्रत्येक तत्व या कण-कण में परमेश्वर या ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति की जाती हैं। चराचर जगत के पालनकर्ता श्री विष्णु, श्री हरि, श्री नारायण इत्यादि नामों से विख्यात हैं तथा जिनको जगत में विशेषकर भारतवर्ष में लोग देवता के रूप में आदि काल से ही मानते चले आ रहे हैं और इनकी उपासना बहुत अधिकता से होती आई है। ऋग्वेद में यद्यपि विष्णु गौण देवता माने गए हैं, पर ब्राह्मण ग्रन्थों में इनका महत्व बहुत अधिक है। ऋग्वेद में विष्णु विशाल शरीरवाले और युवक माने गए हैं और कहा गया है कि ये त्रि + वि + क्रम अर्थात् तीन कदमों या डगों से सारे विश्व को अतिक्रमण करनेवाले हैं। पुराणों के वामन अवतार का यही बीज रूप है। कुछ लोगों ने इन तीनों डगों या कदमों का अर्थ सूर्य का दैनिक उदय और अस्त माना है तथा कुछ लोग इसका अर्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्गलोक लेते हैं। इसके अतिरिक्त ये नियमित रूप, बहुत दूर तक और जल्दी-जल्दी चलने वाले माने गए हैं। 

          यह भी कहा गया है कि ये इन्द्र के मित्र थे और वृत्र के साथ युद्ध करने में इन्होंने इन्द्र को सहायता दी थी । विष्णु और इन्द्र दोनों मिलकर वातावरण, अन्तरिक्ष, सूर्य, उषा और अग्नि के उत्पादक माने गए हैं और विष्णु इस पृथ्वी, स्वर्ग तथा सब जीवों के मुख्य आधार कहे गए हैं। ऋग्वेद और शतपथ ब्राह्मण में कुछ ऐसी कथाएँ भी हैं, जो पौराणिक काल के वराह, मत्स्य तथा कूर्म अवतार का भी मूल या आरम्भिक रूप मानी जा सकती हैं। वैदिक काल में विष्णु धन, वीर्य और बल देनेवाले तथा सब लोगों का अभीष्ट सिद्ध करने वाले माने जाते थे। 

          पुराणों के अनुसार विष्णु समय-समय पर पृथ्वी का भार हल्का करने के लिये, संसार में शान्ति और सुख की स्थापना करने के लिये और दुष्टों तथा पापियों का नाश करने के लिये अवतार धारण किया करते हैं। विष्णु के कुल चौबीस अवतार कहे गए हैं, जिनमें से दस मुख्य माने गए हैं, जिन्हें दशावतार के रूप में जाना जाता है। भिन्न-भिन्न पुराणों में विष्णु के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की कथाएँ और उनकी उपासना आदि का बहुत अधिक माहात्म्य मिलता है। विष्णु के उपासक वैष्णव कहलाते हैं। इनकी स्त्री का नाम श्री या लक्ष्मी कहा गया हैं। ये युवक, श्यामवर्ण और चतुर्भुज माने गए हैं। ये चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए रहते है। इनके शंख का नाम पाँचजन्य, चक्र का नाम सुदर्शन और गदा का नाम कौमोदकी है। इनकी तलवार का नाम नन्दक और धनुष का नाम शार्ङ्ग है। इनका वाहन वैनतेय नामक गरुड़ माना जाता है। पुराणों में इनके एक हजार नाम माने गए हैं और उन नामों का जप बहुत शुभ फल देनेवाला माना जाता है। नारायण, कृष्ण, वैकुण्ठ, दामोदर, केशव, माधव, मुरारि, अच्युत, हृषीकेश, गोविन्द, पीताम्बर, जनार्दन, चक्रपाणि, श्रीपति, मधुसूदन, हरि आदि इनके प्रसिद्ध नाम हैं।

          सृष्टि का आरम्भ भगवान विष्णु से माना गया है और यह संसार विष्णु की ही माया (लीला) का स्वरूप है। भगवान विष्णु का सगुण स्वरूप भी है और निर्गुण स्वरूप भी, माया रूपी स्वरूप में वे लक्ष्मी के साथ अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करते हैं।

          मुझे याद है कि बचपन में हम जिस गुरुकुल में जाते थे, वहाँ के आचार्य प्रातःकालीन और सायंकालीन संध्या करते थे तो हम सब बालक भी वहाँ बैठते थे। संध्या की विशेष विधि का ज्ञान नहीं था तो हमारे आचार्य श्री ने कहा कि सब बालक नेत्र बन्द कर ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मन्त्र का जाप करें। यह जीवन की आधार शक्ति का मूल मन्त्र है। सभी देवी-देवता भगवान श्रीविष्णु की लीला के आधीन है और आज भी जब मन अशान्त होता है, कार्य में बाधाएँ आती हैं, कोई मार्ग नहीं मिलता तो मैं हाथ-मुँह धोकर एक दीपक जलाकर शान्तभाव से बैठकर एक माला उपरोक्त मन्त्र का जाप करता हूँ और अपने आप एक मार्ग देखने लगता है।

          विष्णु साधना का पुरश्चरण बारह लाख मन्त्रों का जाप है और पुरश्चरण के पश्चात इसके शतांश बारह हजार मन्त्रों का हवन विधान भी है। विष्णु मन्त्र को चैतन्य मन्त्र माना गया है, इसी कारण विष्णु साधना में सफलता प्राप्त होती ही है।

सर्वोपरि साधना : विष्णु साधना

     १. विष्णु साधना आधार शक्ति की साधना है, जिससे पूर्व जन्मकृत दोष और वर्तमान जन्म के दोष दूर होते हैं।
     २. विष्णु साधना से व्यक्तित्व में तेजस्विता आती है, जीवन में नेतृत्व की क्षमता प्राप्त होती है।
     ३. विष्णु साधना कर्म प्रधान साधना है, साधक कर्मशील, कर्त्तव्यशील बनता है और अपने बलबूते पर आगे बढ़ने हेतु कार्यशील होता है।
     ४. विष्णु साधना शक्ति की साधना है। साधक को सुदर्शन चक्र शक्ति प्राप्त होती है, क्योंकि जहाँ विष्णु है, वहाँ लक्ष्मी का वास होता ही है।
     ५. विष्णु साधना पूरे परिवार की साधना है और ग्रह शान्ति, पारिवारिक उन्नति, पुत्र-पौत्र प्राप्ति, सहयोग तथा सुख की साधना है।
          साधना का मार्ग संक्षिप्त नहीं है और जब भी साधना करें तो पूर्ण विधि-विधान सहित सम्पन्न करें। उसी रूप में साधना करने पर पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। आगे जो साधना विधान दिया जा रहा है, उसमें विनियोग है,  न्यास भी है, ध्यान व पूजन भी है, उन्हें उसी रूप में सम्पन्न करना है।

कैसे बनता है अधिक मास या पुरुषोत्तम मास?

          सौर वर्ष और चान्द्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिए हर तीसरे वर्ष पंचांगों में एक चान्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। इसी को अधिक मास या अधिमास या मलमास कहते हैं। सौर-वर्ष का मान ३६५ दिन १५ घड़ी २२ पल और ५७ विपल हैं। जबकि चान्द्र-वर्ष ३५४ दिन २२ घड़ी १ पल और २३ विपल का होता है। इस प्रकार दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन ५३ घटी २१ पल अर्थात लगभग ११ दिन का अन्तर पड़ता है। इस अन्तर में समानता लाने के लिए चान्द्र-वर्ष १२ मासों के स्थान पर १३ मास का हो जाता है।

          अधिक मास को स्वयं भगवान पुरुषोत्तम ने अपना नाम दिया है, इसलिए इसे पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। कम ही लोग ये बात जानते होंगे कि अधिक मास भी कई प्रकार का होता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार अलग-अलग कारणों से अधिक मास के तीन प्रकार बताए गए हैं। सामान्य अधिकमास, संसर्प अधिकमास और मलिम्लुच अधिकमास।

          ज्योतिषियों के अनुसार जो अधिकमास क्षयमास के बिना आता है अर्थात वर्ष में केवल एक अधिकमास आता है वह सामान्य अधिकमास होता है।

          वर्तमान में जो अधिकमास चल रहा है, वह इसी प्रकार का है। भारतीय पंचांग के अनुसार सभी नक्षत्र, तिथियाँ-वार, योग-करण के अलावा सभी माह के कोई न कोई देवता स्वामी है, किन्तु पुरुषोत्तम मास का कोई स्वामी न होने के कारण सभी मंगल कार्य, शुभ और पितृ कार्य इस माह में वर्जित माने जाते हैं।

                       इस वर्ष ज्येष्ठ मास दो हैं, इन दोनों ज्येष्ठ मासों का मध्य भाग अधिमास या पुरुषोत्तम मास कहलाता है, यह मास शुक्ल पक्ष से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा १६ मई २०१८ से द्वितीय ज्येष्ठ अमावस्या १३ जून २०१८ को पूर्ण होता है।

क्यों विशेष है अधिक मास?

          हिन्दू धर्म में अधिक मास को बहुत ही पवित्र और पुण्य फल देने वाला माना गया है। अधिक मास को पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं। इस महीने में भगवान पुरुषोत्तम की पूजा करने व श्रीमद्भागवत की कथाएँ सुनने, मन्त्र जाप, तप व तीर्थ यात्रा का भी बड़ा महत्व है। वास्तव में यह तो विष्णु और लक्ष्मी की पूजा एवं साधना करने का सर्वोत्तम मास है। इस महीने में पवित्र नदियों में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसी मान्यता है। अधिक मास में सात्विक भोजन, शाकाहारी भोजन, दूध, फल, वनस्पतियों, फलाहार, नारियल इत्यादि का सेवन करना चाहिए।

साधना विधान :-----------

          यह साधना आप पुरुषोत्तम मास में सम्पन्न करें, क्योंकि पुरुषोत्तम मास विष्णु साधना के लिए सर्वश्रेष्ठ है। वैसे तो विष्णु साधना केवल श्राद्धपक्ष को छोड़कर किसी भी शुभ मुहूर्त में, किसी भी रविवार या गुरुवार को आरम्भ की जा सकती है। साधना काल में हर रविवार को यह पूजा विधान अवश्य सम्पन्न करना चाहिए।     इस साधना में साधक के आसन  वस्त्र पीले रहेंगे और दिशा उत्तर होगी।

          इस साधना में मूल रूप स विष्णु यन्त्र आवश्यक है, जिसे लकड़ी के एक पट्टे (चौकी) पर पीला वस्त्र बिछाकर स्थापित करें और पूरे अनुष्ठान में उसी रूप में स्थापित रहने दें। इसे हटाना नहीं है। इसके अतिरिक्त अबीर, गुलाल, कुमकुम, केसर, चन्दन, मौलि, सुपारी तथा अर्पण हेतु प्रसाद आवश्यक है।

          इस साधना क्रम में विष्णु के सभी स्वरूपों का पूजन किया जाता है। यह पूजन करते हुए द्वादश कमल बीज चन्दन में डुबोकर भगवान विष्णु को अर्पित करना है। इसके लिए काफी मात्रा में चन्दन घिसकर पहले से ही रख लेना चाहिए।

          श्रीविष्णु की साधना में विनियोग, साधना तथा पंचावरण पूजा का विशेष विधान है। सभी दिशाओं में स्थित विष्णु स्वरूपों का पूजन किया जाता है, अतः इसे इसी रूप में सम्पन्न करना है। दाहिने हाथ से शरीर के अंगों को स्पर्श करना है, अर्पण भी दाहिने हाथ से ही किया जाता है, इस बात का विशेष ध्यान रहे।

विनियोग :-----------

          दाहिने हाथ में जल लेकर विनियोग मन्त्र का उच्चारण करें ------

         ॐ अस्य श्री द्वादशाक्षरमन्त्रस्य प्रजापतिः ऋषिः गायत्री छन्दः वासुदेव परमात्मा देवता सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनियोगः।

          और फिर जल को भूमि पर छोड़ दें।

ऋषयादि न्यास :-----------

ॐ प्रजापति ऋषये नमः शिरसि।       (सिर को स्पर्श करें)
गायत्री छन्दसे नमः मुखे।                 (मुख को स्पर्श करें)
वासुदेव परमात्मा देवतायै नमः हृदि।  (हृदय को स्पर्श करें)
विनियोगाय नमः सर्वांगे।                  (सभी अंगों को स्पर्श करें)

कर न्यास :-----------

ॐ अँगुष्ठाभ्याम् नमः।         (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठों को स्पर्श करें)
नमो तर्जनीभ्याम् नमः।          (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
भगवते मध्यमाभ्याम् नमः।      (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
वासुदेवाय अनामिकाभ्याम् नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय कनिष्ठिकाभ्याम् नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)

हृदयादि न्यास :-----------

ॐ हृदयाय नमः।           (हृदय को स्पर्श करें)
नमो शिरसे स्वाहा।         (सिर को स्पर्श करें)
भगवते शिखायै वषट्।         (शिखा को स्पर्श करें)
वासुदेवाय कवचाय हुम्।       (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अस्त्राय फट्। (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)

ध्यान :-----------

          हाथ जोड़कर वासुदेव स्वरूप भगवान विष्णु का ध्यान करें ------

ॐ विष्णुं शारद चन्द्रकोटि सदृश शंखं रथांगं गदाम्,
अम्भोजं दधतं सिताब्जनिलयं कान्त्या जगन्मोहनम्।
आबद्धांगदहारकुण्डल महामौलिं स्फुरत्कंकणम्,
श्रीवत्सांकमुदार कौस्तुभधरं वन्दे मुनिन्द्रैः स्तुतम्।।

पीठशक्ति पूजन

          अपने सामने जो यन्त्र स्थापना के लिए पीठ बनाई है, उस पर वस्त्र बिछाकर सबसे पहले पीठ पूजन किया जाता है और यह पूजन पूर्व दिशा से प्रारम्भ करते हुए आठ दिशाओं तथा अन्त में पीठ की मध्य दिशा का पूजन किया जाता है। यह क्रम निम्न प्रकार से  होगा, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक पीठशक्ति का ध्यान कर उस दिशा में पुष्प चढ़ाएं ------

ॐ विमलायै नमः।  (पूर्व में)
ॐ उत्कर्षिण्यै नमः।
ॐ ज्ञानायै नमः।
ॐ क्रियायै नमः।
ॐ योगायै नमः।
ॐ प्रहर्यै नमः।
ॐ सत्यायै नमः।
ॐ ईशानायै नमः।
ॐ अनुग्रहायै नमः।  (मध्य में)

          इस प्रकार नवपीठशक्तियों की पूजा करने के बाद यन्त्र स्थापना आरम्भ होती है। हाथ में पुष्प लेकर उसे चन्दन में डुबोकर पीठ के मध्य में आसन स्थापित करें और निम्न मन्त्र बोलते हुए यन्त्र को पुष्प के इस आसन पर स्थापित करें -----

ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय सर्वात्मसंयोगापद्मपीठात्मने नमः।

          इसके बाद यन्त्र का षोडशोपचार अथवा पंचोपचार पूजन करें। यथाशक्ति नेवैद्य अर्पित करें।

          तत्पश्चात यन्त्र पर द्वादश कमल बीज भगवान विष्णु के द्वादश स्वरूपों का ध्यान करते हुए अर्पित करना है। प्रत्येक कमल बीज को चन्दन में डुबोकर नीचे दिए गए प्रत्येक मन्त्र का उच्चारण करके यन्त्र पर अर्पित करते जाएं -----

ॐ ॐ केशवाय नमः  श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ नं नारायणाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ मों माधवाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ भं गोविन्दाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ गं विष्णवे नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ वं मधुसूदनाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ तें त्रिविक्रमाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ वां वामनाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ सुं श्रीधराय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ दें हृषीकेशाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ वां पद्मनाभाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ यं दामोदराय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।

          तदुपरान्त हाथ जोड़कर भगवान विष्णु को निम्न मन्त्रोच्चारण से नमस्कार करें -----

ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं, विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं, वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

          इस प्रकार प्रणाम करने के बाद शान्त भाव में बैठकर वैजयन्ती माला से निम्न मन्त्र का जाप करना चाहिए -----

मन्त्र :-----------

।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।

OM NAMO BHAGVATE VAASUDEVAAYA.

          मन्त्र जाप के बाद एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर समस्त जाप भगवान वासुदेव विष्णु को ही समर्पित कर दें।

          इस साधना में मन्त्र जाप की संख्या साधक की इच्छा पर निर्भर करती है और यह क्रम निरन्तर चलते रहना चाहिए। शास्त्रोक्त विधान है कि बारह अक्षर के इस मन्त्र का सम संख्या लक्ष अर्थात् बारह लाख मन्त्रों का जाप करने से साधक को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है तथा भगवान विष्णु की अभीष्ट कृपा सिद्धि से साधक मनोवांछित फल प्राप्त करता है। सब प्रकार के पाप दोष दूर होकर साधक श्रीविष्णु का तेज ग्रहण करने में समर्थ रहता है। यह साधना तो निश्चय ही सर्वोत्तम साधना है।

          वर्तमान समय में सामान्य साधक के लिए इतने अधिक मन्त्र जाप सम्भव नहीं है। इसलिए साधक सवा लाख मन्त्र जाप का संकल्प लें और ११, २१ अथवा २४ दिनों में मन्त्र जाप सम्पन्न कर लें।

          आपकी साधना सफल हो और मनोकामना पूर्ण हो! मैं सद्गुरुदेव भगवान परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

          इसी कामना के साथ

  नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश  आदेश।।।

मंगलवार, 8 मई 2018

तान्त्रोक्त शनि साधना

तान्त्रोक्त शनि साधना



                       शनि जयन्ती समीप ही है। यह इस बार १५ मई २०१८ को आ रही है। इस अवसर का सदुपयोग करके शनि की साढ़ेसातीअढ़ैया अथवा जन्म कुण्डली में शनि ग्रह की अशुभ स्थिति के कारण होने वाली पीड़ाओं,बाधाओं और कुप्रभावों को दूर किया जा सकता है।

          शनि ग्रह उग्र प्रकृति का ग्रह है। शनि सूर्य पुत्र है और सदैव वक्र गति से चलता है, लेकिन इसका प्रभाव अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। शनि को तीव्र ग्रह माना गया है, क्योंकि यह तामस स्वभाव वाला ग्रह है। सामान्यतः यह माना जाता है कि यह चिन्ता कारक ग्रह है। वास्तव में शनि चिन्तन कारक ग्रह है, जो कि मनुष्य को हर समय सोचने के लिए विवश करता रहता है।

          मनुष्य जीवन में सबसे अधिक चिन्ता का कारण आयु, मृत्यु, धन-हानि, घाटा, मुकदमा, शत्रुता इत्यादि है। इसके अलावा चतुराई, धूर्तता, लोहा, तिल, तेल, ऊन, हिंसा आदि का भी यह कारक ग्रह है। इसीलिए शनि ग्रह की शान्ति सभी चाहते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि यह सूर्य पुत्र होते हुए भी अपने पिता सूर्य से शत्रुवत् व्यवहार करता है और कई स्थितियों में तो यह सूर्य के प्रभाव को भी कम कर देता है। यह मकर एवं कुम्भ राशि का स्वामी है। इसका उच्च स्थान तुला राशि तथा नीच स्थान मेष राशि है। शनि ग्रह बुध के साथ सात्विक व्यवहार व शुक्र के साथ होने पर राजसी व्यवहार तथा चन्द्रमा और सूर्य के साथ शत्रुवत् व्यवहार करता है। यह मन्द गति का ग्रह है और इससे आकस्मिक विपत्ति, नौकरी के अलावा, राजनैतिक जीवन में सफलता-असफलता जानी जाती है। यह ग्रह तस्करी, जासूसी, दुष्कर्म भी  करा सकता है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह अपने स्थान से सातवें भाव के अलावा तीसरे एवं दसवें भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है।

          जैसा कि मैंने ऊपर विवेचन दिया है कि शनि चिन्तन प्रधान ग्रह है। इस कारण हर व्यक्ति शनि से डरता है और शनि बाधा का उपाय भी ढूँढता है। वास्तव में बलवान शनि मनुष्य को विपत्ति में भी लड़ने की क्षमता और ऐसे ही कई गुणों का विकास करता है, जिससे वह व्यक्ति दूसरों पर हावी रह सकता है। किसी भी देवता को अनुकूल किया जा सकता है तो शनि को भी अनुकूल किया जा सकता है। वैसे विपरीत शनि होने पर मनुष्य उन्माद, रोग, अकारण क्रोध, वात रोग, स्नायु रोग इत्यादि से ग्रसित हो सकता है। शनि थोड़ा स्वार्थी ग्रह है, इस कारण यह व्यक्ति की कुण्डली में श्रेष्ठ होने पर उसे अभिमान युक्त, किसी भी प्रकार से प्रगति करने की कला से युक्त कर देता है। इसकी विंशोतरी दशा में शनि की महादशा १९ वर्ष की होती है तथा २९ वर्ष ५ महीने १७ दिन में यह बारह राशियों का भ्रमण कर लेता है।

         शनि ग्रह के चार पाये यानि पाद लौह, ताम्र, स्वर्ण, और रजत के होते हैं। शनि ग्रह जब गोचर में सोना या स्वर्ण और लोहपाद में चल रहा होता है तो शनि ग्रह का अच्छा प्रभाव नहीं माना जाता और शनि ग्रह चाँदी या ताँबे के पाये से चल रहा होता है तो उनको अच्छा-बुरा दोनों ही फल देखने को मिलते हैं। शनि ग्रह अपना प्रभाव तीन चरणों में दिखाता है, जो साढ़े सात सप्ताह से आरम्भ होकर साढ़े सात वर्ष तक लगातार जारी रहता है।

पहला चरण
          जातक का मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है तथा वह अपने उद्देश्य से भटक कर चंचल वृति धारण कर लेता है। उसके अन्दर अस्थिरता का अभाव अपनी गहरी पैठ बना लेता है। पहले चरण की अवधि लगभग ढाई वर्ष तक होती है।

दूसरा चरण
          मानसिक के साथ-साथ शारीरिक कष्ट भी उसको घेरने लगते हैं। उसके सारे प्रयास असफल होते जाते हैं। तन-मन-धन से वह निरीह और दयनीय अवस्था में अपने को महसूस करता है। इस दौरान अपने और परायों की परख भी हो जाती है। अगर उसने अच्छे कर्म किए हों, तो इस दौरान उसके कष्ट भी धीरे-धीरे कम होने लगते हैं। यदि दूषित कर्म किए हैं और गलत विचारधारा से जीवनयापन किया है तो साढ़ेसाती का दूसरा चरण घोर कष्टप्रद होता है। इसकी अवधि भी ढाई साल की होती है।

तीसरा चरण
          तीसरे चरण के प्रभाव से ग्रस्त जातक अपने सन्तुलन को पूर्ण रूप से खो चुका होता है तथा उसमें क्रोध की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है। इस वजह से हर कार्य का उल्टा ही परिणाम सामने आता है तथा उसके शत्रुओं की वृद्धि होती जाती है। मतिभ्रम और गलत निर्णय लेने से फायदे के काम भी हानिप्रद हो जाते हैं। स्वजनों और परिजनों से विरोध बढ़ता है। आम लोगों में छवि खराब होने लगती है।

          अतः जिन राशियों पर साढ़ेसाती तथा ढैय्या का प्रभाव है, शनि की शन्ति के उपचार करने पर अशुभ फलों की कमी होने लगती है और धीरे-धीरे वे संकट से निकलने के रास्ते प्राप्त कर सकते हैं।

साढ़ेसाती का समय

         शनि उग्र प्रकृति का क्रूर ग्रह है। गोचर में साढ़ेसाती के विपरीत प्रभाव से एक्सीडेंट, कर्जा चढ़ना, कोर्ट केस, तान्त्रिक प्रयोग, मृत्यु, झूठी बदनामी, जेल जाना, नशा करना, बर्बाद होना, धन हानि, शत्रु से नुकसान, चोरी होना, दु:ख, चिन्ता, दुर्भाग्य, पैसा फँसना, समय पर काम न होना, घर में क्लेश बना रहना, पारिवारिक झगड़े, अगर स्त्री हो तो उसकी शादी लेट होना, अच्छा पति न मिलना, पति का शराब पीना, लड़ाई-झगड़े करना, अपनी इच्छा से विवाह न होना, घर से भाग जाना, सन्तान कष्ट, पुत्र प्राप्ति न होना, अपमान, तनाव, आर्थिक तंगी, गरीबी, नौकरी न लगना, प्रमोशन न होना, व्यापार न चलना, बच्चों से नुकसान अर्थात बच्चे का बिगड़ना, शिक्षा प्राप्त न होना, परीक्षा में फेल होना, गुप्त शत्रु होना, गुप्त स्थानों के रोग, जोड़ों के दर्द होना, साँस की समस्या, पेट के रोग, शरीर में मोटापा, बीमारियों पर पैसा खर्चा होना, जीवन में असफलता आदि सब शनि की महादशा, अन्तर्दशा, गोचर या शनि के अनिष्ट योग होने पर होता है।

          रत्न विज्ञान के अनुसार शनि के लिए धातु मुद्रिका भी धारण कर सकते हैं। पंच धातु अथवा लोहे की मुद्रिका में ४ रत्ती से अधिक का नीलम बाएँ हाथ की मध्यमा अँगुली में धारण करना चाहिए।

          शनि जीवन में आकस्मिकता की स्थिति लाता है और जीवन में जो अकस्मात् घटनाएँ होती है, चाहे वे अच्छे फल की तरफ हों अथवा बुरे फल की ओर उनका मूल कारक शनि ही है।

          वैसे मेरा तो विश्वास है कि शनि की पूजा, जप, साधना और मन्त्र द्वारा इसे तीव्रता से अनुकूल बनाया जा सकता है। और जब यह अनुकूल होता है तो व्यक्ति को रंक से राजा बना देता है। जितने भी लोग राजनीति में उच्च स्थान पर पहुँचते हैं, उनका शनि प्रबल होता है। परिवार में भी शनि प्रधान व्यक्ति का ही वर्चस्व रहता है।

         यदि आपके ऊपर शनि साढ़ेसाती ग्रह का समय चल रहा है या इस तरह की कोई समस्या आ रही है तो कहीं न कहीं शनि ग्रह आपको अशुभ फल दे रहा है। शनि ग्रह के अशुभ फल से बचने के लिए अन्य बहुत से उपाय है, पर सभी उपायों में मन्त्र का उपाय सबसे अच्छा माना जाता है। इन मन्त्रों का कोई नुकसान भी नहीं होता और इसके माध्यम से शनि ग्रह के अनिष्ट प्रभाव से पूर्णतः बचा जा सकता है। इसका प्रभाव शीघ्र ही देखने को मिलता है।

         यदि किसी कारण वश आप यदि साधना न कर सके तो शनि तान्त्रोक्त मन्त्र की नित्य ५ माला काले आसन पर बैठकर काले हकीक की माला से या रुद्राक्ष माला से जाप करें, तब भी शनि ग्रह का विपरीत प्रभाव शीघ्र समाप्त होने लग जाता है। पर ऐसा देखा गया है कि मन्त्र जाप छोड़ने के बाद फिर पुन: आपको शनि ग्रह के अनिष्ट प्रभाव देखने को मिल सकते है, इसलिए साधना करने का निश्चय करें तो अधिक अच्छा है। अगर आप साधना नहीं कर सकते तो किसी योग्य पण्डित से भी करवा सकते हैं।

साधना विधान :----------

          यह साधना रात्रिकालीन साधना है। इस साधना को साधक शनि जयन्ती की रात्रि को प्रारम्भ करे। किसी शनैश्चरी अमावस्या अथवा किसी भी शनिवार की रात्रि से भी इसको शुरु किया जा सकता है। साधना रात्रि में बजे से  आरम्भ करे।

          साधक स्नान करके काले या गहरे नीले रंग के वस्त्र धारण करे और नीले या काले रंग के आसन पर पश्चिम दिशा की ओर मुख कर बैठ जाएं। अपने सामने भूमि पर काजल से एक त्रिभुज का बनाएं और उसपर एक बाजोट  रखें।  बाजोट  पर काला  वस्त्र  बिछाएं  और  उसपर सद्गुरुदेवजी  का  चित्र  स्थापित करें।  चित्र  के  समक्ष  एक  ताम्रपात्र रखें। ताम्रपात्र में काजल से ही अष्टदल कमल बनाएं। उसपर काले उड़द की ढेरी बनाकर उस पर शनि यन्त्र स्थापित करें।

          अब सबसे पहले पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी का सामान्य  पूजन कर गुरुमन्त्र की चार माला जाप करें। तत्पश्चात सद्गुरुदेवजी से शनि साधना सम्पन्न करने हेतु मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा प्राप्त करें और उनसे साधना की सफलता के लिए प्रार्थना करें।

          तदुपरान्त भगवान गणपतिजी का स्मरण करके एक माला किसी भी गणपति मन्त्र का जाप करें और भगवान गणपतिजी से साधना की सफलता व निर्विघ्न पूर्णता के लिए निवेदन करें।

          फिर साधना के पहले दिन साधक संकल्प अवश्य करें।  इसके बाद साधक यन्त्र का सामान्य पूजन करें और यन्त्र पर काजल से रँगे हुए अक्षत (चावल) चढ़ाएं। अक्षत चढ़ाते समय "ॐ शं ॐ" मन्त्र का उच्चारण करते रहें।

          इसके बाद साधक हाथ जोड़कर शनिदेव का निम्नानुसार ध्यान करें -----

नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं, गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्द्धरम्।
चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं, वन्दे सदाSभीष्टकरं वरेण्यम्।।

         इस प्रकार ध्यान के पश्चात शनि-भार्या-नाम स्तोत्र के ७ पाठ सम्पन्न करें -----

ॐ स्वामिनी ध्वंसिनी कंकाली बला च महाबला,
कलही कण्टकी दुर्मुखी च अजामुखी।
एतत्शनैश्चराः नवम-भार्या नामः प्रातः सायं, 
पठेतस्य नरः शनैश्चरी पीड़ा भवन्तु कदाचन्।।

          इसके बाद साधक को चाहिए कि वह शनि तान्त्रोक्त मन्त्र का काली हकीक माला अथवा रुद्राक्ष माला से २३ (तेईस) माला जाप करें -----

शनि तान्त्रोक्त मन्त्र :-----------

।। ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः ।।

OM PRAAM PREEM PROUM SAH SHANAISHCHARAAY NAMAH.

          मन्त्र जाप के पश्चात साधक तीन बार शनि स्तोत्र का पाठ करना चाहिए -----

ॐ नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम:॥१॥
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रु जटाय च।
नमो विशाल नेत्राय शुष्कोदर भयाकृते॥२॥
नमो: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुनः।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोSस्तुते॥३॥
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम:।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने॥४॥
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोSस्तुते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च॥५॥
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोSस्तुते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते॥६॥
तपसा दग्ध देहाय नित्यं योगरताय च।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:॥७॥
ज्ञानचक्षुष्मते तुभ्यं काश्यपात्मज सूनवे।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्॥८॥
देवासुरमनुष्याश्च सिद्धि विद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलतः॥९॥
प्रसादं कुरु मे देव वरार्होऽहमुपागतः।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबलः॥११॥

          स्तोत्र पाठ के उपरान्त साधक समस्त जाप एक आचमनी जल छोड़कर शनिदेव को ही समर्पित कर दें।

          यह साधना ग्यारह दिन की है। साधना के बीच साधनात्मक नियमों का पालन करें। भय रहित होकर पूर्ण आस्था के साथ ग्यारह दिन मन्त्र जाप करें। नित्य जाप करने से पहले संक्षिप्त पूजन अवश्य करें। साधना के बारे में जानकारी गुप्त रखें। ग्यारह दिन तक मन्त्र का जाप करने के बाद मन्त्र का दशांश या संक्षिप्त हवन करें। हवन के पश्चात् यन्त्र को अपने सिर से उल्टा सात बार घुमाकर दक्षिण दिशा में किसी निर्जन स्थान या पीपल के नीचे रख दें।

         इस तरह से यह साधना पूर्ण मानी जाती है। धीरे-धीरे शनि अपना अनिष्ट प्रभाव देना कम कर देता है। शनि ग्रह की साढ़ेसाती के समय में आपको अच्छे परिणाम देखने को मिलते है, धीरे-धीरे शनि से सम्बन्धित दोष आपके जीवन से समाप्त हो जाते हैं।

                  मैं सद्गुरुदेव भगवान परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

                 इसी कामना के साथ

ॐ नमो आदेश निखिल गुरूजी को आदेश आदेश आदेश ।।।