हिन्दू धर्म में ज्योतिष को वेदों का
छठा अंग माना गया है और किसी व्यक्ति की जन्म-कुण्डली देखकर आसानी से इस बात का
पता लगाया जा सकता है कि वह व्यक्ति पितृ दोष से पीड़ित है या नहीं। क्योंकि यदि
व्यक्ति के पितर असन्तुष्ट होते हैं, तो
वे अपने वंशजों की जन्म-कुण्डली में पितृ दोष से सम्बन्धित ग्रह-स्थितियों का सृजन
करते हैं।
भारतीय ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार
जन्म-पत्री में यदि सूर्य-शनि या सूर्य-राहु का दृष्टि या युति सम्बन्ध हो और यह
सम्बन्ध जन्म-कुण्डली के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम व दशम भावों में से किसी एक भाव में हो तो इस प्रकार की
जन्म-कुण्डली वाले जातक को पितृ दोष होता है। साथ ही कुण्डली के जिस भाव में यह
योग होता है, उससे सम्बन्धित अशुभ फल ही प्राथमिकता
के साथ घटित होते हैं।
उदाहरण के लिए यदि सूर्य-राहु अथवा
सूर्य-शनि का अशुभ योग प्रथम भाव में हो तो वह व्यक्ति अशान्त प्रकृति का होता है
और उसे गुप्त चिन्ता, दाम्पत्य एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी
परेशानियाँ होती हैं, क्योंकि प्रथम भाव को ज्योतिष में लग्न
कहते हैं और यह शरीर का प्रतिनिधित्व करता है।
दूसरे भाव से धन, परिवार आदि के बारे में पता चलता है।
इस भाव में यह योग बने तो धन व परिवार से सम्बन्धित परेशानियाँ जैसे कि पारिवारिक
कलह, वैमनस्य व आर्थिक उलझनें होती हैं।
चतुर्थ भाव से माता, वाहन, सम्पत्ति आदि के बारे में पता लगता है। इस भाव में यह योग हो तो भूमि, मकान, माता-पिता एवं गृह-सुख में कमी या कष्ट होते हैं।
पंचम भाव में यह योग हो तो उच्च विद्या
में विघ्न व सन्तान सुख में कमी होने के संकेत होते हैं।
सप्तम भाव में यह योग हो तो यह योग
वैवाहिक सुख व साझेदारी के व्यवसाय में कमी या परेशानी का कारण बनता है।
नवम भाव या नवम भाव का स्वामी यदि किसी
भी तरह से राहु या केतु से ग्रसित है तो यह निश्चित रूप से पितृदोष होता है और
भाग्योन्नति में बाधाएँ उत्पन्न करता है।
पिता के स्थान दशम भाव का स्वामी ६, ८ या १२ वें भाव में चला जाए एवं गुरु
पापी ग्रह प्रभावित या राशि में हो, साथ
ही लग्न तथा पंचम भाव का स्वामी पाप ग्रहों से युति करे तो ऐसी कुण्डली पितृशाप
दोष युक्त कहलाती है। ऐसी कुण्डली युक्त जातक को सर्विस या कार्य, सरकार व व्यवसाय सम्बन्धी परेशानियाँ
होती हैं।
प्रत्येक भावानुसार फल का विचार होता है।
सूर्य यदि नीच में होकर राहु या शनि के साथ पड़ा हो तो पितृदोष ज्यादा होता है।
किसी कुण्डली में लग्नेश ग्रह यदि कोण
(६, ८ या १२ वें भाव) में स्थित हो तथा
राहु लग्न भाव में हो तब भी पितृदोष होता है।
पितृयोग कारक ग्रह पर यदि त्रिक (६, ८, १२)
भावेश एवं भावों के स्वामी की दृष्टि अथवा युति का सम्बन्ध भी हो जाए तो अचानक
वाहनादि के कारण दुर्घटना का भय, प्रेतबाधा, ज्वर, नेत्ररोग, तरक्की में रुकावट या बनते कार्यों में
विघ्न, अपयश, धनहानि आदि अनिष्ट फल होते हैं। ऐसी स्थिति में रविवार की संक्रान्ति
को लाल वस्तुओं का दान करने तथा पितरों का तर्पण करने से पितृ आदि दोषों की शान्ति
होती है।
चन्द्र-राहु, चन्द्र-केतु, चन्द्र-बुध, चन्द्र-शनि आदि योग भी पितृ दोष की
भाँति मातृ दोष कहलाते हैं। इनमें चन्द्र-राहु एवं सूर्य-राहु योगों को ग्रहण योग
तथा बुध-राहु को जड़त्व योग कहते हैं।
इन योगों के प्रभावस्वरूप भी भावेश की
स्थिति अनुसार ही अशुभ फल प्रकट होते हैं। सामान्यतः चन्द्र-राहु आदि योगों के
प्रभाव से माता अथवा पत्नी को कष्ट, मानसिक
तनाव, आर्थिक परेशानियाँ, गुप्त रोग, भाई-बन्धुओं से विरोध, अपने भी परायों जैसे व्यवहार रखें आदि
फल घटित होते हैं।
यदि आठवें या बारहवें भाव में
गुरु-राहु का योग और पंचम भाव में सूर्य-शनि या मंगल आदि कू्र ग्रहों की स्थिति हो
तो पितृदोष के कारण सन्तान कष्ट या सन्तान सुख में कमी रहती है।
अष्टमेश पंचम भाव में तथा दशमेष अष्टम
भाव में हो तो भी पितृदोष के कारण धन हानि अथवा सन्तान के कारण कष्ट होते हैं।
यदि पंचमेश सन्तान कारक ग्रह राहु के
साथ त्रिक भावों में हो तथा पंचम में शनि आदि कू्र ग्रह हो तो भी सन्तान सुख में
कमी होती है।
इसी प्रकार राहु अथवा शनि के साथ मिलकर
अनेक अनिष्टकारी योग बनते हैं, जो
पितृदोष की भाँति ही अशुभ फल प्रदान करते हैं।
बृहत्पाराशर होरा शास्त्र में कुण्डली
में इस प्रकार के शापित योग कहे गए हैं। इनमें पितृदोष श्राप, भ्रातृ श्राप,मातृ श्राप, प्रेम श्राप आदि योग प्रमुख हैं।
अशुभ पितृदोषों योगों के प्रभाव स्वरूप
जातक के स्वास्थ्य की हानि,
सुख में कमी, आर्थिक संकट, आय में बरकत न होना, सन्तान कष्ट अथवा वंशवृद्धि में बाधा, विवाह में विलम्ब, गुप्त रोग, लाभ व उन्नति में बाधाएँ, तनाव आदि अशुभ फल प्रकट होते हैं।
यदि किसी जातक की जन्म कुण्डली में
सूर्य-राहू, सूर्य-शनि आदि योगों के कारण पितृदोष
हो तो उसके लिए नारायण बलि,
नाग पूजा, अपने दिवंगत पितरों का श्राद्ध, पितृ तर्पण, ब्रह्म भोज, दानादि कर्म करवाने चाहिए। पितृदोष
निवारण के लिए अपने घर की दक्षिण दिशा की दीवार पर अपने दिवंगत पूर्वजों के फोटो
लगाकर उन पर हार चढ़ाकर सम्मानित करना चाहिए तथा उनकी मृत्यु तिथि पर ब्राह्मणों
को भोजन, वस्त्र एवं दक्षिणा सहित दान, पितृ तर्पण एवं श्राद्ध कर्म करने
चाहिए।
हाथ में पितृदोष के लक्षण :––––––––––
हाथ में पितृदोष को आसानी से नहीं खोजा
जा सकता, बहुत से लक्षण देखने के बाद ही किसी आप
किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। फिर भी
कुछ साधारण लक्षण हम आपको बताते हैं -----
१. सूर्य रेखा का टूटा हुआ होना
हाथ में सूर्य पर्वत का बहुत कमज़ोर
होना या सूर्य पर्वत पर रेखाओं का जाल होना पितृदोष को दर्शाता है। सूर्य की
स्थिति हाथ में बहुत महत्वपूर्ण है। अकेले सूर्य के कमज़ोर होने से व्यक्ति के
जीवन में बहुत बड़ा स्थान रिक्त रह जाता है। प्रसिद्धि, तरक्की, जीवन में भोग विलास के लिए जो पैसा चाहिए, जो सम्मान चाहिए, वह बिना सूर्य के नहीं मिल पाता।
२. हाथ में जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा, हृदय रेखा का मिलन
अगर आपके हाथ में जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा, हृदय रेखा एक जगह पर मिल रही है तो यह
भी पितृदोष की निशानी है। इस स्थिति में व्यक्ति आत्महत्या के लिए प्रेरित होता
है। उसके विचार निराशावादी हो जाते हैं और जीवन में प्रगति बाधित होती है।
वैसे तो कुण्डली में किस प्रकार का
पितृदोष है, उस पितृदोष के प्रकार के हिसाब से ही
पितृदोष शान्ति करवाना अच्छा होता है। लेकिन कुछ ऐसे सरल सामान्य उपाय भी हैं, जिनको करने से पितृदोष शान्त हो जाता
है, ये उपाय निम्नलिखित हैं -----
१. ब्रह्म पुराण (२२०/१४३ ) में पितृगायत्री मन्त्र
दिया गया है, इस मन्त्र की प्रतिदिन १ माला या अधिक
जाप करने से पितृदोष में अवश्य लाभ होता है।
मन्त्र :-----
।। ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च नमः स्वाहायै स्वधायै
नित्यमेव नमो नमः।।
२. मार्कण्डेय पुराण (९४/३ -१३ ) में वर्णित इस चमत्कारी
पितृ स्तोत्र का नियमित पाठ करने से भी पितृ प्रसन्न होकर स्तुतिकर्ता की मनोकामना
की पूर्ति करते हैं -----
पुराणोक्त पितृ स्तोत्र :----------
अर्चितानाममूर्तानां
पितृणां दीप्ततेजसाम्।
नमस्यामि सदा तेषां
ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।१।।
इन्द्रादीनां च नेतारो
दक्षमारीचयोस्तथा।
सप्तर्षीणां तथान्येषां
तान्नमस्यामि कामदान्।।२।।
मन्वादिनां च नेतारः
सूर्याचन्दमसोस्तथा।
तान्नमस्याम्यहं
सर्वान् पितृनप्यूदधावपि।।३।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च
वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिव्योश्च तथा
नमस्यामि कृतांजलिः।।४।।
देवर्षीणां जनितृंश्च
सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन्
नमस्येऽहं कृतांजलिः।।५।।
प्रजापतेः कश्यपाय
सोमाय वरूणाय च।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा
नमस्यामि कृतांजलिः।।६।।
नमो गणेभ्यः
सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयम्भुवे नमस्यामि
ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।७।।
सोमाधारान् पितृगणान्
योगमूर्तिधरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं
पितरं जगतामहम्।।८।।
अग्निरूपांस्तथैवान्यान्
नमस्यामि पितृनहम्।
अग्निषोममयं विश्वं यत
एतदशेषतः।।९।।
ये तु तेजसि ये चैते
सोमसूर्याग्निमूर्तयः।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा
ब्रह्मस्वरूपिणः।।१०।।
तेभ्योऽखिलेभ्यो
योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः।
नमो नमो नमस्ते मे
प्रसीदन्तु स्वधाभुजः।।११।।
विशेष :---
मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति ‘पितृस्तोत्र’ कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की
प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है।
श्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों के भोजन के समय भी इसका पाठ करने-कराने का
विधान है।
३. भगवान भोलेनाथ की तस्वीर या प्रतिमा
के समक्ष बैठ कर या घर में ही भगवान भोलेनाथ का ध्यान कर निम्न मन्त्र
की एक माला नित्य जाप करने से समस्त प्रकार के पितृदोष, संकट, बाधा आदि शान्त होकर शुभत्व की प्राप्ति होती है। मन्त्र जाप प्रातः
या सायंकाल कभी भी कर सकते हैं।
मन्त्र :-----
।। ॐ तत्पुरुषाय
विद्महे महादेवाय च धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।।
४. अमावस्या को पितरों के निमित्त
पवित्रता पूर्वक बनाया गया भोजन तथा चावल बूरा, घी
एवं एक रोटी गाय को खिलाने से पितृदोष शान्त होता है।
५. अपने माता-पिता, बुजुर्गों का सम्मान, भाई-बहिनों, सभी स्त्री कुल का आदर/सम्मान करने और
उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से पितर हमेशा प्रसन्न रहते हैं।
६. पितृदोष जनित सन्तान कष्ट को दूर
करने के लिए “हरिवंश पुराण” का श्रवण करें या स्वयं नियमित रूप से
पाठ करें।
७. प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती या सुन्दर काण्ड का पाठ करने से भी इस दोष में कमी आती
है।
८. सूर्य पिता है, अतः ताँबे के लोटे में जल भर कर, उसमें लाल फूल, लाल चन्दन का चूरा, रोली आदि डाल कर सूर्य देव को अर्घ्य
देकर ११ बार “ॐ घृणि सूर्याय नमः” मन्त्र का जाप करने से पितरों की प्रसन्नता
एवं उनकी ऊर्ध्व गति होती है।
९. अमावस्या वाले दिन अवश्य अपने
पूर्वजों के नाम दुग्ध, चीनी, सफ़ेद कपडा, दक्षिणा आदि किसी मन्दिर में अथवा किसी
योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
१०. पितृपक्ष में पीपल की
परिक्रमा अवश्य करें। अगर प्रतिदिन यदि
कोई व्यक्ति पीपल के पेड़ पर मीठा जल, मिष्ठान्न
एवं जनेऊ अर्पित करते हुए “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः” मन्त्र
का जाप करते हुए कम से कम सात या १०८ परिक्रमा करें। तत्पश्चात् अपने अपराधों एवं
त्रुटियों के लिये क्षमा माँगे तो पितृ दोष से उत्पन्न समस्त समस्याओं का निवारण
हो जाता है।
११. हर अमावस को अपने पितरों का ध्यान
करते हुए पीपल पर कच्ची लस्सी, गंगाजल, थोड़े काले तिल, चीनी, चावल, जल, पुष्पादि
चढ़ाते हुए "ॐ सर्व पितृ देवताभ्यो नमः" मन्त्र तथा पितृ सूक्त का पाठ करना
शुभ होगा।
मैं सद्गुरुदेव भगवान श्री
निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।
इसी कामना के साथ
ॐ
नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश आदेश।।
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