तान्त्रोक्त
श्रीगुरुकवच सिद्धि
उच्चकोटि के साधकों एवं
शिष्यों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व गुरुपूर्णिमा समीप ही है। इस बार
गुरुपूर्णिमा ९ जुलाई २०१७ को आ
रही है। आप सभी को गुरुपूर्णिमा पर्व की अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ।
फिर साधक सामान्य गुरुपूजन सम्पन्न करे और गुरुमन्त्र की कम से कम चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से तान्त्रोक्त श्रीगुरु कवच साधना सम्पन्न करने की आज्ञा लें और उनसे साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना करें।
इत्येवं गुरु कवचं ब्रह्म लोकेऽपि दुर्लभम्।
तव प्रीत्या मयाऽख्यातं न कस्य कथितं प्रिये॥१॥
जब कोई जातक दीक्षित होता है या साधनात्मक मार्ग
पर चलने लगता है तो सभी की सभी नकारात्मक शक्तियाँ, अहंकारी दुष्ट प्रवृत्ति के साधक, सिद्ध, तान्त्रिक
आदि भी ऐसे साधकों से ईर्ष्या एवं बैर भाव रखने लगते हैं और मौका मिलने पर ऐसे
साधकों को परेशान करते हैं, उसके आसपास
के वातावरण को प्रतिकूल करने के लिए उल्टे-सीधे प्रयोग करते हैं, और तो
और उसकी साधनात्मक ऊर्जा को चुराने की भी कोशिश करते हैं। ऐसा काम ज्यादातर साधक
के साथ क्रियाशील शक्तियाँ ही करती हैं। अधकचरे तान्त्रिकों के चक्कर में तो वह तब
आता है, जब वह
निःस्वार्थ भाव से लोगों की मदद करता है या फिर विशुद्ध साधनात्मक वातावरण में
प्रवेश करता है, जैसे कि
संन्यास जीवन में। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सारी स्थितियाँ हैं।
वैसे तो साधक के लिए गुरुमन्त्र ही सर्वोपरि है, परन्तु साधनात्मक जीवन
में बहुत सारे पहलुओं से, आयामों से परिचित होना पड़ता है, उनका ज्ञान रखना पड़ता है। यहाँ तक कि साधक के
आसपास स्वयं उसके परिवार आदि में भी ऐसे लोग होते हैं, जो उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा
का अवशोषण कर लेते हैं। कभी-कभी उनके पूर्वज आदि भी ऐसा करते हैं, परन्तु इन सब बातों का
पता एक सामान्य साधक को नहीं चलता है। पूर्व जन्मों के कर्मदोष भी हो सकते हैं।
गुरु भी हर एक तथ्य को आपको प्रत्यक्ष रूप से नहीं बता सकते, क्योंकि शिविरों आदि में
उन्हें अत्यधिक ऊर्जा लगानी पड़ती है, मेहनत करनी पड़ती है, स्वयं की भी साधना करनी पड़ती है। आखिर उनके भी तो गुरु हैं। इसलिए
आपको अपने गुरु द्वारा रचित साहित्यों और अन्य आध्यात्मिक व साधनत्मक ग्रन्थों का
भी अध्ययन करना चाहिए। या फिर अपने वरिष्ठ गुरु भाईयों या साधकों की सहायता लेनी
चाहिए।
मैं यहाँ पर आध्यात्मिक
रूप से तान्त्रोक्त श्रीगुरु कवच दे रहा हूँ, जिसका यदि आप उपयोग करते
हैं तो न केवल आप पूर्ण रूपेण विपक्ष द्वारा किए जा रहे तन्त्र-मन्त्रादिकों से
सुरक्षित रहेंगे, अपितु आप जो भी साधनात्मक
शक्तियाँ अर्जित करते हैं, वोह भी पूर्ण रूपेण कवचित रहेगी। कोई भी उनका हरण नहीं कर पायेगा।
इस कवच के मध्यम से आप दुष्कर साधनाओं को भी सम्पन्न कर सकते हैं। श्मशान आदि की
साधना में इसके द्वारा सुरक्षा चक्र या गोल घेरा निर्माण और उसके बाद स्वयं के
शरीर का कीलन, जिससे कोई भी दुष्ट या
नकारात्मक शक्तियाँ आपका अहित न कर पाएं, आप कर सकते हैं।
और एक महत्वपूर्ण बात वह
यह है कि आप यह न सोचें कि मात्र निर्देशित संख्या में कवच या मन्त्र पाठ कर लिया
और हो गया आपको वह कवच सिद्ध। ऐसा नहीं होता, क्योंकि यह कलियुग है और आजकल का रहन-सहन, खान-पान, चिन्तन-मनन, कार्य-व्यापार आदि ऐसा हो
गया है कि मनुष्य के न चाहते हुए भी कुछ ऐसे दुष्कर्म हो जाते हैं, जिनका उन्हें खुद ही पता
नहीं होता। अतः साधनात्मक ऊर्जा धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है, क्योंकि आप समाज में रह
कर साधना कर रहे हैं। कोई संन्यासी तो हैं नहीं कि २४ घण्टे साधनात्मक चिन्तन ही
हो। और न ही उन जैसा सधा हुआ सिद्ध शरीर जो किसी भी साधनात्मक शक्ति की ऊर्जा को
एक ही बार में भलीभाँति अपने आप में समाहित कर सके, पचा सके।
अतः आप किसी भी साधना को
करते हैं तो यह आवश्यक है कि आप मूल साधना को कम-से-कम ४-५ बार करें और उसके बाद
उसकी निरन्तरता बनाए रखने के लिए नित्य कवच या मन्त्र का कुछ मात्रा में पाठ या
जाप करें। विशेषतया कवच या स्तोत्र आदि की सिद्धि १००० पाठ से हो जाती है और इस
तरह ४-५ बार में कुल चार या पाँच हजार पाठ सम्पन्न हो जाते हैं। कुछ कवचों और
स्तोत्रों में उनकी पाठ संख्या दी गई होती है। इन सबके बाद ही आप कवच या स्तोत्र
में लिखे प्रयोग आदि को करने की पात्रता अर्जित करते हैं।
इस तान्त्रोक्त गुरु कवच की
उपासना सर्वप्रथम स्वयं परम ब्रह्म ने की थी। इस कवच में गुरु स्वरूप में स्वयं
श्री आदि शिव ही स्थापित हैं। इसे स्वयं श्री शिव ने माँ भवानी के
कहने पर उन्हें बताया था। यह कवच अति दुर्लभ श्री विश्वसार तन्त्र के
ऊर्ध्वाम्नाय खण्ड में उद्धृत है और मेरा अनुभूत किया हुआ है। इसके फलश्रुति खण्ड
में भगवान शिव जगदम्बा भवानी से कहते हैं कि –
“ हे देवि!
यह गुरु कवच ब्रह्मलोक में भी अति दुर्लभ है और मात्र आपसे अत्यधिक स्नेह के कारण इसे मैंने कहा है, किसी और से नहीं। जो इसका
पूजा काल और विशेषतः जप काल में पाठ करते हैं‚ उन्हें भुक्ति और मुक्ति की प्राप्ति होती है, सर्व मन्त्रों के जप का फल, सर्व यन्त्रों के अर्चन का फल और सर्व तीर्थों के भ्रमण व सेवन का फल
प्राप्त होता है। भोजपत्र पर अष्टगन्ध (आप केशर या गोरोचन या
लालचन्दन या तीनों के मिश्रण का भी
उपयोग कर सकते हैं) के द्वारा चक्र (तान्त्रोक्त गुरु यन्त्र)
को लिख कर तथा कवच को भी लिख कर प्राण
प्रतिष्ठा कर पूजन कर मिश्री युक्त गौ दुग्ध
से गुरु मण्डल का गुरु मन्त्र द्वारा शुद्ध होकर जो साधक तर्पण करता है और फिर उसे किसी गुटिका (चाँदी या त्रिलौह के ताबीज़) में रख कर धारण करता
है, वह सर्व प्रकार के
भूतादिकों के भयों से मुक्त हो जाता है। जो त्रिकाल कवच पाठ करता है, वह भव बन्धनों से मुक्त हो जाता है।”
कवच साधना विधि :------
इस साधना को गुरु पूर्णिमा‚ गुरु जन्म दिवस अथवा किसी भी गुरुवार से प्रारम्भ किया जा सकता है।
सर्वप्रथम साधक स्नान आदि से निवृत्त होकर पीले वस्त्र धारणकर पीले आसन पर बैठ
जाए। दिशा उत्तर या पूर्व ही उचित रहेगी। अपने सामने बाजोट पर पीला वस्त्र बिछाकर
साधक उसपर पूज्यपाद सद्गुरुदेव का चित्र अथवा गुरु यन्त्र स्थापित करे। घी या तेल
का दीपक जलाकर साथ ही धूप-अगरबत्ती भी जला ले।
फिर साधक सामान्य गुरुपूजन सम्पन्न करे और गुरुमन्त्र की कम से कम चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से तान्त्रोक्त श्रीगुरु कवच साधना सम्पन्न करने की आज्ञा लें और उनसे साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना करें।
इसके बाद संक्षिप्त गणेशपूजन सम्पन्न कर गणेशमन्त्र की एक माला जाप
करें और भगवान गणेशजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता एवं सफलता के लिए प्रार्थना
करें।
फिर साधक को साधना के पहिले दिन संकल्प अवश्य लेना चाहिए। साधक
दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि “मैं अमुक नाम का साधक गोत्र अमुक आज से तान्त्रोक्त श्रीगुरु कवच के १००० पाठ का अनुष्ठान आरम्भ कर रहा हूँ। पूज्यपाद सद्गुरुदेवजी
मेरी साधना को स्वीकार कर तान्त्रोक्त श्रीगुरु कवच की सिद्धि प्रदान करे तथा इसकी ऊर्जा को मेरे भीतर स्थापित कर दे।”
ऐसा कहकर जल भूमि पर छोड़ दे और कवच पाठ आरम्भ करें -----
तान्त्रोक्त श्री गुरु कवचम्
विनियोग :———
ॐ नमोऽस्य श्रीगुरुकवच नाम मन्त्रस्य श्री परम ब्रह्म ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः सर्ववेदानुज्ञो देव देवो श्रीआदि शिवः देवता, नमो हसौं हंसः हसक्षमलवरयूं सोऽहं
हंसः बीजं, सहक्षमलवरयीं शक्तिः, हंसः
सोऽहं कीलकं, समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास :———
श्री परम ब्रह्म ऋषये नमः
शिरसि। (सिर को स्पर्श करें)
अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। (मुख को स्पर्श करें)
सर्व वेदानुज्ञ देव देवो
श्रीआदि शिवः देवतायै नमः हृदि। (हृदय को
स्पर्श करें)
नमः हसौं हंसः
हसक्षमलवरयूं सोऽहं हंसः बीजाय
नमः गुह्ये। (गुह्य स्थान स्पर्श करे)
सहक्षमलवरयीं शक्तये नमः
पादयोः। (पैरों को स्पर्श करें)
हंसः सोऽहं कीलकाय नमः
नाभौ। (नाभि को स्पर्श करें)
समस्त श्रीगुरुमण्डल
प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र रक्षणार्थे
च पारायणे विनियोगाय नमः सर्वांगे। (सभी अंगों को स्पर्श करें)
करन्यास :———
हसां
अंगुष्ठाभ्यां नमः। (दोनों तर्जनी उंगलियों से
दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)
हसीं
तर्जनीभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी
उंगलियों को स्पर्श करें)
हसूं
मध्यमाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा
उंगलियों को स्पर्श करें)
हसैं
अनामिकाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों
अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
हसौं
कनिष्ठिकाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों
कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
हसः
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श
करें)
हृदयादिन्यास :———
हसां ह्रदयाय नमः। (हृदय को स्पर्श करें)
हसीं शिरसे स्वाहा। (सिर को स्पर्श करें)
हसूं शिखायै वषट्। (शिखा को स्पर्श करें)
हसैं कवचाय हुं। (भुजाओं को स्पर्श करें)
हसौं नेत्रत्रयाय वौषट्। (नेत्रों को स्पर्श करें)
हसः अस्त्राय फट्। (सिर
से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)
ध्यानम् :———
श्री सिद्ध मानव मुखा गुरवः स्वरूपं संसार दाह शमनं द्विभुजं
त्रिनेत्रं ।
वामांगं शक्ति सकलाभरणैर्विभूषं ध्यायेज्जपेत् सकल सिद्धि फल प्रदं
च ॥
मूल कवचम् :—————
ॐ नमः प्रकाशानन्दनाथः तु शिखायां पातु मे सदा।
परशिवानन्द नाथः शिरो मे रक्षयेत् सदा॥१॥
परशक्तिदिव्यानन्द नाथो भाले च रक्षतु।
कामेश्वरानन्द नाथो मुखं
रक्षतु सर्व धृक्॥२॥
दिव्यौघो मस्तकं देवि पातु सर्व शिरः सदा।
कण्ठादि
नाभि पर्यन्तं सिद्धौघा गुरवः प्रिये॥३॥
भोगानन्द नाथ गुरुः पातु दक्षिण बाहुकम्।
समयानन्द नाथश्च सन्ततं
हृदयेऽवतु॥४॥
सहजानन्द नाथश्च कटिं नाभिं च रक्षतु।
एष स्थानेषु सिद्धौघाः रक्षन्तु गुरवः सदा॥५॥
अधरे मानवौघाश्च गुरवः कुल नायिके।
गगनानन्द नाथश्च गुल्फयोः
पातु सर्वदा॥६॥
नीलौघानन्द नाथश्च रक्षयेत् पाद पृष्ठतः।
स्वात्मानन्द नाथ गुरुः
पादांगुलीश्च रक्षतु॥७॥
कन्दोलानन्द नाथश्च रक्षेत् पाद तले सदा।
इत्येवं मानवौघाश्च न्येसन्नाभ्यादि पादयोः॥८॥
गुरुर्मे रक्षयेदुर्व्या सलिले परमो गुरुः।
परापर गुरुर्वह्नौ रक्षयेत् शिव वल्लभे॥९॥
परमेष्ठी गुरुश्चैव रक्षयेत् वायु मण्डले।
शिवादि गुरवः साक्षात् आकाशे रक्षयेत् सदा॥१०॥
इन्द्रो गुरुः पातु पूर्वे आग्नेयां गुरुरग्नयः।
दक्षे यमो गुरुः पातु नैॠत्यां निॠतिगुरुः॥११॥
वरुणो गुरुः पश्चिमे वायव्यां मारुतो गुरुः।
उत्तरे धनदः पातु ऐशान्यां
ईश्वरो गुरुः॥१२॥
ऊर्ध्वं पातु गुरुर्ब्रह्मा अनन्तो गुरुरप्यधः।
एवं दश दिशः पान्तु इन्द्रादि गुरवः क्रमात्॥१३॥
शिरसः पाद पर्यन्तं पान्तु दिव्यौघ सिद्धयः।
मानवौघाश्च गुरवो व्यापकं
पान्तु सर्वदा॥१४॥
सर्वत्र गुरु रूपेण संरक्षेत् साधकोत्तमः।
आत्मानं गुरु रूपं च ध्यायेन मन्त्रं सदा बुधः॥१५॥
फलश्रुति :———
पूजा काले पठेद् यस्तु जप काले विशेषतः।
त्रैलोक्य
दुर्लभम् देवि भुक्ति मुक्ति फलप्रदम्॥२॥
सर्व मन्त्र फलं तस्य सर्व यन्त्र फलं तथा।
सर्व
तीर्थ फलं देवि यः पठेत् कवचं गुरोः॥३॥
अष्टगन्धेन् भूर्जे च लिख्यते चक्र संयुतम्।
कवचं गुरु पंक्तेस्तु भक्त्या च शुभ वासरे॥४॥
पूजयेत् धूप दीपाद्यैः सुधाभिः सित संयुतैः।
तर्पयेत्
गुरु मन्त्रेण साधकः शुद्ध चेतसा॥५॥
धारयेत् कवचं देवि इह भूत भयापहम्।
पठेन्मन्त्री
त्रिकालं हि स मुक्तो भव बन्धनात्॥६॥
एवं कवचं परमं दिव्य सिद्धौघ कलावान॥७॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्री सदगुरुः ब्रह्मार्पणमस्तु ॥
पहले
पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच
का पाठ करें और अन्तिम पाठ में पुनः मूल कवच एवं फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप
१००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण
प्रक्रम को आप ५ बार करें तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जाएंगे।
प्रयोग विधि :—————
नित्य किसी भी पूजन या
साधना को करने से पूर्व और अन्त में आप कवच का ५ बार पाठ करें।
रोगयुक्त अवस्था में या
यात्राकाल में स्तोत्र को मानसिक रूप से भावना पूर्वक स्मरण कर लें।
इसी तरह यदि आप श्मशान में
किसी साधना को कर रहे हों तो एक लोहे की छ्ड़ को कवच से २१ बार
अभिमन्त्रित कर अपने चारों ओर घेरा बना लें और
साधना से पूर्व व अन्त में कवच का ५-५ बार पाठ कर लें। जब कवच सिद्धि की साधना कर
रहे हो, उस समय एक लोहे की छ्ड़ को
भी गुरु चित्र या यन्त्र के सामने रख सकते हैं और बाद
में उपरोक्त विधि से प्रयोग कर सकते हैं।
सद्गुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानन्दजी से आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।
इसी कामना के साथ
ॐ नमो आदेश निखिल को आदेश
आदेश आदेश।।
4 टिप्पणियां:
इस कवच मे आप ने 13 और14 श्लोक मे पान्तु लिख रखा है । यहा पातु आयेगा या पान्तु ही आएगा
जै गुरुदेव,अगर कहीं मिस्टेक है तो सुधारें
दोनों जगहों पर परस्मैपदी धातु "पा" का धातुरूप लोट् लकार के अन्तर्गत प्रथम पुरुष का बहुवचन रूप "पान्तु" है, जो कि बिलकुल सही है।
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